एक अकेला
मेरा मन
रोज़ भटका करता है
खुद की खोज में
यह जानते हुए भी
कि देखा करता है
खुद का अक्स
गर्मी से जलती
चमकती
रेतीली देह के
दर्पण में
महसूस करता है
खुद को प्रत्यक्ष
अपने चंचलपन में
यहाँ वहाँ
घूम फिर कर
लौट आता है
आ मिलता है
अपने आरंभ
अपने अंत पर
और उस बिन्दु पर
जिसकी सीमारेखा के भीतर
खालीपन में
कुछ भी खाली नहीं ।
~यशवन्त यश©
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