बज रहा है
कभी धीमा
कभी तेज़ संगीत
वक़्त के
इसी कत्लखाने में
जहाँ बंद आँखों से
ज़िंदगी
रोज़ देखती है
अगले सफर के
सुनहरे सपने
और खुश हो लेती है
देह की
अंतिम विदा में
उड़ते फूलों की
लाल पीली
पंखुड़ियों को
महसूस कर के
खुद पर
बिखरा हुआ ....
आज
नहीं तो कल
जिस्म की कैद से
बाहर निकल
उसे भटकना ही है
खुद के लिये
फिर एक नये
पिंजरे की खोज में
सुनते हुए
वही चाहा-
अनचाहा संगीत
जो सदियों से
बजता आ रहा है
एक ही सुर में
वक़्त के कत्लखाने में।
~यशवन्त यश©
इस श्रंखला की पिछली पोस्ट्स यहाँ क्लिक करके देख सकते हैं।
कभी धीमा
कभी तेज़ संगीत
वक़्त के
इसी कत्लखाने में
जहाँ बंद आँखों से
ज़िंदगी
रोज़ देखती है
अगले सफर के
सुनहरे सपने
और खुश हो लेती है
देह की
अंतिम विदा में
उड़ते फूलों की
लाल पीली
पंखुड़ियों को
महसूस कर के
खुद पर
बिखरा हुआ ....
आज
नहीं तो कल
जिस्म की कैद से
बाहर निकल
उसे भटकना ही है
खुद के लिये
फिर एक नये
पिंजरे की खोज में
सुनते हुए
वही चाहा-
अनचाहा संगीत
जो सदियों से
बजता आ रहा है
एक ही सुर में
वक़्त के कत्लखाने में।
~यशवन्त यश©
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bahut khoob
ReplyDeleteबहुत सुंदर प्रस्तुति.
ReplyDeleteइस पोस्ट की चर्चा, रविवार, दिनांक :- 12/10/2014 को "अनुवादित मन” चर्चा मंच:1764 पर.
उत्तम प्रस्तुति।
ReplyDeleteसुंदर रचना
ReplyDeleteवक्त का कत्ल, संगीत, फुलो की पंखुडियाँ।।।।
ReplyDeleteक्या बात क्या बात ।
मौत के दृश्य को भी आकर्षक बना दिया ।
बहेड प्यारी और सच्चाई से वाकिफ़ रचना :)
ReplyDeleteमेरे ब्लॉग पर आप आमंत्रित हैं :)
लाजवाब प्रस्तुति ..बहुत ही उम्दा और गहन अर्थ समेटे हुए ..बधाई यश जी! सादर..
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