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06 December 2014

नहीं पता बहते रहने का अर्थ

मैं
देखना चाहता हूँ
समुद्र को
और
उन उठती गिरती
लहरों को
जिनके बारे में
पढ़ा है
किताबों में
अखबारों में
जिन्हें देखा है
सिर्फ तस्वीरों में
कल्पना में
और कुछ सपनों में.....
मैं
छूना चाहता हूँ
उस नीले आसमान को
जो नीचे उतर आता है
साफ पानी के शीशे में
खुद को संवारते हुए
निहारते हुए
जो देखा करता है
बादलों का यातायात
पक्षियों के
गति अवरोधक
सूरज –चाँद-तारे
और न जाने कितने ही
वो अनगिनत पल
जो हैं कहीं दूर
मुझ मनुष्य की
कल्पना से ....
मैं
मिलना चाहता हूँ
ठंडी हवा की
गहराइयों में
घुल कर
छूना चाहता हूँ
खुद को
पाना चाहता हूँ
वह एहसास
जो
जीवन की दौड़ में
एक दूसरे को
पीछे छोडते
बीते हुए  
पलों को होता है....
इसलिए
मैं
देखना चाहता हूँ
समुद्र को
कहीं किनारे पर
खड़े हो कर
क्योंकि
धूल के गुबार भरे
इस सुनसान
मैदान में खड़े रह कर
अंत की
राह तकते हुए
मुझे
अब तक नहीं पता
जीवन के
बहते रहने का अर्थ ।

~यशवन्त यश©

6 comments:

  1. बहुत सुन्दर प्रस्तुति...

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  2. बहुत ख़ूब यश जी

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  3. सुन्दर प्रस्तुति

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  4. आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल रविवार (07-12-2014) को "6 दिसंबर का महत्व..भूल जाना अच्छा है" (चर्चा-1820) पर भी होगी।
    --
    सभी पाठकों को हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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  5. किनारे पर रहकर नहीं..लहरों के संग बहते हुए या डूबते उतराते ही समुद्र से मिलना होता है....भावपूर्ण रचना...

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