17 March 2015

जीरो रिस्क वाला लेखन-सुधीश पचौरी

पहली नजर में लगता है कि तमिल के लेखक असली हैं और हिंदी के नकली। लेकिन पिछले दिनों दो तमिल लेखकों का उनकी जनता से जैसा संबंध नजर आया, उसे देखकर कहना होगा कि अपना हिंदी लेखक नकली होकर भी तमिल से असली है।
माना कि तमिल का लेखक जनता से जुड़ा है, उसके मुकाबले हिंदी का नहीं जुड़ा। तमिल वाले के पास उसकी जनता होती है, हिंदी वाला जनता के लफड़े से मुक्त होता है, और इसीलिए वह हर लफड़े से मुक्त रहता है। तमिल लेखक अपनी आफत अपने संग लिए रहता है।अपनी-अपनी परंपरा और अपनी-अपनी आदत ठहरी। तमिल की जनता अपने ‘प्यारे’ लेखक को चूंकि पढ़ती है, इसलिए लेखक से अपना ‘प्यार’ भी जताया करती है। हिंदी लेखक को जनता नहीं पढ़ती, इसलिए ‘प्यार’ भी नहीं करती।
पिछले ही दिनों की बात है। एक तमिल लेखक ने उपन्यास लिखा, जिसे जनता ने पढ़ा। पढ़ते ही जनता को अपने लेखक पर इतना ‘प्यार’ आया कि उसे ‘थपथपाने’ पहुंच गई। लेखक ने जनता के ऐसे जबर्दस्त प्यार से जान बचाई और कह दिया कि ‘लेखक मर चुका है!’ वह गया, तो दूसरा आ जाएगा। और लीजिए दूसरा आ ही गया। उसे भी जनता ने जमकर ‘प्यार’ दिया। लेखक को इतना ‘प्यार’ पचा नहीं। ऐसे जबर्दस्त प्यार से बचने के लिए उसे गुहार लगानी पड़ी! जब लोगों ने पूछा कि जनता आपको ‘प्यार’ कर रही है, आप उससे पीछा क्यों छुड़ाना चाहते हैं? तो वह बोला: ऐसे जबर्दस्त ‘प्यार’ के लिए थोड़े लिखता हूं और लिखता रहूंगा! इसे कहते हैं: आ बैल मुझे मार!
अंग्रेजी वाले तमिल जनता के ‘प्यार’ के मर्म को समझने की जगह उसे अभि-‘व्यक्ति’ की आजादी पर हमला समझ बैठे और दस्तखत कराते रहे। बाद में इस जनता के अनुराग का समाजशास्त्र ज्ञात हुआ कि लेखक ने जनता की किसी दुखती रग पर हाथ धर दिया था। जनता ने पढ़ा, तो लगा कि लेखक को कुछ समझाना जरूरी है, सो लेखक को प्यार से दुलराकर एक ठोस किस्म का थैंक्यू कह डाला!
हिंदी में जनता-जनता भजते हुए हमारी उम्र गुजरी, लेकिन अब जाकर समझ में आया कि जिसे जनता कहा जाता है, जिसे जनता का लेखक कहा जाता है और जिसे जनता का लेखक के प्रति प्यार कहा जाता है, वह क्या बला है?  जनता के प्यार के मारे तमिल लेखक-द्वय इसका मर्म दुनिया को बता चुके हैं।
हिंदी की परंपरा तमिल परंपरा से एकदम अलग है। हिंदी में लेखक लेखक होता है। जनता जनता होती है। लेखक और जनता का ऐसा ‘भरत मिलाप’ होते कभी नहीं देखा गया, जैसा तमिल लेखकों के साथ देखा गया है। कारण यह कि हिंदी वाला जनता जनता करता है, पर जनता से सुरक्षित दूरी भी रखता है और कमबख्त लिखता कुछ ऐसा है कि जनता सात जन्म में भी न समझ पाए। इसीलिए हिंदी की जनता, हिंदी के लेखक से उस तरह का प्यार करने के लिए नहीं मचलती, जिस तरह से तमिल के दो लेखकों के लिए मचलती दिखी।
जनता के प्यार का मारा भोला तमिल लेखक अगर हिंदी वालों को देखता, तो समझ जाता कि जनता से जुड़ना है, तो ऐसे जुड़ना है कि जनता से जुड़े तो दिखें, लेकिन जनता हरगिज न जुड़ने पाए। लेखक रूपी खंभे पर लट्टू तो लगे, लेकिन करंट न आ जाए। तमिल लेखकों की गलती रही। बंदों ने लट्टू ही नहीं लगाया, करंट भी लगा दिया। करंट लगाया, तो करंटित जनता झटका देगी ही। हे तमिल लेखको! हिंदी वालों से सीखो जीरो रिस्क वाला सुरक्षित लेखन!

साभार-'हिंदुस्तान'-15/03/2015

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