12 December 2015

कहाँ तलाशूँ.....

सोच रहा हूँ
कहाँ तलाशूँ
गुमशुदा न्याय को
जो गुलाम हो चला है
अमीरों की जेबों का .....
न्याय की मूर्ति के हाथों में
अब बराबर तौलने वाला
सिर्फ तराजू ही नहीं होता
उसके हाथों में
होती हैं
नोटों की गड्डियाँ .....
इस मूर्ति की
तीसरी आँख
अब उसी तरफ खुलती है
जिस तरफ के पलड़े पर
वजन होता है ज़्यादा .......
और हल्का पलड़ा
अपनी बेगुनाही का सुबूत
देते देते
डूब जाता है
आंसुओं के सैलाब में।

~यशवन्त यश©

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