मन !
भटकता है कभी
कभी अटकता है
आस पास की
दीवारों पर
लटकती
तस्वीरों के
मोहपाश में
फँसकर
कुछ समझता है
कभी
कुछ कहता है
बातें करता है
तन को छू कर
निकलने वाली
ठंडी हवाओं से
पेड़ों की हिलती
शाखाओं से
झरती सूखी पत्तियों
नयी कलियों से
तुलना करता है
कभीखुद के
बीते कल की
आज की
बनाता है रूपरेखा
हर अगले पल की
उलझते हुए
सुलझते हुए
उखड़ती साँसों से
कभी जूझते हुए
मन बस
मन ही होता है
किसी सागर से उठती
बेपरवाह लहरों की तरह।
~यशवन्त यश©
owo-05102014
भटकता है कभी
कभी अटकता है
आस पास की
दीवारों पर
लटकती
तस्वीरों के
मोहपाश में
फँसकर
कुछ समझता है
कभी
कुछ कहता है
बातें करता है
तन को छू कर
निकलने वाली
ठंडी हवाओं से
पेड़ों की हिलती
शाखाओं से
झरती सूखी पत्तियों
नयी कलियों से
तुलना करता है
कभीखुद के
बीते कल की
आज की
बनाता है रूपरेखा
हर अगले पल की
उलझते हुए
सुलझते हुए
उखड़ती साँसों से
कभी जूझते हुए
मन बस
मन ही होता है
किसी सागर से उठती
बेपरवाह लहरों की तरह।
~यशवन्त यश©
owo-05102014
सुंदर रचना ।
ReplyDeleteबहुत सुन्दर प्रस्तुति।
ReplyDelete--
आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल सोमवार (06-10-2014) को "स्वछता अभियान और जन भागीदारी का प्रश्न" (चर्चा मंच:1758) पर भी होगी।
--
चर्चा मंच के सभी पाठकों को
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
बहुत सुन्दर प्रस्तुति।
ReplyDelete--
आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल सोमवार (06-10-2014) को "स्वछता अभियान और जन भागीदारी का प्रश्न" (चर्चा मंच:1758) पर भी होगी।
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चर्चा मंच के सभी पाठकों को
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
बहुत सुन्दर कविता मन के विभिन्न ढंग को बताता है। मित्र आपको अगर उचित लगे तो विरामों का प्रयोग करें ताकि आपकी बात यथावत पाठकों तक पहुँचे। आपके रचना का प्रभाव और बढ़ जाएगा। स्वयं शून्य
ReplyDeleteवाह जी
ReplyDeleteमन के आईने को आईना दिखा दिया ।
ReplyDeleteलाजवाब