मन के आसमान में
बेखौफ उड़ान भरते
शब्दों के परिंदे
जाने कहाँ कहाँ
उठते बैठते
जाने क्या क्या
कहते सुनते
क्या क्या कर गुजरते हैं
खुद भी नहीं जानते।
मावस की रात में
चमकते चाँद से बातें कर
पूनम के अंधेरे में
यूं ही उदास हो कर
पतझड़ के फूलों की
खुशबू में बहक कर
अनलिखी किताब के
कोरे पन्नों से लिपट कर ....
शब्दों के परिंदे
कभी होते हैं
तिरस्कृत ,पुरस्कृत
और कभी बन जाते हैं
उपहास का कारण
फिर भी ढलते रहकर
कविता,कहानी
नाटक और गीतों में
जीवन के खेलों में
हार में और जीतों में
क्या क्या कर गुजरते हैं
खुद भी नहीं जानते।
~यशवन्त यश©
photo with thanks from-
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