01 May 2015

क्योंकि मैं मज़दूर हूँ -(मई दिवस विशेष)

ढोता हूँ
दिन भर
ईंट,पत्थर और गारा 
अपने घर का
और नयी इमारत का सहारा
मैं नहीं वह बेचारा
जो नायक है
काल्पनिक चलचित्रों
कविताओं
और कहानियों का
जो अपने सुखांत
और दुखांत के बीच
मेरे जीवन की
अनकही
अनजानी रेखाओं को
सरे बाज़ार 
नीलाम करने के बाद भी
रखती नहीं
एक धेला
मेरी कर्मठ
काली
मांसल हथेलियों  पर .....

मैं
समय की
अनंत ऊंचाई पर बंधी
महीन रस्सी पर
चल कर
संघर्ष के
सँकरे रस्तों से गुज़र कर 
रोज़ मिलता हूँ
जीवन और मृत्यु से....
अपने  और अपनों के
सुनहरे कल की
चाहत लिये
हजारों की भीड़ में 
कहीं हमकदम
गुमनाम हो कर
खून पसीना पी कर 
ठोकरें खा कर
चुन जाता हूँ
किसी नींव में
किसी दीवार में
फिर भी नज़र नहीं आता हूँ
इतिहास के
किसी गर्द भरे
पन्ने पर
क्योंकि
मैं
मज़दूर!
दूसरों को
उनकी मंज़िल दे कर
बहुत दूर हूँ
खुद की मंज़िल से। 

~यशवन्त यश©

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