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02 December 2014

यूं ही इसी तरह

उड़ते
वक़्त के
बंद दरवाजों पर
देकर
एक दस्तक
अक्सर
करता  हूँ
नाकाम सी
एक
कोशिश
कि
या तो
वह थम जाय
कुछ पल
करने को
कुछ बातें
या
ले चले
मुझे भी
अपने ही साथ
अपनी ही गति से
अपनी ही
अंतहीन
अनंत यात्रा पर....
लेकिन
यह
हो नहीं सकता 
क्योंकि
मैं
नहीं हो सकता
मुक्त
वक़्त के ही बुने हुए
चक्रव्यूह से
जिसकी
भूलभुलैया में
भटकते ही रहना है
आदि से
अनंत तक.....
यूं ही
इसी तरह।

~यशवन्त यश©
owo01122014 

6 comments:

  1. आपकी लिखी रचना बुधवार 03 दिसम्बर 2014 को लिंक की जाएगी........... http://nayi-purani-halchal.blogspot.in आप भी आइएगा ....धन्यवाद!

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  2. समय के चक्र से कौन बच सका है ... कौन बाहर निकल सका है ...
    गहरा एहसास लिए हैं आपके भाव ...

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  3. बहुत सुन्दर

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  4. हो सकता है..हुआ है..वर्तमान में रहने की कला इसी चक्र से बाहर निकलने की कला है...

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  5. जीवन के भूलभुलैया में भटकते है हम सब ..यूँ हैं ..बहुत सही कहा आपने

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