डेंगू के मच्छर का पूरा अंदाज ही निराला है। वह सिर्फ साफ पानी में पनपता
है। दूसरे मच्छरों की तरह वह गंदे पानी की तरफ देखता भी नहीं। इसीलिए बताते
हैं कि वह वीआईपी इलाकों में ही ज्यादा पनपता है- राष्ट्रपति भवन से लेकर
संसद तक। मंत्रियों के बंगलों से लेकर डॉक्टरों के घरों तक। वह गंदी
बस्तियों का कतई मोहताज नहीं है। गरीबों को मारने के लिए दूसरी बहुत-सी
बीमारियां हैं।
वह आरोप क्यों ले कि उसका जोर भी भगवान की तरह गरीबों पर ही चलता है? हो सकता है कि आने वाले दिनों में उसकी मांग यह हो जाए कि मेरे लिए फिल्टर वाटर या मिनरल वाटर का इंतजाम करो। बताते हैं कि डेंगू के मच्छर दिन में काटते हैं। उनकी ड्यूटी का समय तय है- सुबह नौ बजे तक और कुछ देर शाम के वक्त। हो सकता है कि दोपहर को एकाध झपकी भी ले लेता हो। दूसरे मच्छरों की तरह नहीं है कि रात भर भिनभिनाता रहे। वह कोई मजदूर नहीं है कि ओवरटाइम करे।
पता चला है कि मच्छर मारने वाले धुएं का उस पर कोई असर नहीं होता। वह बाबुओं की तरह बिल्कुल चिकना घड़ा हो गया है। यह धुआं उस धमकी की तरह है, जो छोटे कर्मचारियों पर असर दिखाता है, बाबुओं और नौकरशाहों पर इसका कोई असर नहीं होता। जैसे नौकरशाही व्यवस्था को अपनी तरह तोड़-मोड़ लेती है, डेंगू मच्छर भी इस मच्छर मार धुएं को अपनी खुराक बना लेता है, अपने लिए इस्तेमाल कर लेता है। कहा तो यह भी जाता है कि डेंगू का मच्छर बड़ा ही समाजवादी किस्म का जीव है, जबकि ऐसे जीव आजकल कम ही मिलते हैं। वह अमीरों-गरीबों में कोई भेद नहीं करता है।
वह वीआईपी लोगों और आम गरीब-गुरबे में कोई भेद नहीं करता है, वह समान भाव से अपना काम करता है। वह डॉक्टरों को सिर्र्फ इसलिए नहीं बख्श देता कि उनका काम बीमार होना नहीं, इलाज करना है। वह वीआईपी लोगों को भी इसलिए नहीं बख्शता कि वे बस अमीरों वाली बीमारियों के लिए आरक्षित हैं। आजकल तो भेदभाव करने वाले लोग ही नहीं मिलते, और न ऐसे विचार ही मिलते हैं, मच्छर कहां मिलेंगे भला?
सहीराम
साभार-'हिंदुस्तान'- 07/10/2015
वह आरोप क्यों ले कि उसका जोर भी भगवान की तरह गरीबों पर ही चलता है? हो सकता है कि आने वाले दिनों में उसकी मांग यह हो जाए कि मेरे लिए फिल्टर वाटर या मिनरल वाटर का इंतजाम करो। बताते हैं कि डेंगू के मच्छर दिन में काटते हैं। उनकी ड्यूटी का समय तय है- सुबह नौ बजे तक और कुछ देर शाम के वक्त। हो सकता है कि दोपहर को एकाध झपकी भी ले लेता हो। दूसरे मच्छरों की तरह नहीं है कि रात भर भिनभिनाता रहे। वह कोई मजदूर नहीं है कि ओवरटाइम करे।
पता चला है कि मच्छर मारने वाले धुएं का उस पर कोई असर नहीं होता। वह बाबुओं की तरह बिल्कुल चिकना घड़ा हो गया है। यह धुआं उस धमकी की तरह है, जो छोटे कर्मचारियों पर असर दिखाता है, बाबुओं और नौकरशाहों पर इसका कोई असर नहीं होता। जैसे नौकरशाही व्यवस्था को अपनी तरह तोड़-मोड़ लेती है, डेंगू मच्छर भी इस मच्छर मार धुएं को अपनी खुराक बना लेता है, अपने लिए इस्तेमाल कर लेता है। कहा तो यह भी जाता है कि डेंगू का मच्छर बड़ा ही समाजवादी किस्म का जीव है, जबकि ऐसे जीव आजकल कम ही मिलते हैं। वह अमीरों-गरीबों में कोई भेद नहीं करता है।
वह वीआईपी लोगों और आम गरीब-गुरबे में कोई भेद नहीं करता है, वह समान भाव से अपना काम करता है। वह डॉक्टरों को सिर्र्फ इसलिए नहीं बख्श देता कि उनका काम बीमार होना नहीं, इलाज करना है। वह वीआईपी लोगों को भी इसलिए नहीं बख्शता कि वे बस अमीरों वाली बीमारियों के लिए आरक्षित हैं। आजकल तो भेदभाव करने वाले लोग ही नहीं मिलते, और न ऐसे विचार ही मिलते हैं, मच्छर कहां मिलेंगे भला?
सहीराम
साभार-'हिंदुस्तान'- 07/10/2015
No comments:
Post a Comment