कंक्रीट के जंगलों में
रहते रहते
जीते जीते
हो चुके हैं हम भी
कंक्रीट जैसे कठोर
निष्ठुर
बेजान और
बुजदिल .....
अब नहीं गिरते
हमारी आँखों से आँसू
किसी को
तड़पते
मरते देख कर
छांव की तलाश में
भटकते देख कर
या फिर
जीवन की
दो बूंद तलाशते देख कर ....
फिर क्यों
हम उम्मीद करते हैं
हरी भरी धरती की
जिसके भीतर की हलचल
पल भर में
डगमगा देती है
सारे सपने ...
जिसके आँचल में
अब जगह नहीं बची
रोते आसमान के
आंसुओं को समेटने की
क्योंकि
अब
धरती नहीं
सिर्फ़
अवशेष बचे हैं
हमारी तरक्की की
अजीब दस्तानों के।
~यशवन्त यश©
रहते रहते
जीते जीते
हो चुके हैं हम भी
कंक्रीट जैसे कठोर
निष्ठुर
बेजान और
बुजदिल .....
अब नहीं गिरते
हमारी आँखों से आँसू
किसी को
तड़पते
मरते देख कर
छांव की तलाश में
भटकते देख कर
या फिर
जीवन की
दो बूंद तलाशते देख कर ....
फिर क्यों
हम उम्मीद करते हैं
हरी भरी धरती की
जिसके भीतर की हलचल
पल भर में
डगमगा देती है
सारे सपने ...
जिसके आँचल में
अब जगह नहीं बची
रोते आसमान के
आंसुओं को समेटने की
क्योंकि
अब
धरती नहीं
सिर्फ़
अवशेष बचे हैं
हमारी तरक्की की
अजीब दस्तानों के।
~यशवन्त यश©
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