05 October 2014

मन

मन !
भटकता है कभी
कभी अटकता है
आस पास की
दीवारों पर
लटकती
तस्वीरों के
मोहपाश में
फँसकर
कुछ समझता है
कभी
कुछ कहता है
बातें करता है
तन को छू कर
निकलने वाली
ठंडी हवाओं से
पेड़ों की हिलती
शाखाओं से
झरती सूखी पत्तियों
नयी कलियों से
तुलना करता है
कभीखुद के
बीते कल की
आज की
बनाता है रूपरेखा
हर अगले पल की
उलझते हुए
सुलझते हुए
उखड़ती साँसों से
कभी जूझते हुए
मन बस
मन ही होता है
किसी सागर से उठती
बेपरवाह लहरों की तरह।

~यशवन्त यश©
owo-05102014

6 comments:

  1. बहुत सुन्दर प्रस्तुति।
    --
    आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल सोमवार (06-10-2014) को "स्वछता अभियान और जन भागीदारी का प्रश्न" (चर्चा मंच:1758) पर भी होगी।
    --
    चर्चा मंच के सभी पाठकों को
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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  2. बहुत सुन्दर प्रस्तुति।
    --
    आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल सोमवार (06-10-2014) को "स्वछता अभियान और जन भागीदारी का प्रश्न" (चर्चा मंच:1758) पर भी होगी।
    --
    चर्चा मंच के सभी पाठकों को
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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  3. बहुत सुन्दर कविता मन के विभिन्न ढंग को बताता है। मित्र आपको अगर उचित लगे तो विरामों का प्रयोग करें ताकि आपकी बात यथावत पाठकों तक पहुँचे। आपके रचना का प्रभाव और बढ़ जाएगा। स्वयं शून्य

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  4. मन के आईने को आईना दिखा दिया ।
    लाजवाब

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