कोई रंक यहाँ कोई राजा बना फिरता है
उठता है यहाँ कोई हर रोज़ गिरा करता है।
किसी के पैरों से यहाँ कुचल जाते हैं नगीने
किसी हाथ से छूकर सँवर जाते हैं नगीने।
मूरत बन कर कोई खड़ा रहता है मैदानों में
शीशों मे जड़ कर कोई टंगा रहता है दीवारों मे।
एक मिट्टी के कई चोलों में एक रूह के उतरने पर
कोई कर्ज़ मे डूबा कोई महलों मे इतराया करता है।
खोया रहता है रंगीनीयों मे कोई फर्ज़ अता करता है
यूं ही गिर उठ कर कोई रंक कोई राजा बना करता है ।
~यशवन्त यश©
उठता है यहाँ कोई हर रोज़ गिरा करता है।
किसी के पैरों से यहाँ कुचल जाते हैं नगीने
किसी हाथ से छूकर सँवर जाते हैं नगीने।
मूरत बन कर कोई खड़ा रहता है मैदानों में
शीशों मे जड़ कर कोई टंगा रहता है दीवारों मे।
एक मिट्टी के कई चोलों में एक रूह के उतरने पर
कोई कर्ज़ मे डूबा कोई महलों मे इतराया करता है।
खोया रहता है रंगीनीयों मे कोई फर्ज़ अता करता है
यूं ही गिर उठ कर कोई रंक कोई राजा बना करता है ।
~यशवन्त यश©
इसी तरह यह जीवन का नाटक खेला जाता है...सुंदर रचना !
ReplyDeleteवाह ..जीवन ऐसा ही है
ReplyDeleteरोचक!
ReplyDeleteसुंदर रचना, मंगलकामनाएं आपको !
ReplyDeleteसुंदर रचना...
ReplyDeleteसादर।
बहुत खूब ... फर्ज तो अदा करना ही चाहिए हर किसी को ...
ReplyDeleteबहुत खूब..
ReplyDeleteउत्कृष्ट प्रस्तुति
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