रोज़ भटकता हूँ
उलझे ख्यालों की
अनकही
अजीब सी दुनिया में
जिसके एक तरफ
घनी हरियाली है
और
दूसरी तरफ
वीरान बंजर
जिसके एक तरफ
बारिश की बूंदें
और सोंधी खुशबू है
और दूसरी तरफ
ऊपर से
बरसती आग
फिर भी
यह पागल मन
मचलता है कह देने को
पल पल उभरता
हर जज़्बात
मगर मिल नहीं पाते शब्द
जुड़ नहीं पाते सिरे
क्योंकि
उलझे ख्यालों की यह दुनिया
देखने नहीं देती
कहीं और
खुद की देहरी के पार ।
~यशवन्त यश©
उलझे ख्यालों की
अनकही
अजीब सी दुनिया में
जिसके एक तरफ
घनी हरियाली है
और
दूसरी तरफ
वीरान बंजर
जिसके एक तरफ
बारिश की बूंदें
और सोंधी खुशबू है
और दूसरी तरफ
ऊपर से
बरसती आग
फिर भी
यह पागल मन
मचलता है कह देने को
पल पल उभरता
हर जज़्बात
मगर मिल नहीं पाते शब्द
जुड़ नहीं पाते सिरे
क्योंकि
उलझे ख्यालों की यह दुनिया
देखने नहीं देती
कहीं और
खुद की देहरी के पार ।
~यशवन्त यश©
बहुत सुन्दर प्रस्तुति।
ReplyDelete--
आपकी इस' प्रविष्टि् की चर्चा कल सोमवार (09-06-2014) को "यह किसका प्रेम है बोलो" (चर्चा मंच-1638) पर भी होगी!
--
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक
बड़ी अजीब है ये ख्यालों की दुनिया भी .... सुन्दर रचना
ReplyDeletevery nice
ReplyDeleteउलझेे खयालो की ये दुनिया देखने नही देती कुछ अपनी दहलीज के पार। सही कहा।
ReplyDeleteउलझे ख्यालों की दुनिया के पार ही जाकर ही घटती है कविता..
ReplyDeleteख्यालों की दुनिया उलझती ही है ..... बढ़िया रचना
ReplyDeleteसुंदर रचना ।
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