आपातकाल लगाए जाने की 40वीं वर्षगांठ के मौके पर हम कई राजनेताओं को
अपनी तकलीफों और त्याग के बारे में बात करते सुन रहे हैं। लालकृष्ण आडवाणी
पहले ही अपनी बात कह चुके हैं और बाकी भाजपा नेता भी पीछे नहीं हैं। शायद
हमें उन्हें याद दिलाना चाहिए कि संजय गांधी की पत्नी मेनका गांधी इस वक्त
नरेंद्र मोदी सरकार में कैबिनेट मंत्री हैं और संजय गांधी के सिपहसालार
जगमोहन भी भाजपा के वरिष्ठ नेता हैं। इसके अलावा, छत्तीसगढ़ जैसे भाजपा
शासित प्रदेशों में मीडिया का मुंह बंद करने की कोशिश और आदिवासियों के
मानवाधिकारों का हनन उसी तरह से हो रहा है, जैसे इमरजेंसी के दौरान हरियाणा
और उत्तर प्रदेश में हुआ था।
जिन युवा कार्यकर्ताओं को इंदिरा गांधी ने जेल में डाला था, उनमें नीतीश
कुमार, मुलायम सिंह यादव और लालू प्रसाद यादव हैं। अगर ये नेता अपने त्याग
के बारे में बात करें, तो यह कुछ ज्यादती होगी। मुलायम व लालू मुख्यमंत्री
के रूप में अपनी सत्ता का बेदर्दी से दुरुपयोग करते रहे हैं और अब अखिलेश
भी अपने पिता की राह पर हैं। जहां तक नीतीश का सवाल है, तो उन्होंने पिछले
दिनों कांग्रेस के साथ गठबंधन किया है, जिसके युवराज इंदिरा गांधी के पौत्र
हैं, जो अपनी दादी के उस विवादास्पद कार्यकाल के बारे में कतई शर्मिंदा
नहीं हैं।
राजनेताओं के पाखंड के सामने हमें इमरजेंसी के कुछ सच्चे नायकों को भुला
नहीं देना चाहिए। उनमें से एक मुंबई हाईकोर्ट के पूर्व न्यायाधीश वीएम
तारकुंडे थे। 1974 में जब इंदिरा गांधी की तानाशाही प्रवृत्तियां दिखने लगी
थीं, तब तारकुंडे और जयप्रकाश नारायण ने ‘सिटिजंस फॉर डेमोक्रेसी’ की
स्थापना की थी, जो देश में मानवाधिकारों के उल्लंघन पर ध्यान खींचने वाली
गैर राजनीतिक संस्था थी। जयप्रकाश नारायण को जून 1975 में विपक्षी नेताओं
और छात्र कार्यकर्ताओं के साथ गिरफ्तार कर लिया गया। साल के अंत में जेपी
गंभीर रूप से बीमार हो गए और रिहा कर दिए गए। सन 1976 में तारकुंडे के साथ
जेपी ने ‘पीपुल्स यूनियन फॉर सिविल लिबर्टीज ऐंड डेमोक्रेटिक राइट्स’
(पीयूसीएलडीआर) की स्थापना की। जब इमरजेंसी हटा ली गई, तो नई सरकार के
वरिष्ठ नेताओं ने आग्रह किया कि इस संस्था को अब बंद कर देना चाहिए।
तारकुंडे ने इनकार कर दिया।
इमरजेंसी का एक सबक यह था कि भारत में लोकतांत्रिक मूल्यों के लिए लगातार
सक्रिय रहना जरूरी है, ताकि ज्यादतियां फिर से न हो पाएं। लोकतंत्र के
समर्थकों को इसके लिए एक स्वतंत्र मंच की जरूरत थी, जो किसी भी राजनीतिक
पार्टी द्वारा मानवाधिकारों के हनन पर ध्यान खींच सके।
पीयूसीएलडीआर के अग्रणी कार्यकर्ताओं में से एक अर्थशास्त्री सीवी
सुब्बाराव थे। सुब्बाराव आंध्र विश्वविद्यालय के प्रतिभाशली छात्र थे,
जिन्हें इमरजेंसी में गिरफ्तार कर लिया गया था। सन 1978 में वह एमए फाइनल
की परीक्षा में जेल से ही शामिल हुए। मौखिक परीक्षा देना अनिवार्य था,
इसलिए सुब्बाराव को जंजीरों में जकड़कर विश्वविद्यालय में लाया गया। इसके
बावजूद उन्होंने विश्वविद्यालय में प्रथम स्थान पाया। जब इमरजेंसी खत्म हो
गई, तो सुब्बाराव दिल्ली के एक कॉलेज में अर्थशास्त्र पढ़ाने लगे। उन्होंने
अपने आपको मानवाधिकार आंदोलन में झोंक दिया। वह देश के दूरदराज कोनों में
जाकर सांप्रदायिक हिंसा, कैदियों के साथ दुव्र्यवहार, उद्योगों और खदान
मालिकों द्वारा गांव की जमीन के अतिक्रमण जैसे मुद्दों पर रिपोर्ट करते
रहे।
मैं तारकुंडे को थोड़ा-बहुत जानता था और सुब्बाराव को अच्छी तरह जानता
था। दोनों असाधारण व्यक्ति थे। तारकुंडे बहुत शालीन और मृदुभाषी थे,
सुब्बाराव में कमाल का हास्यबोध और तेलुगु कविता के प्रति जबरदस्त प्रेम
था। अन्य भारतीय सामाजिक कार्यकर्ताओं की तरह तारकुंडे और सुब्बाराव में
घमंड या शेखी बिल्कुल नहीं थी और लोकतंत्र के प्रति उनकी प्रतिबद्धता
पूरी-पूरी थी।
सन 1980-81 में पीयूसीएलडीआर का विभाजन हो गया और दो संस्थाएं बनीं।
पीपुल्स यूनियन फॉर सिविल लिबर्टिज (पीयूसीएल) और पीपुल्स यूनियन फॉर
डेमोक्रेटिक राइट्स (पीयूडीआर) अपनी-अपनी तरह से ये संस्थाएं मानवाधिकारों
की रक्षा के लिए लगातार काम करती रहीं। उनके सदस्यों ने खेतिहर और औद्योगिक
संघर्षों, मीडिया पर आक्रमण और फर्जी मुठभेड़ जैसे सत्ता के दुरुपयोग पर कई
तथ्यपूर्ण रपटें प्रकाशित कीं। एक बहुत अच्छा काम उन्होंने कश्मीर और
पूर्वोत्तर भारत में मानवाधिकारों के हनन पर किया, जिन क्षेत्रों को शहरी
मध्यवर्ग और मीडिया भुला चुका है। 1984 के सिख विरोधी दंगों के बाद
पीयूसीएल और पीयूडीआर ने मिलकर एक बहुत अच्छी रपट ‘दोषी कौन’ प्रकाशित की।
1980 के दशक में एक युवा शोधकर्ता की तरह मैंने पीयूसीएल और पीयूडीआर की
गतिविधियों को बहुत करीब से देखा है। इसके सदस्य आमतौर पर कॉलेज शिक्षक या
वकील थे, जो अपना कामकाज संभालने के अलावा अपने बचे हुए वक्त में अपनी जेब
से पैसा खर्च करके मानवाधिकारों का काम करते थे। मुझे याद है इन लोगों में
एनडी पंचाली, इंद्रमोहन, आरएम पॉल, सुदेश वैद और हरीश धवन थे। दिल्ली और
उत्तर भारत के अलावा पश्चिम बंगाल में कपिल भट्टाचार्य इमरजेंसी के पहले से
ही मानवाधिकार आंदोलन में सक्रिय थे। मुंबई में असगर अली इंजीनियर, आंध्र
प्रदेश में नामी वकील केजी कन्नाबरन और गणितज्ञ के बालगोपाल थे।
मैं सामाजिक आंदोलनों में सक्रिय नहीं रहा, लेकिन मैं इन लोगों का बहुत
सम्मान करता हूं। मुझे इनसे एक ही शिकायत है कि ये लोग अपने काम को संकलित
करने और उसका प्रचार करने के मामले में लापरवाह हैं। भारत की महत्वपूर्ण
मानवाधिकार संस्थाओं ने देश में मानवाधिकारों के उल्लंघन पर 500 से ज्यादा
रपटें तैयार की होंगी, लेकिन ऐसी कोई एक जगह नहीं है, जहां ये सारी या
इनमें से काफी रपटें मिल सकें। तीस साल पहले समाजशास्त्री एआर देसाई के
संपादन में एक छोटा-सा संकलन जरूर छपा था। एक दशक पहले मैंने पीयूडीआर से
अपनी बड़ी रपटों का एक संकलन छापने का आग्रह किया था। एक बड़े प्रकाशक उसका
प्रकाशन करने के लिए तैयार भी हो गए थे, लेकिन हमारे मित्रों के नि:स्वार्थ
भाव और समाजवादी रुझान की वजह से यह कार्यक्रम नाकाम रहा।
व्यक्तियों की तरह संस्थाओं का भी एक जीवन-चक्र होता है। पीयूसीएल और
पीयूडीआर अब भी एक अच्छा काम कर रहे हैं, लेकिन अब वे इतने प्रभावी नहीं
हैं। इसकी बड़ी वजह यह है कि उसमें नए लोग नहीं आ रहे हैं। इन संस्थाओं में
ज्यादातर लोग काफी पुराने हैं और दशकों तक काम करने से वे थक भी गए हैं। एक
दूसरी बड़ी वजह यह है कि ये संस्थाएं पिछले कुछ सालों में पक्षपाती हो गई
हैं। वीएम तारकुंडे या सीवी सुब्बाराव की खासियत यह थी कि जहां वे सरकार के
खिलाफ सक्रियता दिखाते थे, वहीं अतिवादी संस्थाओं के प्रचार को भी जैसे का
तैसा स्वीकार नहीं करते थे। अब ये संस्थाएं अक्सर सरकारी ज्यादतियों का
विरोध करती हैं, लेकिन माओवादियों या अलगाववादियों का तीव्र विरोध करने से
बचती हैं।
इंदिरा गांधी की इमरजेंसी ने कुछ बहुत बुरे असर दिखाए, लेकिन
लोकतांत्रिक संस्थाओं और सांविधानिक मूल्यों पर उनके हमले ने कुछ असाधारण
स्त्री-पुरुषों को आजादी और लोकतांत्रिक मूल्यों के लिए लड़ने का जज्बा
दिया। आज राजनीतिक तंत्र शायद इमरजेंसी के खतरे से बचा हुआ है, लेकिन
मानवाधिकारों का केंद्र और राज्य सरकारों और राजनेताओं द्वारा उल्लंघन जारी
है। भारत को तारकुंडे और सुब्बाराव जैसे लोगों की एक नई पीढ़ी की सख्त
जरूरत है।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)
साभार-'
हिंदुस्तान'-27/06/2015