मैं
देखना चाहता हूँ
समुद्र को
और
उन उठती गिरती
लहरों को
जिनके बारे में
पढ़ा है
किताबों में
अखबारों में
जिन्हें देखा है
सिर्फ तस्वीरों में
कल्पना में
और कुछ सपनों में.....
मैं
छूना चाहता हूँ
उस नीले आसमान को
जो नीचे उतर आता है
साफ पानी के शीशे में
खुद को संवारते हुए
निहारते हुए
जो देखा करता है
बादलों का यातायात
पक्षियों के
गति अवरोधक
सूरज –चाँद-तारे
और न जाने कितने ही
वो अनगिनत पल
जो हैं कहीं दूर
मुझ मनुष्य की
कल्पना से ....
मैं
मिलना चाहता हूँ
ठंडी हवा की
गहराइयों में
घुल कर
छूना चाहता हूँ
खुद को
पाना चाहता हूँ
वह एहसास
जो
जीवन की दौड़ में
एक दूसरे को
पीछे छोडते
बीते हुए
पलों को होता है....
इसलिए
मैं
देखना चाहता हूँ
समुद्र को
कहीं किनारे पर
खड़े हो कर
क्योंकि
धूल के गुबार भरे
इस सुनसान
मैदान में खड़े रह कर
अंत की
राह तकते हुए
मुझे
अब तक नहीं पता
जीवन के
बहते रहने का अर्थ ।
~यशवन्त यश©
~यशवन्त यश©
बहुत सुन्दर प्रस्तुति...
ReplyDeletesunder rachna
ReplyDeleteबहुत ख़ूब यश जी
ReplyDeleteसुन्दर प्रस्तुति
ReplyDeleteआपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल रविवार (07-12-2014) को "6 दिसंबर का महत्व..भूल जाना अच्छा है" (चर्चा-1820) पर भी होगी।
ReplyDelete--
सभी पाठकों को हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
किनारे पर रहकर नहीं..लहरों के संग बहते हुए या डूबते उतराते ही समुद्र से मिलना होता है....भावपूर्ण रचना...
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