तलाक या वैवाहिक मतभेद के लंबित मामलों में अब उच्च शिक्षित महिलाएं गुजारा
भत्ता पाने का दावा नहीं कर सकेंगी। मुंबई के एक परिवार न्यायालय ने हाल
ही में एक बड़ा फैसला करते हुए उच्च शिक्षित महिलाओं को इस अवधि में भत्ता
दिलवाने से इनकार कर दिया। अदालत ने साफ कहा कि महिलाओं को इस बात अनुमति
नहीं दी जा सकती कि उच्च शिक्षित होने के बाद भी वे आराम से बैठकर अपने
निर्वाह-व्यय का दावा करें। अदालत ने सख्त शब्दों में कहा कि हिंदू मैरिज
ऐक्ट की धारा-24 ऐसे लोगों की फौज तैयार करने के लिए नहीं है, जो उच्च
शिक्षित और अपना निर्वाह करने योग्य होने के बाद भी आराम से बैठकर अपने पति
से गुजारा भत्ता पाने का इंतजार करें। अदालत की यह सख्ती उन महिलाओं व
कथित नारीवादी समूहों को चेतावनी है, जो अपने लाभ के लिए कानून का बेजा
इस्तेमाल करने से गुरेज नहीं करतीं।
बीते दशकों में देश की सामाजिक-सांस्कृतिक पृष्ठभूमि में जो बदलाव आया है, उसके चलते जहां महिलाएं बराबरी के प्रश्न पर संघर्ष कर रही हैं, वहीं रिश्तों के टकराव की स्थिति में खुद को असहाय व दुर्बल घोषित करने के प्रयास भी करती दिखाई देती हैं। अपने आर्थिक लाभ के लिए इस प्रकार की मानसिकता किसी भी स्थिति में ठीक नहीं ठहराई जा सकती। बीते दशकों में तलाक के मामलों में बढ़ोतरी हुई है। दस वर्ष पूर्व जहां तलाक की दर प्रति एक हजार में एक प्रतिशत थी, वह वर्तमान में 1.3 प्रतिशत है। इस बढ़ती तलाक-दर के क्या कारण हैं, यह शोध का विषय है, परंतु यह स्पष्ट है कि पुरुषों में वर्चस्ववादी सोच, महिलाओं में पनपती मनोवैज्ञानिक व वित्तीय स्वतंत्रता ने इसे बढ़ावा दिया है। इसमें कोई दोराय नहीं कि आज भी ऐसी स्त्रियों की बहुलता है, जो न उच्च शिक्षित हैं और न ही आत्मनिर्भर। ऐसे में, वैवाहिक मतभेद की स्थिति में अपने जीवनसाथी से गुजारा भत्ता पाना न्याय-संगत है, परंतु सिर्फ अपने अधिकारों की बात करके उच्च शिक्षित महिला का इस तरह के प्रश्नों को उठाना कानून की परिभाषा तोड़ना-मरोड़ना है, क्योंकि कानून में साफ है कि वैवाहिक संबंधों में पति-पत्नी का दर्जा एक समान है। यदि पति कमाऊ है और पत्नी गृहणी है, तो उसकी जरूरतों को पूर्ण करने की जिम्मेदारी पति को होगी। वहीं पत्नी कामकाजी है व पति बीमार या बेरोजगारी के दौर से गुजर रहा है, तो वह पत्नी पर आर्थिक तौर पर निर्भर रह सकता है।
गौरतलब है कि कुछ अरसे पहले पूर्वी दिल्ली के एक सरकारी स्कूल में शिक्षिका के तौर पर कार्यरत महिला को अदालत ने निर्देश दिया था कि वह अपने बीमार पति का इलाज कराए। इसके अलावा वह पति की रोजमर्रा की जरूरतों को पूरा करने के लिए हर माह 5,000 रुपये का भुगतान भी करे। अदालत का यह फैसला, वैवाहिक संबंधों में, उसकी समदृष्टि को पुख्ता करता है। जरूरी है कि यह सोच समाज में भी पैदा हो।
(ये लेखिका के अपने विचार हैं)
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साभार-'हिंदुस्तान' -09/जून/2015
बीते दशकों में देश की सामाजिक-सांस्कृतिक पृष्ठभूमि में जो बदलाव आया है, उसके चलते जहां महिलाएं बराबरी के प्रश्न पर संघर्ष कर रही हैं, वहीं रिश्तों के टकराव की स्थिति में खुद को असहाय व दुर्बल घोषित करने के प्रयास भी करती दिखाई देती हैं। अपने आर्थिक लाभ के लिए इस प्रकार की मानसिकता किसी भी स्थिति में ठीक नहीं ठहराई जा सकती। बीते दशकों में तलाक के मामलों में बढ़ोतरी हुई है। दस वर्ष पूर्व जहां तलाक की दर प्रति एक हजार में एक प्रतिशत थी, वह वर्तमान में 1.3 प्रतिशत है। इस बढ़ती तलाक-दर के क्या कारण हैं, यह शोध का विषय है, परंतु यह स्पष्ट है कि पुरुषों में वर्चस्ववादी सोच, महिलाओं में पनपती मनोवैज्ञानिक व वित्तीय स्वतंत्रता ने इसे बढ़ावा दिया है। इसमें कोई दोराय नहीं कि आज भी ऐसी स्त्रियों की बहुलता है, जो न उच्च शिक्षित हैं और न ही आत्मनिर्भर। ऐसे में, वैवाहिक मतभेद की स्थिति में अपने जीवनसाथी से गुजारा भत्ता पाना न्याय-संगत है, परंतु सिर्फ अपने अधिकारों की बात करके उच्च शिक्षित महिला का इस तरह के प्रश्नों को उठाना कानून की परिभाषा तोड़ना-मरोड़ना है, क्योंकि कानून में साफ है कि वैवाहिक संबंधों में पति-पत्नी का दर्जा एक समान है। यदि पति कमाऊ है और पत्नी गृहणी है, तो उसकी जरूरतों को पूर्ण करने की जिम्मेदारी पति को होगी। वहीं पत्नी कामकाजी है व पति बीमार या बेरोजगारी के दौर से गुजर रहा है, तो वह पत्नी पर आर्थिक तौर पर निर्भर रह सकता है।
गौरतलब है कि कुछ अरसे पहले पूर्वी दिल्ली के एक सरकारी स्कूल में शिक्षिका के तौर पर कार्यरत महिला को अदालत ने निर्देश दिया था कि वह अपने बीमार पति का इलाज कराए। इसके अलावा वह पति की रोजमर्रा की जरूरतों को पूरा करने के लिए हर माह 5,000 रुपये का भुगतान भी करे। अदालत का यह फैसला, वैवाहिक संबंधों में, उसकी समदृष्टि को पुख्ता करता है। जरूरी है कि यह सोच समाज में भी पैदा हो।
(ये लेखिका के अपने विचार हैं)
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साभार-'हिंदुस्तान' -09/जून/2015
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