कहीं
महलों में आबाद
इंसानी बस्तियाँ हैं
कहीं
झोपड़ों में पलती
कई ज़िंदगियाँ हैं
कहीं
फेंक दी जाती है
जूठन
सड़कों के किनारों पर
कहीं
उसी जूठन से
दो जून की
मस्तियाँ हैं
कहीं
चांदी की तश्तरी में
गोश्त और बोटियाँ हैं
कहीं
मरियल सी हथेली में
बेजान सी रोटियाँ हैं
ये 'कहीं'
हर कहीं
रोज़ की खुशियाँ और गम
कहीं
थोड़ा ज़्यादा होता है
और कहीं थोड़ा कम ।
~यशवन्त यश©
महलों में आबाद
इंसानी बस्तियाँ हैं
कहीं
झोपड़ों में पलती
कई ज़िंदगियाँ हैं
कहीं
फेंक दी जाती है
जूठन
सड़कों के किनारों पर
कहीं
उसी जूठन से
दो जून की
मस्तियाँ हैं
कहीं
चांदी की तश्तरी में
गोश्त और बोटियाँ हैं
कहीं
मरियल सी हथेली में
बेजान सी रोटियाँ हैं
ये 'कहीं'
हर कहीं
रोज़ की खुशियाँ और गम
कहीं
थोड़ा ज़्यादा होता है
और कहीं थोड़ा कम ।
~यशवन्त यश©
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