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29 December 2015
मैं वही हूँ,मैं वहीं हूँ
बहुत ही साधारण लिखने वाला एक बहुत ही साधारण इंसान जिसने 7 वर्ष की उम्र से ही लिखना शुरू कर दिया था। वाणिज्य में स्नातक। अच्छा संगीत सुनने का शौकीन। ब्लॉगिंग में वर्ष 2010 से सक्रिय। एक अग्रणी शैक्षिक प्रकाशन में बतौर हिन्दी प्रूफ रीडर 3 वर्ष का कार्य अनुभव।
20 December 2015
मैंने तो नहीं कहा........
मैंने तो नहीं कहा
कि बेचैन हूँ
इस दर पर
सबको
देखने को ....
न बिछा रखे हैं
लाल कालीन
बैठने को
न टहलने को ....
फिर भी कुछ हैं
जो आ रहे हैं
जा रहे हैं
अपनी मर्ज़ी से
एक नज़र डाल कर
किनारे हो कर
अलविदा के गीत
गा रहे हैं....
अच्छा ही है
मुक्त होना
बे मतलब की
जकड़न से
उलझन से
और इसमें
फंसे रहने को हमेशा
मैंने तो नहीं कहा ।
~यशवन्त यश©
कि बेचैन हूँ
इस दर पर
सबको
देखने को ....
न बिछा रखे हैं
लाल कालीन
बैठने को
न टहलने को ....
फिर भी कुछ हैं
जो आ रहे हैं
जा रहे हैं
अपनी मर्ज़ी से
एक नज़र डाल कर
किनारे हो कर
अलविदा के गीत
गा रहे हैं....
अच्छा ही है
मुक्त होना
बे मतलब की
जकड़न से
उलझन से
और इसमें
फंसे रहने को हमेशा
मैंने तो नहीं कहा ।
~यशवन्त यश©
बहुत ही साधारण लिखने वाला एक बहुत ही साधारण इंसान जिसने 7 वर्ष की उम्र से ही लिखना शुरू कर दिया था। वाणिज्य में स्नातक। अच्छा संगीत सुनने का शौकीन। ब्लॉगिंग में वर्ष 2010 से सक्रिय। एक अग्रणी शैक्षिक प्रकाशन में बतौर हिन्दी प्रूफ रीडर 3 वर्ष का कार्य अनुभव।
16 December 2015
आधे टिकट के सफर का खत्म होना -गिरिराज किशोर, वरिष्ठ साहित्यकार
सरकार ने आधे टिकट की कहानी पर पूर्ण विराम लगा दिया है। बच्चों को
अंग्रेजों के जमाने से मिलने वाला आधा टिकट अब रेलवे की टिकट खिड़की पर
नहीं मिलेगा। क्या इससे रेलवे की आर्थिक स्थिति सुधारने में मदद मिलेगी?
कितने बच्चे रेलवे की इस सुविधा का लाभ उठाते हैं? अपने देश में लगभग 60
प्रतिशत बच्चे तो शायद ही रेल से यात्रा करते हों। हो सकता है, बहुत से उन
बच्चों ने तो रेल देखी भी न हो, जो आदिवासी हैं या जो बहुत अंदर उन गांवों
में रहते हैं, जहां से रेल गुजरती ही नहीं। झुग्गी-झोपड़ी में रहने वाले
परिवार तो बच्चों को लेकर या स्वयं रेल से यात्रा करते ही नहीं। मध्य वर्ग
के लोग भले ही दो-चार साल में ब्याह शादी में सपरिवार चले जाते हों। बंगाल,
महाराष्ट्र और गुजरात में तो फिर भी अवकाश के दिनों में सपरिवार यात्रा पर
निकलते हैं। हिंदी पट्टी में तो देशाटन की मानसिकता नहीं के बराबर है।
इसलिए मालूम नहीं कि कितना राजस्व इन बच्चों के टिकट निरस्त करके मिलेगा? सरकार कुछ बच्चों के इस अधिकार को क्यों समाप्त करना चाहती है, जिनके माता-पिता अपने बच्चों को देश की सांस्कृतिक, ऐतिहासिक और धार्मिक पृष्ठभूमि से अवगत कराने के लिए इन स्थलों पर ले जाते हैं। मैं कई वर्ष पहले मंदाकिनी के किनारे एक केरलवासी से मिला। वह अपने दो बच्चों के साथ वहां बैठा उन्हें दिखा बता रहा था। उसकी गांव में साइकिल बनाने की दुकान थी। मैंने उससे पूछा, आप इतना पैसा खर्च करके इतनी दूर क्यों आए? वह बोला, हर तीन साल में अपने बच्चों को अलग-अलग दिशा में ले जाता हूं, जिससे बच्चे अपने देश के मुख्य स्थलों के बारे में सामान्य ज्ञान अर्जित करें। आज वह घटना शिद्दत से याद आ रही है।
रेलवे इन बच्चों के जीवन की इस एक संभावना को भी क्यों समाप्त करना चाहती है। आजादी के बाद से कितने सांसद और राज्यों में कितने विधायक अवकाश ग्रहण कर चुके हैं। उन सब को जीवन भर के लिए मुफ्त पास मिले हुए हैं। रेलवे के अवकाश प्राप्त छोटे-बड़े कर्मचारियों को आजीवन पास दिए जाते हैं। क्या बच्चों का महत्व उन अवकाशित सांसदों और विधायकों जितना भी नहीं? अंग्रेज ने सोचा होगा कि देश के लोग घर घुसरू हैं, बाहर निकलने की आदत डालो।
शायद तभी बच्चों के लिए आधे टिकट का प्रावधान किया था। उस समय 12 साल तक के बच्चों का आधा टिकट लगता था। सरकार ने उम्र की इस सीमा को घटाते-घटाते आठ साल पर पहले ही पंहुचा दिया था, अब इसे पूरी तरह बंद किया जा रहा है। अंग्रेज सरकार ने इसे शुरू किया था और यह सरकार, जो अपनी है और विकासोन्मुखी है, उसने बच्चों की यात्रा के अवसर को समाप्त कर दिया। विकास क्या भौतिक क्षेत्र का ही होता है? क्या इस आर्थिक विकास का अर्थ यह है कि बच्चों का आंतरिक और मानसिक विकास बंद हो जाए? बुलेट ट्रेन के युग की नई सोच शायद यही है।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)
साभार-'हिंदुस्तान'-16/12/2015
इसलिए मालूम नहीं कि कितना राजस्व इन बच्चों के टिकट निरस्त करके मिलेगा? सरकार कुछ बच्चों के इस अधिकार को क्यों समाप्त करना चाहती है, जिनके माता-पिता अपने बच्चों को देश की सांस्कृतिक, ऐतिहासिक और धार्मिक पृष्ठभूमि से अवगत कराने के लिए इन स्थलों पर ले जाते हैं। मैं कई वर्ष पहले मंदाकिनी के किनारे एक केरलवासी से मिला। वह अपने दो बच्चों के साथ वहां बैठा उन्हें दिखा बता रहा था। उसकी गांव में साइकिल बनाने की दुकान थी। मैंने उससे पूछा, आप इतना पैसा खर्च करके इतनी दूर क्यों आए? वह बोला, हर तीन साल में अपने बच्चों को अलग-अलग दिशा में ले जाता हूं, जिससे बच्चे अपने देश के मुख्य स्थलों के बारे में सामान्य ज्ञान अर्जित करें। आज वह घटना शिद्दत से याद आ रही है।
रेलवे इन बच्चों के जीवन की इस एक संभावना को भी क्यों समाप्त करना चाहती है। आजादी के बाद से कितने सांसद और राज्यों में कितने विधायक अवकाश ग्रहण कर चुके हैं। उन सब को जीवन भर के लिए मुफ्त पास मिले हुए हैं। रेलवे के अवकाश प्राप्त छोटे-बड़े कर्मचारियों को आजीवन पास दिए जाते हैं। क्या बच्चों का महत्व उन अवकाशित सांसदों और विधायकों जितना भी नहीं? अंग्रेज ने सोचा होगा कि देश के लोग घर घुसरू हैं, बाहर निकलने की आदत डालो।
शायद तभी बच्चों के लिए आधे टिकट का प्रावधान किया था। उस समय 12 साल तक के बच्चों का आधा टिकट लगता था। सरकार ने उम्र की इस सीमा को घटाते-घटाते आठ साल पर पहले ही पंहुचा दिया था, अब इसे पूरी तरह बंद किया जा रहा है। अंग्रेज सरकार ने इसे शुरू किया था और यह सरकार, जो अपनी है और विकासोन्मुखी है, उसने बच्चों की यात्रा के अवसर को समाप्त कर दिया। विकास क्या भौतिक क्षेत्र का ही होता है? क्या इस आर्थिक विकास का अर्थ यह है कि बच्चों का आंतरिक और मानसिक विकास बंद हो जाए? बुलेट ट्रेन के युग की नई सोच शायद यही है।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)
साभार-'हिंदुस्तान'-16/12/2015
बहुत ही साधारण लिखने वाला एक बहुत ही साधारण इंसान जिसने 7 वर्ष की उम्र से ही लिखना शुरू कर दिया था। वाणिज्य में स्नातक। अच्छा संगीत सुनने का शौकीन। ब्लॉगिंग में वर्ष 2010 से सक्रिय। एक अग्रणी शैक्षिक प्रकाशन में बतौर हिन्दी प्रूफ रीडर 3 वर्ष का कार्य अनुभव।
12 December 2015
कहाँ तलाशूँ.....
सोच रहा हूँ
कहाँ तलाशूँ
गुमशुदा न्याय को
जो गुलाम हो चला है
अमीरों की जेबों का .....
न्याय की मूर्ति के हाथों में
अब बराबर तौलने वाला
सिर्फ तराजू ही नहीं होता
उसके हाथों में
होती हैं
नोटों की गड्डियाँ .....
इस मूर्ति की
तीसरी आँख
अब उसी तरफ खुलती है
जिस तरफ के पलड़े पर
वजन होता है ज़्यादा .......
और हल्का पलड़ा
अपनी बेगुनाही का सुबूत
देते देते
डूब जाता है
आंसुओं के सैलाब में।
~यशवन्त यश©
कहाँ तलाशूँ
गुमशुदा न्याय को
जो गुलाम हो चला है
अमीरों की जेबों का .....
न्याय की मूर्ति के हाथों में
अब बराबर तौलने वाला
सिर्फ तराजू ही नहीं होता
उसके हाथों में
होती हैं
नोटों की गड्डियाँ .....
इस मूर्ति की
तीसरी आँख
अब उसी तरफ खुलती है
जिस तरफ के पलड़े पर
वजन होता है ज़्यादा .......
और हल्का पलड़ा
अपनी बेगुनाही का सुबूत
देते देते
डूब जाता है
आंसुओं के सैलाब में।
~यशवन्त यश©
बहुत ही साधारण लिखने वाला एक बहुत ही साधारण इंसान जिसने 7 वर्ष की उम्र से ही लिखना शुरू कर दिया था। वाणिज्य में स्नातक। अच्छा संगीत सुनने का शौकीन। ब्लॉगिंग में वर्ष 2010 से सक्रिय। एक अग्रणी शैक्षिक प्रकाशन में बतौर हिन्दी प्रूफ रीडर 3 वर्ष का कार्य अनुभव।
05 December 2015
पत्थर नहीं समझ पाते जज़्बातों को.......
आना जाना तो लगा ही रहता है
मिलना बिछड़ना तो लगा ही रहता है
कुछ लोग आग लगाते हैं
कुछ बुझाते भी हैं
अपनी तरह से जीना
सिखाते भी हैं
समझने वाले समझते हैं
बिन कहे ही बातों को
पिघल करके भी पत्थर
नहीं समझ पाते जज़्बातों को।
~यशवन्त यश©
मिलना बिछड़ना तो लगा ही रहता है
कुछ लोग आग लगाते हैं
कुछ बुझाते भी हैं
अपनी तरह से जीना
सिखाते भी हैं
समझने वाले समझते हैं
बिन कहे ही बातों को
पिघल करके भी पत्थर
नहीं समझ पाते जज़्बातों को।
~यशवन्त यश©
बहुत ही साधारण लिखने वाला एक बहुत ही साधारण इंसान जिसने 7 वर्ष की उम्र से ही लिखना शुरू कर दिया था। वाणिज्य में स्नातक। अच्छा संगीत सुनने का शौकीन। ब्लॉगिंग में वर्ष 2010 से सक्रिय। एक अग्रणी शैक्षिक प्रकाशन में बतौर हिन्दी प्रूफ रीडर 3 वर्ष का कार्य अनुभव।
03 December 2015
कुछ लोग 34
मतलब
निकल जाने के बाद
अपने मन की
हो जाने के बाद
दोस्त के मुखौटे में छुपे
कुछ दगाबाज लोग
दिखाने लगते हैं
अपने असली रंग ।
उन्हें नहीं मतलब होता
उनके पिछले दौर
और
आज की कठिनाइयों से
उन्हें
सिर्फ मतलब होता है
टांग खींचने से ।
ऐसे लोग
जानते हैं सिर्फ एक ही भाषा
पद,पैसे,
पहुँच और परिचय की
लेकिन नहीं जानते
तो सिर्फ यह
कि आने वाला कल
उनकी ही तरह पलटी मार कर
उनके साथ भी कर सकता है वही
जो वह कर रहे हैं आज
औरों के साथ।
~यशवन्त यश©
निकल जाने के बाद
अपने मन की
हो जाने के बाद
दोस्त के मुखौटे में छुपे
कुछ दगाबाज लोग
दिखाने लगते हैं
अपने असली रंग ।
उन्हें नहीं मतलब होता
उनके पिछले दौर
और
आज की कठिनाइयों से
उन्हें
सिर्फ मतलब होता है
टांग खींचने से ।
ऐसे लोग
जानते हैं सिर्फ एक ही भाषा
पद,पैसे,
पहुँच और परिचय की
लेकिन नहीं जानते
तो सिर्फ यह
कि आने वाला कल
उनकी ही तरह पलटी मार कर
उनके साथ भी कर सकता है वही
जो वह कर रहे हैं आज
औरों के साथ।
~यशवन्त यश©
बहुत ही साधारण लिखने वाला एक बहुत ही साधारण इंसान जिसने 7 वर्ष की उम्र से ही लिखना शुरू कर दिया था। वाणिज्य में स्नातक। अच्छा संगीत सुनने का शौकीन। ब्लॉगिंग में वर्ष 2010 से सक्रिय। एक अग्रणी शैक्षिक प्रकाशन में बतौर हिन्दी प्रूफ रीडर 3 वर्ष का कार्य अनुभव।
02 December 2015
तस्वीरें
रंग बिरंगी
उजली काली
तस्वीरें
इंसानी चेहरों की तरह
होती हैं
जिनके सामने कुछ
और पीछे
कुछ और कहानी होती है।
कुछ
झूठ की बुनियाद पर खड़ी
और कुछ
वास्तविकता की तरह
अड़ी होती हैं।
रंग बिरंगी
उजली काली
तस्वीरें
किसी दीवार पर
सिर्फ टंगी ही नहीं होतीं
इनकी
आड़ी तिरछी रेखाओं में
कहीं फांसी पर झूल रहा होता है
अर्ध सत्य।
~यशवन्त यश©
उजली काली
तस्वीरें
इंसानी चेहरों की तरह
होती हैं
जिनके सामने कुछ
और पीछे
कुछ और कहानी होती है।
कुछ
झूठ की बुनियाद पर खड़ी
और कुछ
वास्तविकता की तरह
अड़ी होती हैं।
रंग बिरंगी
उजली काली
तस्वीरें
किसी दीवार पर
सिर्फ टंगी ही नहीं होतीं
इनकी
आड़ी तिरछी रेखाओं में
कहीं फांसी पर झूल रहा होता है
अर्ध सत्य।
~यशवन्त यश©
बहुत ही साधारण लिखने वाला एक बहुत ही साधारण इंसान जिसने 7 वर्ष की उम्र से ही लिखना शुरू कर दिया था। वाणिज्य में स्नातक। अच्छा संगीत सुनने का शौकीन। ब्लॉगिंग में वर्ष 2010 से सक्रिय। एक अग्रणी शैक्षिक प्रकाशन में बतौर हिन्दी प्रूफ रीडर 3 वर्ष का कार्य अनुभव।
01 December 2015
सब
सबको हक है
सबके बारे में
धारणा बनाने का ......
सबको हक है
अपने हिसाब से
चलने का .........
सबकी मंज़िलें
अलग अलग होती हैं
कुछ थोड़ी पास
कुछ बहुत दूर होती हैं .....
सब,
जो सबकी परवाह करते हैं
सबसे अलग नहीं होते हैं
लेकिन सब,
जो सब से अलग होते हैं
धारा के विपरीत चलते हैं
और संघर्षों से
सफल होते हैं।
~यशवन्त यश©
सबके बारे में
धारणा बनाने का ......
सबको हक है
अपने हिसाब से
चलने का .........
सबकी मंज़िलें
अलग अलग होती हैं
कुछ थोड़ी पास
कुछ बहुत दूर होती हैं .....
सब,
जो सबकी परवाह करते हैं
सबसे अलग नहीं होते हैं
लेकिन सब,
जो सब से अलग होते हैं
धारा के विपरीत चलते हैं
और संघर्षों से
सफल होते हैं।
~यशवन्त यश©
बहुत ही साधारण लिखने वाला एक बहुत ही साधारण इंसान जिसने 7 वर्ष की उम्र से ही लिखना शुरू कर दिया था। वाणिज्य में स्नातक। अच्छा संगीत सुनने का शौकीन। ब्लॉगिंग में वर्ष 2010 से सक्रिय। एक अग्रणी शैक्षिक प्रकाशन में बतौर हिन्दी प्रूफ रीडर 3 वर्ष का कार्य अनुभव।
30 November 2015
कुछ लोग-33
अपना दिमाग लगाए बिना
फर्जी रिश्तों के जाल में फाँस कर
कभी भाई बना कर
कभी बहन बन कर
कुछ लोग
अपना उल्लू सीधा होते ही
खड़ी कर लेते हैं अपनी दुकान
दूसरों के दिमाग से।
वही अवधारणा
वही परिकल्पना
वही भाषा
वही चेहरे
और वही मोहरे
लेकिन नहीं
तो केवल वह बहाने
वह अवकाश।
वह आज मुक्त हैं
आनंद में हैं
सीधेपन को
बेवकूफी समझ कर
खुद को पीछे रख कर
औरों से भिड़ा कर
कुछ लोग
आज के आनंद में
भूल जाते हैं
अपना बीता हुआ
कल।
~यशवन्त यश©
फर्जी रिश्तों के जाल में फाँस कर
कभी भाई बना कर
कभी बहन बन कर
कुछ लोग
अपना उल्लू सीधा होते ही
खड़ी कर लेते हैं अपनी दुकान
दूसरों के दिमाग से।
वही अवधारणा
वही परिकल्पना
वही भाषा
वही चेहरे
और वही मोहरे
लेकिन नहीं
तो केवल वह बहाने
वह अवकाश।
वह आज मुक्त हैं
आनंद में हैं
सीधेपन को
बेवकूफी समझ कर
खुद को पीछे रख कर
औरों से भिड़ा कर
कुछ लोग
आज के आनंद में
भूल जाते हैं
अपना बीता हुआ
कल।
~यशवन्त यश©
बहुत ही साधारण लिखने वाला एक बहुत ही साधारण इंसान जिसने 7 वर्ष की उम्र से ही लिखना शुरू कर दिया था। वाणिज्य में स्नातक। अच्छा संगीत सुनने का शौकीन। ब्लॉगिंग में वर्ष 2010 से सक्रिय। एक अग्रणी शैक्षिक प्रकाशन में बतौर हिन्दी प्रूफ रीडर 3 वर्ष का कार्य अनुभव।
29 November 2015
बातें अपने मन की
कुछ लिखने के लिए
विषयों की कमी नहीं
कमी हम में होती है
हम ढूंढ नहीं पाते
देख नहीं पाते
अपने आस-पास
बस सोचते रह जाते हैं
क्या लिखें
क्या कहें
कैसे कहें .......
क्योंकि
बातें तो सब वही
पसरी पड़ी हैं
हर ओर
जिन्हें और लोग
पहले भी कह चुके हैं
अपने शब्दों में
हम
बस खोजते रह जाते हैं
अपने शब्दों
अपनी शैली
और अपनी
आत्मा की आवाज़ को
बस कभी कभी
मनमाफिक शब्दों को
तरसते हैं
और जब
वह मिलते हैं
तब हम भी कहते हैं
बातें
अपने मन की।
~यशवन्त यश©
विषयों की कमी नहीं
कमी हम में होती है
हम ढूंढ नहीं पाते
देख नहीं पाते
अपने आस-पास
बस सोचते रह जाते हैं
क्या लिखें
क्या कहें
कैसे कहें .......
क्योंकि
बातें तो सब वही
पसरी पड़ी हैं
हर ओर
जिन्हें और लोग
पहले भी कह चुके हैं
अपने शब्दों में
हम
बस खोजते रह जाते हैं
अपने शब्दों
अपनी शैली
और अपनी
आत्मा की आवाज़ को
बस कभी कभी
मनमाफिक शब्दों को
तरसते हैं
और जब
वह मिलते हैं
तब हम भी कहते हैं
बातें
अपने मन की।
~यशवन्त यश©
बहुत ही साधारण लिखने वाला एक बहुत ही साधारण इंसान जिसने 7 वर्ष की उम्र से ही लिखना शुरू कर दिया था। वाणिज्य में स्नातक। अच्छा संगीत सुनने का शौकीन। ब्लॉगिंग में वर्ष 2010 से सक्रिय। एक अग्रणी शैक्षिक प्रकाशन में बतौर हिन्दी प्रूफ रीडर 3 वर्ष का कार्य अनुभव।
28 November 2015
माना कि साथ चलते हैं......
माना कि साथ चलते हैं कुछ लोग हम राह बन कर
पर अपने ठौर तक अकेले ही जाना होता है
माना कि रोशनी नज़र आती है बस यहीं पर
पाने को उसको मीलों चले ही जाना होता है
खुद से शुरू होता है खुद ही खत्म होता है सफर
न चाह कर भी खुद को सिफर बन ही जाना होता है।
~यशवन्त यश©
पर अपने ठौर तक अकेले ही जाना होता है
माना कि रोशनी नज़र आती है बस यहीं पर
पाने को उसको मीलों चले ही जाना होता है
खुद से शुरू होता है खुद ही खत्म होता है सफर
न चाह कर भी खुद को सिफर बन ही जाना होता है।
~यशवन्त यश©
बहुत ही साधारण लिखने वाला एक बहुत ही साधारण इंसान जिसने 7 वर्ष की उम्र से ही लिखना शुरू कर दिया था। वाणिज्य में स्नातक। अच्छा संगीत सुनने का शौकीन। ब्लॉगिंग में वर्ष 2010 से सक्रिय। एक अग्रणी शैक्षिक प्रकाशन में बतौर हिन्दी प्रूफ रीडर 3 वर्ष का कार्य अनुभव।
27 November 2015
जासूस
जासूस
कब किस रूप में
क्या बन कर
सामने आ जाए
नहीं पता होता
किसी को।
पता तो तब चलता है
जब पंछी
फँसता है जाल में
और कैद हो जाता है
किसी पिंजरे में।
लेकिन
कुछ जासूस
ऐसे भी होते हैं
जो बता देते हैं
अपना सच
अपने कारनामों से।
जासूस
कुछ सच में ही
जासूस होते हैं
और कुछ
फँस कर
हो जाते हैं कैद
अपने ही पिंजरे में।
~यशवन्त यश©
कब किस रूप में
क्या बन कर
सामने आ जाए
नहीं पता होता
किसी को।
पता तो तब चलता है
जब पंछी
फँसता है जाल में
और कैद हो जाता है
किसी पिंजरे में।
लेकिन
कुछ जासूस
ऐसे भी होते हैं
जो बता देते हैं
अपना सच
अपने कारनामों से।
जासूस
कुछ सच में ही
जासूस होते हैं
और कुछ
फँस कर
हो जाते हैं कैद
अपने ही पिंजरे में।
~यशवन्त यश©
बहुत ही साधारण लिखने वाला एक बहुत ही साधारण इंसान जिसने 7 वर्ष की उम्र से ही लिखना शुरू कर दिया था। वाणिज्य में स्नातक। अच्छा संगीत सुनने का शौकीन। ब्लॉगिंग में वर्ष 2010 से सक्रिय। एक अग्रणी शैक्षिक प्रकाशन में बतौर हिन्दी प्रूफ रीडर 3 वर्ष का कार्य अनुभव।
26 November 2015
धर्म क्या है ?
धर्म! वह नहीं
जो हम समझते हैं
सदियों की चली आ रही
रूढ़ियों से।
धर्म!
वह नहीं
जो बाँट चुका है हमें
हिन्दू,मुस्लिम
सिख,पारसी
यहूदी,ईसाई
और न जाने कितनी ही
अनगिनत अनजानी
संज्ञाओं और विशेषणों में।
तो धर्म क्या है ?
धर्म वह है
जिसे धरण किया जा सके
अपनाया जा सके
सिखाया जा सके
बताया जा सके ।
धर्म !
वह धारणा है
जो ले चलती है
अच्छाई की राह पर
स्त्री-पुरुष
काले गोरे
देश-काल और
भाषा का
भेद किए बिना
जो देखती है
हर मानव को
समभाव से
और समरसता से।
धर्म !
मन की शांति है
शक्ति है
और अभिव्यक्ति है
जो हर व्यक्ति को
सिखाती है
ज़मीन पर टिके रह कर
आसमान को छूना।
~यशवन्त यश©
जो हम समझते हैं
सदियों की चली आ रही
रूढ़ियों से।
धर्म!
वह नहीं
जो बाँट चुका है हमें
हिन्दू,मुस्लिम
सिख,पारसी
यहूदी,ईसाई
और न जाने कितनी ही
अनगिनत अनजानी
संज्ञाओं और विशेषणों में।
तो धर्म क्या है ?
धर्म वह है
जिसे धरण किया जा सके
अपनाया जा सके
सिखाया जा सके
बताया जा सके ।
धर्म !
वह धारणा है
जो ले चलती है
अच्छाई की राह पर
स्त्री-पुरुष
काले गोरे
देश-काल और
भाषा का
भेद किए बिना
जो देखती है
हर मानव को
समभाव से
और समरसता से।
धर्म !
मन की शांति है
शक्ति है
और अभिव्यक्ति है
जो हर व्यक्ति को
सिखाती है
ज़मीन पर टिके रह कर
आसमान को छूना।
~यशवन्त यश©
बहुत ही साधारण लिखने वाला एक बहुत ही साधारण इंसान जिसने 7 वर्ष की उम्र से ही लिखना शुरू कर दिया था। वाणिज्य में स्नातक। अच्छा संगीत सुनने का शौकीन। ब्लॉगिंग में वर्ष 2010 से सक्रिय। एक अग्रणी शैक्षिक प्रकाशन में बतौर हिन्दी प्रूफ रीडर 3 वर्ष का कार्य अनुभव।
25 November 2015
कुछ लोग-32
कुछ लोग
बिना लाग लपेट
कह डालते हैं
अपने मन की
बना डालते हैं
नये दुश्मन
अपने शब्दों से
शब्दों में छिपे
अर्थों से
कर देते नाराज़
अपने राजदारों को
फिर भी
चलते रहते हैं
नुकीले-कंटीले रस्तों पर
नये विरोधियों की
खोज में।
~यशवन्त यश©
बिना लाग लपेट
कह डालते हैं
अपने मन की
बना डालते हैं
नये दुश्मन
अपने शब्दों से
शब्दों में छिपे
अर्थों से
कर देते नाराज़
अपने राजदारों को
फिर भी
चलते रहते हैं
नुकीले-कंटीले रस्तों पर
नये विरोधियों की
खोज में।
~यशवन्त यश©
बहुत ही साधारण लिखने वाला एक बहुत ही साधारण इंसान जिसने 7 वर्ष की उम्र से ही लिखना शुरू कर दिया था। वाणिज्य में स्नातक। अच्छा संगीत सुनने का शौकीन। ब्लॉगिंग में वर्ष 2010 से सक्रिय। एक अग्रणी शैक्षिक प्रकाशन में बतौर हिन्दी प्रूफ रीडर 3 वर्ष का कार्य अनुभव।
24 November 2015
गली के कुत्ते ......
गली के कुत्ते
अपने आप में
अनोखे होते हैं
उनको होती है पहचान
गली के हर शख्स की
खास ओ आम की
खुशी और गम की
हर घर में आए मेहमान की
वो पूंछ हिलाते हैं
एक नज़र देख लेने भर से
पुचकार लेने भर से
उभर आती है मासूमियत
उनके चेहरे पर
गली के कुत्ते
सिर्फ गली के कुत्ते नहीं होते
उनके आवारापन में
छिपा होता है
एक अलग सा अपनापन
जो उन्हें अलग करता है
घरों में कैद और
पट्टे से बंधे
सभ्य कुत्तों से।
~यशवन्त यश©
अपने आप में
अनोखे होते हैं
उनको होती है पहचान
गली के हर शख्स की
खास ओ आम की
खुशी और गम की
हर घर में आए मेहमान की
वो पूंछ हिलाते हैं
एक नज़र देख लेने भर से
पुचकार लेने भर से
उभर आती है मासूमियत
उनके चेहरे पर
गली के कुत्ते
सिर्फ गली के कुत्ते नहीं होते
उनके आवारापन में
छिपा होता है
एक अलग सा अपनापन
जो उन्हें अलग करता है
घरों में कैद और
पट्टे से बंधे
सभ्य कुत्तों से।
~यशवन्त यश©
बहुत ही साधारण लिखने वाला एक बहुत ही साधारण इंसान जिसने 7 वर्ष की उम्र से ही लिखना शुरू कर दिया था। वाणिज्य में स्नातक। अच्छा संगीत सुनने का शौकीन। ब्लॉगिंग में वर्ष 2010 से सक्रिय। एक अग्रणी शैक्षिक प्रकाशन में बतौर हिन्दी प्रूफ रीडर 3 वर्ष का कार्य अनुभव।
23 November 2015
मुनासिब नहीं
मुनासिब नहीं पत्थरों से कुछ कहना
क्योंकि पत्थर इंसान नहीं होते
मुनासिब नहीं इन्सानों से कुछ कहना
क्योंकि इंसान पत्थर नहीं होते
तो किससे कहें किस्से अपने मन के
डायरी के सब पन्ने भी अपने नहीं होते
हवा को अपना बनाकर है हमें यूं ही चलना
कहीं तो पहुंचेंगे ही कहीं उड़ते उड़ते।
~यशवन्त यश©
क्योंकि पत्थर इंसान नहीं होते
मुनासिब नहीं इन्सानों से कुछ कहना
क्योंकि इंसान पत्थर नहीं होते
तो किससे कहें किस्से अपने मन के
डायरी के सब पन्ने भी अपने नहीं होते
हवा को अपना बनाकर है हमें यूं ही चलना
कहीं तो पहुंचेंगे ही कहीं उड़ते उड़ते।
~यशवन्त यश©
बहुत ही साधारण लिखने वाला एक बहुत ही साधारण इंसान जिसने 7 वर्ष की उम्र से ही लिखना शुरू कर दिया था। वाणिज्य में स्नातक। अच्छा संगीत सुनने का शौकीन। ब्लॉगिंग में वर्ष 2010 से सक्रिय। एक अग्रणी शैक्षिक प्रकाशन में बतौर हिन्दी प्रूफ रीडर 3 वर्ष का कार्य अनुभव।
22 November 2015
बदलते दिन ......
तारीखें बदलती हैं
दिन बदलते हैं
सोच बदलती हैं
चेहरे बदलते हैं
लेकिन अंदर से
हम वही
वहीं के वहीं रहते हैं ।
एक दौर बीतता है
नया दौर आता है
सपनों और उम्मीदों के
नये ठौर सजाता है
अब देखना है
सामने पसरी हुई
नयी राहों पर
कदम चलते हैं
या कि थमते हैं
सुना है कि दिन
गिरगिट की तरह
अपने रंग बदलते हैं।
~यशवन्त यश©
दिन बदलते हैं
सोच बदलती हैं
चेहरे बदलते हैं
लेकिन अंदर से
हम वही
वहीं के वहीं रहते हैं ।
एक दौर बीतता है
नया दौर आता है
सपनों और उम्मीदों के
नये ठौर सजाता है
अब देखना है
सामने पसरी हुई
नयी राहों पर
कदम चलते हैं
या कि थमते हैं
सुना है कि दिन
गिरगिट की तरह
अपने रंग बदलते हैं।
~यशवन्त यश©
बहुत ही साधारण लिखने वाला एक बहुत ही साधारण इंसान जिसने 7 वर्ष की उम्र से ही लिखना शुरू कर दिया था। वाणिज्य में स्नातक। अच्छा संगीत सुनने का शौकीन। ब्लॉगिंग में वर्ष 2010 से सक्रिय। एक अग्रणी शैक्षिक प्रकाशन में बतौर हिन्दी प्रूफ रीडर 3 वर्ष का कार्य अनुभव।
21 November 2015
अपना ज्ञान अपने ही पास
रखना चाहिए
अपना ज्ञान
अपने ही पास
क्योंकि इस दौर में
देने वाले को ही
स्वार्थी समझा जाता है
और लेने वाला
एहसान दिखाता है।
जो सीखा
जो समझा
वह सब
रखना चाहिए
खुद के लिए
खुद के ही पास
क्योंकि
उलट-पुलट के
इस दौर में
सबको
अपना हित
समझ आता है।
~यशवन्त यश©
अपना ज्ञान
अपने ही पास
क्योंकि इस दौर में
देने वाले को ही
स्वार्थी समझा जाता है
और लेने वाला
एहसान दिखाता है।
जो सीखा
जो समझा
वह सब
रखना चाहिए
खुद के लिए
खुद के ही पास
क्योंकि
उलट-पुलट के
इस दौर में
सबको
अपना हित
समझ आता है।
~यशवन्त यश©
बहुत ही साधारण लिखने वाला एक बहुत ही साधारण इंसान जिसने 7 वर्ष की उम्र से ही लिखना शुरू कर दिया था। वाणिज्य में स्नातक। अच्छा संगीत सुनने का शौकीन। ब्लॉगिंग में वर्ष 2010 से सक्रिय। एक अग्रणी शैक्षिक प्रकाशन में बतौर हिन्दी प्रूफ रीडर 3 वर्ष का कार्य अनुभव।
20 November 2015
ये शब्द.....
ये शब्द -
सिर्फ कुछ शब्द हैं
जो मेरे मन में
ख्याल बन कर आते हैं
और ढल जाते हैं
अक्षरों के साँचे में
यहीं इसी जगह ।
ये शब्द-
सिर्फ कुछ शब्द हैं
कविता और कहानी नहीं
सिर्फ अभिव्यक्ति हैं
साहित्य नहीं।
ये शब्द-
सिर्फ एक पंछी हैं
जिसकी उड़ान को
मैं रोकता नहीं
जिसे मैं कभी टोकता नहीं
बस उड़ने देता हूँ
और थक कर बैठने देता हूँ
अंतर्जाल की
इस चारदीवारी पर।
~यशवन्त यश©
सिर्फ कुछ शब्द हैं
जो मेरे मन में
ख्याल बन कर आते हैं
और ढल जाते हैं
अक्षरों के साँचे में
यहीं इसी जगह ।
ये शब्द-
सिर्फ कुछ शब्द हैं
कविता और कहानी नहीं
सिर्फ अभिव्यक्ति हैं
साहित्य नहीं।
ये शब्द-
सिर्फ एक पंछी हैं
जिसकी उड़ान को
मैं रोकता नहीं
जिसे मैं कभी टोकता नहीं
बस उड़ने देता हूँ
और थक कर बैठने देता हूँ
अंतर्जाल की
इस चारदीवारी पर।
~यशवन्त यश©
बहुत ही साधारण लिखने वाला एक बहुत ही साधारण इंसान जिसने 7 वर्ष की उम्र से ही लिखना शुरू कर दिया था। वाणिज्य में स्नातक। अच्छा संगीत सुनने का शौकीन। ब्लॉगिंग में वर्ष 2010 से सक्रिय। एक अग्रणी शैक्षिक प्रकाशन में बतौर हिन्दी प्रूफ रीडर 3 वर्ष का कार्य अनुभव।
19 November 2015
वो आज खुश हैं .....
आज नहीं तो कल
उन्हें पता तो चलेगा ही
कि क्या होता है मतलब
बिना सच जाने
सिर्फ झूठ की बुनियाद पर
सहानुभूति बटोरने का.......
वो आज खुश हैं
मस्त हैं
अपने अच्छे दिनों में
लेकिन धोखे में हैं .....
वो जान कर भी
सिर्फ अनजान हैं
इस बात से
कि दिन बदलते
देर नहीं लगती
सुनहरे आज के पृष्ठ में
पुती हुई कालिख
दर्द देने में
देर नहीं लगाती।
~यशवन्त यश©
उन्हें पता तो चलेगा ही
कि क्या होता है मतलब
बिना सच जाने
सिर्फ झूठ की बुनियाद पर
सहानुभूति बटोरने का.......
वो आज खुश हैं
मस्त हैं
अपने अच्छे दिनों में
लेकिन धोखे में हैं .....
वो जान कर भी
सिर्फ अनजान हैं
इस बात से
कि दिन बदलते
देर नहीं लगती
सुनहरे आज के पृष्ठ में
पुती हुई कालिख
दर्द देने में
देर नहीं लगाती।
~यशवन्त यश©
बहुत ही साधारण लिखने वाला एक बहुत ही साधारण इंसान जिसने 7 वर्ष की उम्र से ही लिखना शुरू कर दिया था। वाणिज्य में स्नातक। अच्छा संगीत सुनने का शौकीन। ब्लॉगिंग में वर्ष 2010 से सक्रिय। एक अग्रणी शैक्षिक प्रकाशन में बतौर हिन्दी प्रूफ रीडर 3 वर्ष का कार्य अनुभव।
18 November 2015
नकल और अकल ......
नकल और अकल
आज के जमाने में
दुश्मन नहीं
दोस्त हैं ....
इनके बीच
हो चुका है
कोई गुप्त समझौता
तभी तो
इधर देखने वाले
झाँकते तो उधर भी हैं
फिर भी
बैठे हैं चुप .....
क्योंकि उन्हें पता है
मुँह खोलते ही
गिर सकता है वज्र
उनके घर की छत पर।
~यशवन्त यश ©
आज के जमाने में
दुश्मन नहीं
दोस्त हैं ....
इनके बीच
हो चुका है
कोई गुप्त समझौता
तभी तो
इधर देखने वाले
झाँकते तो उधर भी हैं
फिर भी
बैठे हैं चुप .....
क्योंकि उन्हें पता है
मुँह खोलते ही
गिर सकता है वज्र
उनके घर की छत पर।
~यशवन्त यश ©
बहुत ही साधारण लिखने वाला एक बहुत ही साधारण इंसान जिसने 7 वर्ष की उम्र से ही लिखना शुरू कर दिया था। वाणिज्य में स्नातक। अच्छा संगीत सुनने का शौकीन। ब्लॉगिंग में वर्ष 2010 से सक्रिय। एक अग्रणी शैक्षिक प्रकाशन में बतौर हिन्दी प्रूफ रीडर 3 वर्ष का कार्य अनुभव।
17 November 2015
समय समय पर ............
समय समय पर
बदलती रहती हैं
समय की परिभाषाएँ .....
समय समय पर
हम गढ़ते रहते हैं
समय के कई रूप.......
समय फिर भी
वैसे ही निराकार रहते हुए
साकार करता रहता है
समय समय पर
हमारे अधूरे सपने।
~यशवन्त यश©
बदलती रहती हैं
समय की परिभाषाएँ .....
समय समय पर
हम गढ़ते रहते हैं
समय के कई रूप.......
समय फिर भी
वैसे ही निराकार रहते हुए
साकार करता रहता है
समय समय पर
हमारे अधूरे सपने।
~यशवन्त यश©
बहुत ही साधारण लिखने वाला एक बहुत ही साधारण इंसान जिसने 7 वर्ष की उम्र से ही लिखना शुरू कर दिया था। वाणिज्य में स्नातक। अच्छा संगीत सुनने का शौकीन। ब्लॉगिंग में वर्ष 2010 से सक्रिय। एक अग्रणी शैक्षिक प्रकाशन में बतौर हिन्दी प्रूफ रीडर 3 वर्ष का कार्य अनुभव।
16 November 2015
मुनाफाखोर रिश्ते........
अंतर्जाल के
इस स्वार्थी
मतलबी युग में
बदल रहे हैं अब
रिश्तों के मायने।
रिश्ते-
जो कभी हुआ करते थे
समर्पित
सगे या मुंह बोले
रिश्ते-
जो कभी सीमित थे
रिश्तों के भीतर
अब लांघ रहे हैं
अपनी सीमा।
चौहद्दी के भीतर
और बाहर
रिश्ते
आँका करते हैं
अब अपना स्तर
आर्थिक स्थिति
और आडंबर।
रिश्ते -
अब सिर्फ रिश्ते नहीं रहे
रिश्ते -
अब हो चुके हैं व्यापार
और हम सब
बन गए हैं
दुकानदार
जिसके भंडार में
न भाव है, न भावना।
आज के दौर में
रिश्ते -
करने लगे हैं
सिर्फ मुनाफे की कामना।
~यशवन्त यश©
इस स्वार्थी
मतलबी युग में
बदल रहे हैं अब
रिश्तों के मायने।
रिश्ते-
जो कभी हुआ करते थे
समर्पित
सगे या मुंह बोले
रिश्ते-
जो कभी सीमित थे
रिश्तों के भीतर
अब लांघ रहे हैं
अपनी सीमा।
चौहद्दी के भीतर
और बाहर
रिश्ते
आँका करते हैं
अब अपना स्तर
आर्थिक स्थिति
और आडंबर।
रिश्ते -
अब सिर्फ रिश्ते नहीं रहे
रिश्ते -
अब हो चुके हैं व्यापार
और हम सब
बन गए हैं
दुकानदार
जिसके भंडार में
न भाव है, न भावना।
आज के दौर में
रिश्ते -
करने लगे हैं
सिर्फ मुनाफे की कामना।
~यशवन्त यश©
बहुत ही साधारण लिखने वाला एक बहुत ही साधारण इंसान जिसने 7 वर्ष की उम्र से ही लिखना शुरू कर दिया था। वाणिज्य में स्नातक। अच्छा संगीत सुनने का शौकीन। ब्लॉगिंग में वर्ष 2010 से सक्रिय। एक अग्रणी शैक्षिक प्रकाशन में बतौर हिन्दी प्रूफ रीडर 3 वर्ष का कार्य अनुभव।
15 November 2015
आतंक बस आतंक होता है
आतंक
बस आतंक होता है
जो शर्मिंदा कर देता है
नर्क की आग को भी
अपने क्रूर
वीभत्स रूप से।
आतंक
बस आतंक होता है
जो किसी किताब में
पढ़ाया नहीं जाता
बताया नहीं जाता
सिर्फ महसूस किया जाता है
मासूम और
अनाथ आँखों से बहते
दर्द के झरने में ।
~यशवन्त यश ©
बहुत ही साधारण लिखने वाला एक बहुत ही साधारण इंसान जिसने 7 वर्ष की उम्र से ही लिखना शुरू कर दिया था। वाणिज्य में स्नातक। अच्छा संगीत सुनने का शौकीन। ब्लॉगिंग में वर्ष 2010 से सक्रिय। एक अग्रणी शैक्षिक प्रकाशन में बतौर हिन्दी प्रूफ रीडर 3 वर्ष का कार्य अनुभव।
14 November 2015
बच्चे सभ्यता के शिक्षक होते हैं
बच्चे
सिर्फ देखने में ही
छोटे होते हैं
लेकिन
उनका मन
उनकी सोच
बड़ों के
संकुचित
कुंठित
दायरे से
कहीं बड़ी होती है.....
बच्चे
खेलते कूदते
कोई भेद भाव नहीं करते
अपनी जाति
नस्ल, धर्म
रंग और रूप का .....
बच्चे
अपने बचपन में
सभ्यता के
शिक्षक होते हैं
जो बड़े हो कर
बन जाते हैं छात्र
इस तिलिस्मी
रंगमंच के।
~यशवन्त यश©
सिर्फ देखने में ही
छोटे होते हैं
लेकिन
उनका मन
उनकी सोच
बड़ों के
संकुचित
कुंठित
दायरे से
कहीं बड़ी होती है.....
बच्चे
खेलते कूदते
कोई भेद भाव नहीं करते
अपनी जाति
नस्ल, धर्म
रंग और रूप का .....
बच्चे
अपने बचपन में
सभ्यता के
शिक्षक होते हैं
जो बड़े हो कर
बन जाते हैं छात्र
इस तिलिस्मी
रंगमंच के।
~यशवन्त यश©
बहुत ही साधारण लिखने वाला एक बहुत ही साधारण इंसान जिसने 7 वर्ष की उम्र से ही लिखना शुरू कर दिया था। वाणिज्य में स्नातक। अच्छा संगीत सुनने का शौकीन। ब्लॉगिंग में वर्ष 2010 से सक्रिय। एक अग्रणी शैक्षिक प्रकाशन में बतौर हिन्दी प्रूफ रीडर 3 वर्ष का कार्य अनुभव।
13 November 2015
कुछ लोग-31
अपने कुतर्कों को
तर्क कहने वाले
कुछ लोग
चाहते नहीं
निकलना
अपने आस-पास की
अंधेरी गलियों से
क्योंकि उन्हें भाता नहीं
कोई सच बताने वाला
रोशनी दिखाने वाला .....
और क्योंकि
वह संतुष्ट हैं
अपनी सीमित दुनिया में
असीमित
मुखौटों के भीतर।
~यशवन्त यश©
तर्क कहने वाले
कुछ लोग
चाहते नहीं
निकलना
अपने आस-पास की
अंधेरी गलियों से
क्योंकि उन्हें भाता नहीं
कोई सच बताने वाला
रोशनी दिखाने वाला .....
और क्योंकि
वह संतुष्ट हैं
अपनी सीमित दुनिया में
असीमित
मुखौटों के भीतर।
~यशवन्त यश©
बहुत ही साधारण लिखने वाला एक बहुत ही साधारण इंसान जिसने 7 वर्ष की उम्र से ही लिखना शुरू कर दिया था। वाणिज्य में स्नातक। अच्छा संगीत सुनने का शौकीन। ब्लॉगिंग में वर्ष 2010 से सक्रिय। एक अग्रणी शैक्षिक प्रकाशन में बतौर हिन्दी प्रूफ रीडर 3 वर्ष का कार्य अनुभव।
12 November 2015
जले बारूद की गंध ........
हर तरफ फैली
पटाखों के
जले बारूद की गंध
ऐसी लग रही है
जैसे
साफ हवा की लाश
सड़ रही हो
यहीं
कहीं आस पास।
~यशवन्त यश©
पटाखों के
जले बारूद की गंध
ऐसी लग रही है
जैसे
साफ हवा की लाश
सड़ रही हो
यहीं
कहीं आस पास।
~यशवन्त यश©
प्रकाशन समय
11:44:00 am
प्रस्तुतकर्ता
Yashwant R. B. Mathur
श्रेणी
दीपावली विशेष,
पंक्तियाँ,
बस यूँ ही
बहुत ही साधारण लिखने वाला एक बहुत ही साधारण इंसान जिसने 7 वर्ष की उम्र से ही लिखना शुरू कर दिया था। वाणिज्य में स्नातक। अच्छा संगीत सुनने का शौकीन। ब्लॉगिंग में वर्ष 2010 से सक्रिय। एक अग्रणी शैक्षिक प्रकाशन में बतौर हिन्दी प्रूफ रीडर 3 वर्ष का कार्य अनुभव।
11 November 2015
खुशियाँ देते रहें सबको
दीयों की तरह
होते रहें रोशन
मन के जज़्बात
लौ की स्याही से
अंधेरे पन्नों पर
छोड़ते रहें
अपने निशान
कल, आज और कल
औरों से बेखबर
रह रह कर
बस अपनी दुनिया में
डूब कर उतर कर
नये आगाज के
इंतज़ार में
बाती की तरह
भूलते रहें,खुद को
खुशियाँ देते रहें,
सबको।
~यशवन्त यश©
होते रहें रोशन
मन के जज़्बात
अंधेरे पन्नों पर
छोड़ते रहें
अपने निशान
कल, आज और कल
औरों से बेखबर
रह रह कर
बस अपनी दुनिया में
डूब कर उतर कर
नये आगाज के
इंतज़ार में
बाती की तरह
भूलते रहें,खुद को
खुशियाँ देते रहें,
सबको।
~यशवन्त यश©
बहुत ही साधारण लिखने वाला एक बहुत ही साधारण इंसान जिसने 7 वर्ष की उम्र से ही लिखना शुरू कर दिया था। वाणिज्य में स्नातक। अच्छा संगीत सुनने का शौकीन। ब्लॉगिंग में वर्ष 2010 से सक्रिय। एक अग्रणी शैक्षिक प्रकाशन में बतौर हिन्दी प्रूफ रीडर 3 वर्ष का कार्य अनुभव।
10 November 2015
उम्मीदें....
न जाने किस नशे में
कभी कभी
लड़खड़ा जाते हैं कदम
न जाने किन उम्मीदों में
कभी कभी
बढ़ते जाते हैं कदम
जो भी हो
ये उम्मीदें
कभी उत्साह देती हैं
कभी तनाव देती हैं
फिर भी
नहीं छोड़ती हैं साथ
हर पल कर कहीं।
~यशवन्त यश©
कभी कभी
लड़खड़ा जाते हैं कदम
न जाने किन उम्मीदों में
कभी कभी
बढ़ते जाते हैं कदम
जो भी हो
ये उम्मीदें
कभी उत्साह देती हैं
कभी तनाव देती हैं
फिर भी
नहीं छोड़ती हैं साथ
हर पल कर कहीं।
~यशवन्त यश©
बहुत ही साधारण लिखने वाला एक बहुत ही साधारण इंसान जिसने 7 वर्ष की उम्र से ही लिखना शुरू कर दिया था। वाणिज्य में स्नातक। अच्छा संगीत सुनने का शौकीन। ब्लॉगिंग में वर्ष 2010 से सक्रिय। एक अग्रणी शैक्षिक प्रकाशन में बतौर हिन्दी प्रूफ रीडर 3 वर्ष का कार्य अनुभव।
09 November 2015
कुछ लोग -30
घमंड में चूर
कुछ लोग
जब निकलता देखते हैं
जनाजा
अपनी हसरतों
और दिल में
दबे अरमानों का.....
एहसास
तब भी नहीं कर पाते
कि यह क्या हुआ
और क्यों हुआ
खुली और बंद आँखों से
बस देखते रह जाते हैं
टूटना
अपने तिलिस्मों का......
उधार का जादू लिए
हाथों में उपहार लिए
ऊँघते-अलसाए हुए से
अपनों से बे कदर-
बे सबर
कुछ लोग
यूं ही देखते हैं
दम तोड़ना लौओं का
और बुझना दीयों का।
~यशवन्त यश©
कुछ लोग
जब निकलता देखते हैं
जनाजा
अपनी हसरतों
और दिल में
दबे अरमानों का.....
एहसास
तब भी नहीं कर पाते
कि यह क्या हुआ
और क्यों हुआ
खुली और बंद आँखों से
बस देखते रह जाते हैं
टूटना
अपने तिलिस्मों का......
उधार का जादू लिए
हाथों में उपहार लिए
ऊँघते-अलसाए हुए से
अपनों से बे कदर-
बे सबर
कुछ लोग
यूं ही देखते हैं
दम तोड़ना लौओं का
और बुझना दीयों का।
~यशवन्त यश©
बहुत ही साधारण लिखने वाला एक बहुत ही साधारण इंसान जिसने 7 वर्ष की उम्र से ही लिखना शुरू कर दिया था। वाणिज्य में स्नातक। अच्छा संगीत सुनने का शौकीन। ब्लॉगिंग में वर्ष 2010 से सक्रिय। एक अग्रणी शैक्षिक प्रकाशन में बतौर हिन्दी प्रूफ रीडर 3 वर्ष का कार्य अनुभव।
08 November 2015
बस यूं ही .....
बस यूं ही
देखता हूँ
सड़कों पर
आते जाते
चलते फिरते
दौड़ते लोगों को
जिनमें
कोई फुर्ती से
कोई सुस्ती से
बढ़ रहा होता है
अपनी मंज़िल की ओर
कोई मुस्कुराता हुआ
कोई उदास सा
ज़िंदगी के सबक
सीखता हुआ
अपनी अपनी तरह से
कुछ समझता हुआ
आसमान को
छूने की चाहत में
हर कोई
उठना चाहता है
बहुत ऊपर
लेकिन बस यूं ही
बंद आँखों के भीतर
महसूस करता है
खुद को बहुत नीचा
और
सच के करीब।
~यशवन्त यश©
देखता हूँ
सड़कों पर
आते जाते
चलते फिरते
दौड़ते लोगों को
जिनमें
कोई फुर्ती से
कोई सुस्ती से
बढ़ रहा होता है
अपनी मंज़िल की ओर
कोई मुस्कुराता हुआ
कोई उदास सा
ज़िंदगी के सबक
सीखता हुआ
अपनी अपनी तरह से
कुछ समझता हुआ
आसमान को
छूने की चाहत में
हर कोई
उठना चाहता है
बहुत ऊपर
लेकिन बस यूं ही
बंद आँखों के भीतर
महसूस करता है
खुद को बहुत नीचा
और
सच के करीब।
~यशवन्त यश©
बहुत ही साधारण लिखने वाला एक बहुत ही साधारण इंसान जिसने 7 वर्ष की उम्र से ही लिखना शुरू कर दिया था। वाणिज्य में स्नातक। अच्छा संगीत सुनने का शौकीन। ब्लॉगिंग में वर्ष 2010 से सक्रिय। एक अग्रणी शैक्षिक प्रकाशन में बतौर हिन्दी प्रूफ रीडर 3 वर्ष का कार्य अनुभव।
07 November 2015
मन जब खो जाता है ......
मन
जब खो जाता है
कहीं
किसी अनजान दुनिया में
बहुत मुश्किल होता है
तब उसे जगाना
और उबारना
दिन के सपनों की
कृत्रिम रंगिनियों से
और उस चकाचौंध से
जो तेज़ खिली धूप के सामने
बेबस हो कर
छटपटाती रहती है
गहरी रात, और
अंधेरे के इंतज़ार में।
~यशवन्त यश©
जब खो जाता है
कहीं
किसी अनजान दुनिया में
बहुत मुश्किल होता है
तब उसे जगाना
और उबारना
दिन के सपनों की
कृत्रिम रंगिनियों से
और उस चकाचौंध से
जो तेज़ खिली धूप के सामने
बेबस हो कर
छटपटाती रहती है
गहरी रात, और
अंधेरे के इंतज़ार में।
~यशवन्त यश©
बहुत ही साधारण लिखने वाला एक बहुत ही साधारण इंसान जिसने 7 वर्ष की उम्र से ही लिखना शुरू कर दिया था। वाणिज्य में स्नातक। अच्छा संगीत सुनने का शौकीन। ब्लॉगिंग में वर्ष 2010 से सक्रिय। एक अग्रणी शैक्षिक प्रकाशन में बतौर हिन्दी प्रूफ रीडर 3 वर्ष का कार्य अनुभव।
06 November 2015
तमाशा
हर जगह
हर कहीं
हर कोई
दिखा रहा है
अपना तमाशा
कुछ उम्मीद लिए
या
नाउम्मीदी के शीशे में
बुझते दीयों का
अक्स देखते हुए
हर जगह
हर कहीं
हर कोई
बन रहा है
खुद ही
एक तमाशा।
~यशवन्त यश©
हर कहीं
हर कोई
दिखा रहा है
अपना तमाशा
कुछ उम्मीद लिए
या
नाउम्मीदी के शीशे में
बुझते दीयों का
अक्स देखते हुए
हर जगह
हर कहीं
हर कोई
बन रहा है
खुद ही
एक तमाशा।
~यशवन्त यश©
बहुत ही साधारण लिखने वाला एक बहुत ही साधारण इंसान जिसने 7 वर्ष की उम्र से ही लिखना शुरू कर दिया था। वाणिज्य में स्नातक। अच्छा संगीत सुनने का शौकीन। ब्लॉगिंग में वर्ष 2010 से सक्रिय। एक अग्रणी शैक्षिक प्रकाशन में बतौर हिन्दी प्रूफ रीडर 3 वर्ष का कार्य अनुभव।
05 November 2015
अच्छे दिनों के रंग........
मंडी में बिकते,महंगे आलुओं के संग,
अमीरों के थाल में सजतीं ,महंगी दालों के संग,
इरोम शर्मीला के अनशन के, पंद्रह सालों के संग,
दिखा रहे हैं अच्छे दिन, अब अपने कई रंग।
~यशवन्त यश©
अमीरों के थाल में सजतीं ,महंगी दालों के संग,
इरोम शर्मीला के अनशन के, पंद्रह सालों के संग,
दिखा रहे हैं अच्छे दिन, अब अपने कई रंग।
~यशवन्त यश©
बहुत ही साधारण लिखने वाला एक बहुत ही साधारण इंसान जिसने 7 वर्ष की उम्र से ही लिखना शुरू कर दिया था। वाणिज्य में स्नातक। अच्छा संगीत सुनने का शौकीन। ब्लॉगिंग में वर्ष 2010 से सक्रिय। एक अग्रणी शैक्षिक प्रकाशन में बतौर हिन्दी प्रूफ रीडर 3 वर्ष का कार्य अनुभव।
04 November 2015
चलताऊ शब्द .....
इन चलताऊ
शब्दों को
कोई कविता समझता है
कोई कहानी
कोई बस यूं ही
एक नज़र डालता है
और चल देता है
अपनी राह
लेकिन मैं
इन बेकार से
बिना मतलब के
फटीचर से शब्दों से
संतुष्ट करता हूँ खुद को
हमेशा से।
~यशवन्त यश©
शब्दों को
कोई कविता समझता है
कोई कहानी
कोई बस यूं ही
एक नज़र डालता है
और चल देता है
अपनी राह
लेकिन मैं
इन बेकार से
बिना मतलब के
फटीचर से शब्दों से
संतुष्ट करता हूँ खुद को
हमेशा से।
~यशवन्त यश©
बहुत ही साधारण लिखने वाला एक बहुत ही साधारण इंसान जिसने 7 वर्ष की उम्र से ही लिखना शुरू कर दिया था। वाणिज्य में स्नातक। अच्छा संगीत सुनने का शौकीन। ब्लॉगिंग में वर्ष 2010 से सक्रिय। एक अग्रणी शैक्षिक प्रकाशन में बतौर हिन्दी प्रूफ रीडर 3 वर्ष का कार्य अनुभव।
03 November 2015
समझ नहीं आता है
कभी कभी
मन कहता कुछ
करता कुछ है
सोचता कुछ
लिखता कुछ है
कुछ कुछ करता हुआ
मन के साथ
समय बीत जाता है
और इस बीच क्या होता है
समझ नहीं आता है।
~यशवन्त यश©
मन कहता कुछ
करता कुछ है
सोचता कुछ
लिखता कुछ है
कुछ कुछ करता हुआ
मन के साथ
समय बीत जाता है
और इस बीच क्या होता है
समझ नहीं आता है।
~यशवन्त यश©
बहुत ही साधारण लिखने वाला एक बहुत ही साधारण इंसान जिसने 7 वर्ष की उम्र से ही लिखना शुरू कर दिया था। वाणिज्य में स्नातक। अच्छा संगीत सुनने का शौकीन। ब्लॉगिंग में वर्ष 2010 से सक्रिय। एक अग्रणी शैक्षिक प्रकाशन में बतौर हिन्दी प्रूफ रीडर 3 वर्ष का कार्य अनुभव।
02 November 2015
कुछ लोग-29
कुछ लोग
धन दौलत से
अमीर लोग
सिर्फ देखते हैं
अपना 'स्टेटस'
हर जगह
हर कहीं
सिर्फ वहीं
घुलते-मिलते
आते हैं नज़र
जहां वह
और उनके अपने
चमकीले पर्दों के भीतर
उड़ाते हैं
कागज की चिन्दियाँ।
~यशवन्त यश©
धन दौलत से
अमीर लोग
सिर्फ देखते हैं
अपना 'स्टेटस'
हर जगह
हर कहीं
सिर्फ वहीं
घुलते-मिलते
आते हैं नज़र
जहां वह
और उनके अपने
चमकीले पर्दों के भीतर
उड़ाते हैं
कागज की चिन्दियाँ।
~यशवन्त यश©
बहुत ही साधारण लिखने वाला एक बहुत ही साधारण इंसान जिसने 7 वर्ष की उम्र से ही लिखना शुरू कर दिया था। वाणिज्य में स्नातक। अच्छा संगीत सुनने का शौकीन। ब्लॉगिंग में वर्ष 2010 से सक्रिय। एक अग्रणी शैक्षिक प्रकाशन में बतौर हिन्दी प्रूफ रीडर 3 वर्ष का कार्य अनुभव।
01 November 2015
बदलती तारीखें.......
बदलती तारीखें
पल पल नये रंगों में
रंगती तारीखें
अपने भीतर
कुछ समेट लेती हैं
कुछ निकाल देती हैं
मन से
कभी बेमन से
थक कर कहीं
रुकती नहीं
बरस दर बरस
कहीं दबती, छुपतीं
आगे बढ़ती तारीखें
इंसानी मन की तरह
रंग बदलती तारीखें।
~यशवन्त यश©
पल पल नये रंगों में
रंगती तारीखें
अपने भीतर
कुछ समेट लेती हैं
कुछ निकाल देती हैं
मन से
कभी बेमन से
थक कर कहीं
रुकती नहीं
बरस दर बरस
कहीं दबती, छुपतीं
आगे बढ़ती तारीखें
इंसानी मन की तरह
रंग बदलती तारीखें।
~यशवन्त यश©
बहुत ही साधारण लिखने वाला एक बहुत ही साधारण इंसान जिसने 7 वर्ष की उम्र से ही लिखना शुरू कर दिया था। वाणिज्य में स्नातक। अच्छा संगीत सुनने का शौकीन। ब्लॉगिंग में वर्ष 2010 से सक्रिय। एक अग्रणी शैक्षिक प्रकाशन में बतौर हिन्दी प्रूफ रीडर 3 वर्ष का कार्य अनुभव।
15 October 2015
ये तर्क नेताजी का अपमान करते हैं--राजीव शुक्ल ( पूर्व केंद्रीय मंत्री व सांसद)
मैं यह बात कतई मानने को तैयार नहीं हूं कि नेताजी सुभाष चंद्र बोस बीसों
साल भारत में या दुनिया में कहीं भी रूप बदलकर, छिपकर जीवन गुजारते रहे। यह
बात और यह सोच अपने आप में नेताजी जैसे महान क्रांतिकारी का बहुत बड़ा
अपमान है। एक बेखौफ, जुझारू और वीर पुरुष भला इस तरह छिपकर अपनी जिंदगी
क्यों गुजारना चाहेगा? जो लोग इस तरह की दलील देते हैं, लगता है कि उन्हें न
तो सुभाष चंद्र बोस के स्वभाव के बारे में ठीक से पता है और न ही वे उनके
अदम्य साहस को ही अच्छी तरह से पहचानते हैं।
मेरे लिहाज से नेताजी सुभाष चंद्र बोस का परिवार प्रधानमंत्री से मिलकर सिर्फ यह जानना चाहता है कि विमान हादसे में उनकी मृत्यु हुई थी या नहीं? यदि नहीं, तो फिर उसके बाद वह कहां थे? यह किसी भी परिवार के लिए लाजमी है कि वह अपने किसी पूर्वज के बारे में जानकारी मांगे।
मुझे शिकायत सिर्फ उन लोगों से है, जो तरह-तरह के इंटरव्यू और बयान देकर यह बताने की कोशिश कर रहे हैं कि अमुक व्यक्ति दरअसल नेताजी थे, जो साधु बनकर रहे, फलां व्यक्ति नेताजी थे, जो ताशकंद मैन बनकर रूस में रहे। कोई कहता है कि सुभाष बाबू करीब 30 साल तक गुमनाम बनकर अयोध्या में रहे, तो कोई यह कहता है कि वह पंजाब में रहे; कोई कहता है कि वह कई बरस तक बिहार में थे, तो कोई कहता है कि वह जर्मनी में रहे। दावे तो ऐसे भी किए गए कि एक बार बाबा जयगुरुदेव के समर्थकों ने उन्हें कानपुर के फूलबाग मैदान में सुभाष चंद्र बोस घोषित कर उनके प्रकट होने का नाटक कराया और उसके बाद वहां मौजूद लाखों लोगों ने बाबा के उन समर्थकों से जमकर मारपीट की।
आरएसएस के पूर्व सरसंघचालक के सी सुदर्शन स्वयं इस बात पर हमेशा विश्वास करते रहे कि नेताजी नोएडा में रहते थे। और तो और, नेताजी के गृह प्रदेश की राजधानी कोलकाता में तो आज भी ऐसे तमाम बंगाली परिवार आपको मिल जाएंगे, जो यह मानते हैं कि 118 साल की उम्र में भी नेताजी जिंदा हैं, और कहीं पर छिपे हुए हैं, जिनको भारत सरकार जान-बूझकर नहीं खोज रही है।
सबसे महत्वपूर्ण प्रश्न यह है कि आखिर नेताजी देश की आजादी के बाद भी वेश बदलकर छिपकर क्यों रहेंगे? ऐसा मानने वालों में कुछ लोगों का तर्क यह है कि क्योंकि दूसरे विश्व युद्ध में उन्होंने ब्रिटेन के नेतृत्व वाले एलाइड देशों का विरोध किया था, इसलिए वह ब्रिटिश सरकार के कानून के अधीन युद्ध अपराधी घोषित थे और अगर वह सामने आ जाते, तो उन्हें ब्रिटिश सरकार गिरफ्तार कर सकती थी। इसी डर से वह वेश बदलकर, और छिपकर रहे। मगर यह तर्क अपने आप में बेहद हल्का और अपमानजनक है। गुलाम भारत में आजादी की लड़ाई लड़ते हुए जो व्यक्ति ब्रिटिश सरकार की जेल से नहीं डरा और गांधी के सिद्धांतों से असहमत होते हुए अपना सैनिक संगठन बनाकर लड़ाई के लिए तैयार था, वह आजाद भारत में, जहां अंग्रेजों का कुछ भी नहीं रह गया था, भला उनकी जेल से क्यों डरेगा? ऐसे लोगों का एक और तर्क हो सकता है कि आजादी के बाद भी ब्रिटिश सरकार भारत सरकार पर दबाव डालकर उन्हें इंग्लैंड ले जाती और उन्हें जेल में डाल देती।
ऐसे लोगों से पूछने लायक एक ही सवाल है कि आजाद भारत में किस सरकार की इतनी हिम्मत हो सकती थी कि वह नेताजी को ब्रिटिश सरकार को सौंप देती? फिर अगर कोई हिमाकत करने की कोशिश भी करता, तो करोड़ों भारतीय उसके विरोध में खड़े हो जाते और जन भावनाएं अगर इतने बड़े पैमाने पर हों, तो भला किसकी ऐसी हिम्मत पड़ सकती है? और तो और, इन भावनाओं को देखते हुए भारत का सर्वोच्च न्यायालय भी उनको देश के बाहर ले जाने पर रोक लगा देता और फिर ब्रिटिश सरकार सालोंसाल अंतरराष्ट्रीय अदालत में लड़ती रहती। वैसे भी, ब्रिटेन की कोई सरकार सुभाष चंद्र्र बोस को सौंपने की मांग करती ही नहीं। इतना तो शायद
अंग्रेज भी जानते थे कि यह काम कतई संभव नहीं है। कई बार ब्रिटेन ने खुद ही दुनिया के ऐसे बड़े लोगों के खिलाफ केस वापस ले लिए थे। वैसे आज भी न जाने कितने भारतीय अपराधी मजे से इंग्लैंड में रह रहे हैं और भारत सरकार की तमाम कोशिशों के बावजूद वहां की छोटी-छोटी अदालतें उन्हें भारत सरकार को नहीं सौंप रही हैं। फिर भला भारत सरकार नेताजी सुभाष चंद्र्र बोस को अंग्रेजों के हवाले क्यों कर देती?
हाल ही में एक अभियान यह चला कि फैजाबाद के गुमनामी बाबा ही नेताजी थे। तमाम पत्रों का हवाला दिया गया, लेकिन कुछ साबित नहीं हो पाया। गुमनामी बाबा एक ऐसे साधु थे, जो परदे के पीछे छिपकर रहते थे और किसी को अपना चेहरा नहीं दिखाते थे, इसलिए उन्हें नेताजी बताना लोगों को आसान लग रहा है। सवाल यह उठता है कि नेताजी भला फैजाबाद में क्यों रहेंगे? और फिर वह परदे के पीछे क्यों छिपेंगे? क्यों नहीं, उन्होंने कभी अपने भाई-भतीजे के परिवार से कोलकाता में मिलने की कोशिश की, उन्हें फोन क्यों नहीं किया, उन्हें पत्र क्यों नहीं लिखा? जर्मनी में अपनी पत्नी और बेटी से कभी संपर्क क्यों नहीं किया? यह सब एक इंसान के लिए कैसे संभव है? चलिए, हम यह मान भी लें, तो आजाद हिंद फौज में जो लोग उनसे सबसे करीबी थे, उन तक उन्होंने कोई सूचना नहीं दी।
सबसे बाद तक तो उनकी घनिष्ठ सहयोगी डॉक्टर लक्ष्मी सहगल जीवित रहीं और 98 वर्ष की उम्र में पिछले साल कानपुर में उनका निधन हुआ। उन्होंने भी कभी यह नहीं बताया कि नेताजी का कभी कोई संदेश उन्हें मिला।
मेरा मानना है कि देश को इस तरह के विवाद से ऊपर उठकर नेताजी की स्मृति को संजोए रखना चाहिए और उससे प्रेरणा लेकर कई और नेताजी पैदा करने चाहिए, जो देश के लिए उतने ही समर्पित बन सकें।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)
साभार-'हिंदुस्तान'-15/10/2015
मेरे लिहाज से नेताजी सुभाष चंद्र बोस का परिवार प्रधानमंत्री से मिलकर सिर्फ यह जानना चाहता है कि विमान हादसे में उनकी मृत्यु हुई थी या नहीं? यदि नहीं, तो फिर उसके बाद वह कहां थे? यह किसी भी परिवार के लिए लाजमी है कि वह अपने किसी पूर्वज के बारे में जानकारी मांगे।
मुझे शिकायत सिर्फ उन लोगों से है, जो तरह-तरह के इंटरव्यू और बयान देकर यह बताने की कोशिश कर रहे हैं कि अमुक व्यक्ति दरअसल नेताजी थे, जो साधु बनकर रहे, फलां व्यक्ति नेताजी थे, जो ताशकंद मैन बनकर रूस में रहे। कोई कहता है कि सुभाष बाबू करीब 30 साल तक गुमनाम बनकर अयोध्या में रहे, तो कोई यह कहता है कि वह पंजाब में रहे; कोई कहता है कि वह कई बरस तक बिहार में थे, तो कोई कहता है कि वह जर्मनी में रहे। दावे तो ऐसे भी किए गए कि एक बार बाबा जयगुरुदेव के समर्थकों ने उन्हें कानपुर के फूलबाग मैदान में सुभाष चंद्र बोस घोषित कर उनके प्रकट होने का नाटक कराया और उसके बाद वहां मौजूद लाखों लोगों ने बाबा के उन समर्थकों से जमकर मारपीट की।
आरएसएस के पूर्व सरसंघचालक के सी सुदर्शन स्वयं इस बात पर हमेशा विश्वास करते रहे कि नेताजी नोएडा में रहते थे। और तो और, नेताजी के गृह प्रदेश की राजधानी कोलकाता में तो आज भी ऐसे तमाम बंगाली परिवार आपको मिल जाएंगे, जो यह मानते हैं कि 118 साल की उम्र में भी नेताजी जिंदा हैं, और कहीं पर छिपे हुए हैं, जिनको भारत सरकार जान-बूझकर नहीं खोज रही है।
सबसे महत्वपूर्ण प्रश्न यह है कि आखिर नेताजी देश की आजादी के बाद भी वेश बदलकर छिपकर क्यों रहेंगे? ऐसा मानने वालों में कुछ लोगों का तर्क यह है कि क्योंकि दूसरे विश्व युद्ध में उन्होंने ब्रिटेन के नेतृत्व वाले एलाइड देशों का विरोध किया था, इसलिए वह ब्रिटिश सरकार के कानून के अधीन युद्ध अपराधी घोषित थे और अगर वह सामने आ जाते, तो उन्हें ब्रिटिश सरकार गिरफ्तार कर सकती थी। इसी डर से वह वेश बदलकर, और छिपकर रहे। मगर यह तर्क अपने आप में बेहद हल्का और अपमानजनक है। गुलाम भारत में आजादी की लड़ाई लड़ते हुए जो व्यक्ति ब्रिटिश सरकार की जेल से नहीं डरा और गांधी के सिद्धांतों से असहमत होते हुए अपना सैनिक संगठन बनाकर लड़ाई के लिए तैयार था, वह आजाद भारत में, जहां अंग्रेजों का कुछ भी नहीं रह गया था, भला उनकी जेल से क्यों डरेगा? ऐसे लोगों का एक और तर्क हो सकता है कि आजादी के बाद भी ब्रिटिश सरकार भारत सरकार पर दबाव डालकर उन्हें इंग्लैंड ले जाती और उन्हें जेल में डाल देती।
ऐसे लोगों से पूछने लायक एक ही सवाल है कि आजाद भारत में किस सरकार की इतनी हिम्मत हो सकती थी कि वह नेताजी को ब्रिटिश सरकार को सौंप देती? फिर अगर कोई हिमाकत करने की कोशिश भी करता, तो करोड़ों भारतीय उसके विरोध में खड़े हो जाते और जन भावनाएं अगर इतने बड़े पैमाने पर हों, तो भला किसकी ऐसी हिम्मत पड़ सकती है? और तो और, इन भावनाओं को देखते हुए भारत का सर्वोच्च न्यायालय भी उनको देश के बाहर ले जाने पर रोक लगा देता और फिर ब्रिटिश सरकार सालोंसाल अंतरराष्ट्रीय अदालत में लड़ती रहती। वैसे भी, ब्रिटेन की कोई सरकार सुभाष चंद्र्र बोस को सौंपने की मांग करती ही नहीं। इतना तो शायद
अंग्रेज भी जानते थे कि यह काम कतई संभव नहीं है। कई बार ब्रिटेन ने खुद ही दुनिया के ऐसे बड़े लोगों के खिलाफ केस वापस ले लिए थे। वैसे आज भी न जाने कितने भारतीय अपराधी मजे से इंग्लैंड में रह रहे हैं और भारत सरकार की तमाम कोशिशों के बावजूद वहां की छोटी-छोटी अदालतें उन्हें भारत सरकार को नहीं सौंप रही हैं। फिर भला भारत सरकार नेताजी सुभाष चंद्र्र बोस को अंग्रेजों के हवाले क्यों कर देती?
हाल ही में एक अभियान यह चला कि फैजाबाद के गुमनामी बाबा ही नेताजी थे। तमाम पत्रों का हवाला दिया गया, लेकिन कुछ साबित नहीं हो पाया। गुमनामी बाबा एक ऐसे साधु थे, जो परदे के पीछे छिपकर रहते थे और किसी को अपना चेहरा नहीं दिखाते थे, इसलिए उन्हें नेताजी बताना लोगों को आसान लग रहा है। सवाल यह उठता है कि नेताजी भला फैजाबाद में क्यों रहेंगे? और फिर वह परदे के पीछे क्यों छिपेंगे? क्यों नहीं, उन्होंने कभी अपने भाई-भतीजे के परिवार से कोलकाता में मिलने की कोशिश की, उन्हें फोन क्यों नहीं किया, उन्हें पत्र क्यों नहीं लिखा? जर्मनी में अपनी पत्नी और बेटी से कभी संपर्क क्यों नहीं किया? यह सब एक इंसान के लिए कैसे संभव है? चलिए, हम यह मान भी लें, तो आजाद हिंद फौज में जो लोग उनसे सबसे करीबी थे, उन तक उन्होंने कोई सूचना नहीं दी।
सबसे बाद तक तो उनकी घनिष्ठ सहयोगी डॉक्टर लक्ष्मी सहगल जीवित रहीं और 98 वर्ष की उम्र में पिछले साल कानपुर में उनका निधन हुआ। उन्होंने भी कभी यह नहीं बताया कि नेताजी का कभी कोई संदेश उन्हें मिला।
मेरा मानना है कि देश को इस तरह के विवाद से ऊपर उठकर नेताजी की स्मृति को संजोए रखना चाहिए और उससे प्रेरणा लेकर कई और नेताजी पैदा करने चाहिए, जो देश के लिए उतने ही समर्पित बन सकें।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)
साभार-'हिंदुस्तान'-15/10/2015
बहुत ही साधारण लिखने वाला एक बहुत ही साधारण इंसान जिसने 7 वर्ष की उम्र से ही लिखना शुरू कर दिया था। वाणिज्य में स्नातक। अच्छा संगीत सुनने का शौकीन। ब्लॉगिंग में वर्ष 2010 से सक्रिय। एक अग्रणी शैक्षिक प्रकाशन में बतौर हिन्दी प्रूफ रीडर 3 वर्ष का कार्य अनुभव।
12 October 2015
ज़िंन्दगी क्या है किताबों को हटा कर देखो.............
बसता बिखरता हुआ सा कुछ
निदा फाजली लोकप्रिय हैं, लेकिन साहित्यिक गरिमा की कीमत पर नहीं। निदा का आत्मकथात्मक गद्य 'दीवारों के बीच' और 'दीवारों के बाहर' में संकलित है, जो अपनी निर्मम तटस्थता और संवेदनशीलता के लिए पठनीय है। 12 अक्तूबर को निदा फाजली के जन्मदिन पर 'दीवारों के बीच' से कुछ अंश और कुछ अशआर:
इन फिल्मों में निर्माता जेठवाणी और गीतकार निदा और विट्ठल भाई होते हैं। इन चारों फिल्मों का सेंटूर होटल में मुहूर्त होता है। बाहरी गेट पर दो हाथी आने वाले मेहमानों को सूंड़ उठा-उठा कर हार पहनाते हैं। इस समारोह में पूरा फिल्म उद्योग शामिल होता है और रात को देर तक शराब, संगीत और छोटे-मोटे नशीले झगड़े वक्त को रोके रखते हैं। इन चारों चित्रों में से तीन एक-साथ शुरू की जाती हैं। चौथी में निर्माता एक नई अभिनेत्री को पेश करना चाहते हैं। इसके लिए किसी अच्छे हीरो की तलाश है। यह नई हीरोइन स्थानीय कॉलेज में उर्दू के एक प्रोफेसर की एक छोटी लड़की है। बाप की मर्जी के खिलाफ उसकी मां उसे हीरोइन बनाना चाहती है! लड़की कम उमर और खूबसूरत है। बम्बई में पढ़ी-लिखी है। इसलिए बाजार में खूबसूरती के प्रचलित भाव से वाकिफ भी है। लेकिन इस नए मैदान में जेठवाणी की नातजुरबेकारी खुद उसकी पारिवारिक जिन्दगी का संतुलन बिगाड़ देती है। उसका भाई, जो उसका पार्टनर भी है, उससे अलग हो जाता है। लेकिन निर्माता अपनी तन्हाइयों में लड़की का रोशन भविष्य बनाने-संवारने में खोया रहता है।
तीन फिल्मों की तिजारती नाकामी जब उसकी चौथी फिल्म के लिए हीरो की तलाश करने में नाकाम हुई तो हीरोइन खुद अपने तौर पर किसी मुनासिब हीरो की खोज में इधर-उधर घूमने-फिरने लगी। जेठवाणी ने इस तलाश की रोकथाम के लिए अपनी बची-खुची पूंजी भी दांव पर लगा दी। इस बार बड़े बजट की हिन्दी फिल्म बनाने के बजाय भोजपुरी भाषा में एक छोटी फिल्म बनाता है। इस फिल्म में यही लड़की हीरोइन होती है। यह फिल्म भी दूसरी फिल्मों की तरह निर्माता के साथ कुछ अच्छा सुलूक नहीं करती। अपने फिल्मी करियर से मायूस होकर लड़की अपनी मां की मरजी से कहीं शादी करके वक्त से पहले अपने पति को बाप का दरजा अता करके, इज्जत की घरेलू जिन्दगी गुजारती है और जेठवाणी बम्बई के समुन्दर को आखिरी सलाम करके फिर से अपनी बीवी के पति और बच्चों के बाप बन कर अपने पुराने धन्धे के बहीखातों को देखने में लीन हो जाते हैं।
इन तीन फिल्मों के नाम 'हरजाई', 'कन्हैया' तथा 'शायद' हैं। इन फिल्मों में निदा के नाम से जो गीत हैं, उनमें—
खुशबू हूं मैं फूल नहीं हूं जो मुरझाऊंगा
जब जब मौसम लहराएगा
मैं आ जाऊंगा....... (शायद)
दिन भर धूप का पर्वत काटा शाम को पीने निकले हम
जिन गलियों में मौत छुपी थी उनमें जीने निकले हम (शायद)
तेरे लिए पलकों की झालर बनूं
कजरे सा आंखों में आंझे फिरूं
धूप लगे
जहां तुझे
छाया बनूं (हरजाई)
कभी आंखों में आंसू हैं कभी लब पे शिकायत है
मगर ऐ जिन्दगी फिर भी मुझे तुझ से शिकायत है
(हरजाई)
फिल्मी पत्रिकाओं में खासतौर से सराहे जाते हैं। इकबाल मसूद इनमें साहिर के बाद गीतों का नया ट्रेंड देखते हैं। लेकिन चित्रों की असफलता की वजह से बात ज्यादा आगे नहीं बढ़ती। वैसे छोटी-बड़ी फिल्मों में गीत मिलते रहते हैं।
राजकपूर की 'बीवी ओ बीवी', कमाल अमरोही की 'रजिया सुल्तान', इस्माइल शिरोफ की 'आहिस्ता आहिस्ता' कई फिल्मों में से कुछ नाम हैं। पैसे भी बैंक में जमा होने लगे हैं। फिल्म की तिजारती सफलता ही फिल्म से संबंधित लोगों की कीमत और जरूरत का आईना है। इस संसार में योग्यता से अधिक इत्तिफाक का दखल है। ... विट्ठल भाई के सुझाव पर निदा खार के इलाके में एक निर्माणाधीन बिल्डिंग में कुछ डिपॉजिट देकर एक फ्लैट बुक कराता है। बिल्डिंग धीरे-धीरे तैयार होती है। इसकी किस्तें भी इसी हिसाब से जमा होती हैं। इन किस्तों ने निदा को ज्यादा ऐक्टिव और सामाजिक बना दिया है। खुले हाथ आप-ही-आप बन्द होने लगे हैं। पहले वह दूसरों की जरूरतों को अपनी जरूरत मानता था— अब सिर्फ अपने-आपको पहचानता है। शाम की देर तक चलने वाली महफिलें अब अपने कमरे से निकल कर दूसरों के घरों में सजने लगी हैं। यार-दोस्तों की नजर में अब वह प्रगतिशील से प्रतिक्रियावादी बन जाता है।
इन किस्तों की अदायगी के लिए वह मजबूरी से एक-दो ऐसी फिल्में भी ले लेता है, जिनमें निर्माता विट्ठल भाई के साथ में होने से इंकार करते हैं। यह चोपड़ा की 'नाखुदा' वह अकेला ही लिखता है। उसका एक गीत रेडियो पर काफी बजाया जाता है—
तुम्हारी पलकों की चिलमनों में
ये क्या छिपा है सितारे जैसा
हसीन है ये हमारे जैसा
शरीर है ये तुम्हारे जैसा
कंट्रैक्ट की खिलाफत विट्ठल भाई को नाराज कर देती है। उनकी नाराजगी कुछ संगीत-निर्देशकों को भी अपने साथ ले लेती है। काम की तलाश में अब ज्यादा परिश्रम करना पड़ता है। हर दो-तीन महीने बाद एक बड़ी किस्त मुंह फाड़े इन्तजार करती है। संगीत निर्देशकों के साथ ज्यादा समय बिताना पड़ता है। उनकी बेसिर-पैर की बातों पर मुसकराना पड़ता है। अपने-आपको भुलाना पड़ता है। उनकी गालियों भरे डमी शब्दों को अपनी जहानत से बातहजीब बनाना पड़ता है।
मीरो गालिब के शेरों ने किसका साथ निभाया है
सस्ते गीतों को लिख लिखकर हमने हार बनवाया है।
निदा फाज़ली की कुछ गजलें और नज़्में
देखा हुआ सा कुछ है तो सोचा हुआ सा कुछ
हर व़क्त मेरे साथ है उलझा हुआ सा कुछ
होता है यूं भी रास्ता खुलता नहीं कहीं
जंगल-सा फैल जाता है खोया हुआ सा कुछ
साहिल की गीली रेत पर बच्चों के खेल-सा
हर लम्हा मुझ में बनता बिखरता हुआ सा कुछ
फुर्सत ने आज घर को सजाया कुछ इस तरह
हर शय से मुस्कुराता है रोता हुआ सा कुछ
धुंधली सी एक याद किसी कब्र का दिया
और मेरे आस-पास चमकता हुआ सा कुछ
-------------------------------------------
बेनाम-सा ये दर्द ठहर क्यों नहीं जाता
जो बीत गया है वो गुज़र क्यों नहीं जाता
सब कुछ तो है क्या ढूंढ़ती रहती हैं निगाहें
क्या बात है मैं वक़्त पे घर क्यों नहीं जाता
वो एक ही चेहरा तो नहीं सारे जहां में
जो दूर है वो दिल से उतर क्यों नहीं जाता
मैं अपनी ही उलझी हुई राहों का तमाशा
जाते हैं जिधर सब, मैं उधर क्यों नहीं जाता
वो ख़्वाब जो बरसों से न चेहरा, न बदन है
वो ख़्वाब हवाओं में बिखर क्यों नहीं जाता
----------------------------------------------
धूप में निकलो घटाओं में नहा कर देखो
ज़िंन्दगी क्या है किताबों को हटा कर देखो
वो सितारा है चमकने दो यूं ही आंखों में
क्या ज़रूरी है उसे जिस्म बनाकर देखो
पत्थरों में भी ज़ुबां होती है दिल होते हैं
अपने घर की दर-ओ-दीवार सजा कर देखो
फासला नज़रों का धोखा भी तो हो सकता है
वो मिले या न मिले हाथ बढ़ा कर देखो
-----------------------------------------
कहीं छत थी दीवार-ओ-दर थे कहीं
मिला मुझको घर का पता देर से
दिया तो बहुत ज़िन्दगी ने मुझे
मगर जो दिया वो दिया देर से
हुआ न कोई काम मामूल से
गुज़ारे शब-ओ-रोज़ कुछ इस तरह
कभी चांद चमका ग़लत वक़्त पर
कभी घर में सूरज उगा देर से
कभी रुक गये राह में बेसबब
कभी वक़्त से पहले घिर आई शब
हुये बंद दरवाज़े खुल खुल के सब
जहां भी गया मैं गया देर से
ये सब इत्ति़फा़कात का खेल है
यही है जुदाई यही मेल है
मैं मुड़ मुड़ के देखा किया दूर तक
बनी वो ख़ामोशी सदा देर से
(वाणी प्रकाशन से साभार)
.
साभार-'हिंदुस्तान'-11/10/2015
बहुत ही साधारण लिखने वाला एक बहुत ही साधारण इंसान जिसने 7 वर्ष की उम्र से ही लिखना शुरू कर दिया था। वाणिज्य में स्नातक। अच्छा संगीत सुनने का शौकीन। ब्लॉगिंग में वर्ष 2010 से सक्रिय। एक अग्रणी शैक्षिक प्रकाशन में बतौर हिन्दी प्रूफ रीडर 3 वर्ष का कार्य अनुभव।
11 October 2015
मार्क ट्वेन का एक कोटेशन
बहुत ही साधारण लिखने वाला एक बहुत ही साधारण इंसान जिसने 7 वर्ष की उम्र से ही लिखना शुरू कर दिया था। वाणिज्य में स्नातक। अच्छा संगीत सुनने का शौकीन। ब्लॉगिंग में वर्ष 2010 से सक्रिय। एक अग्रणी शैक्षिक प्रकाशन में बतौर हिन्दी प्रूफ रीडर 3 वर्ष का कार्य अनुभव।
10 October 2015
नाटक
नाटक -
कुछ खेले जाते हैं
मंच पर
जिनकी पटकथा
और संवाद
सुनिश्चित हैं ।
नाटक-
कुछ बन जाते हैं
अपने आप
और हम सब
उनके पात्र
नाचते हैं
बंध कर
किसी डोरी से ।
नाटक
भले ही होते हैं
कुछ काल्पनिक
कुछ वास्तविक
पर जीवन का
हिस्सा होते हैं
सुबह
और शाम की तरह।
~यशवन्त यश©
कुछ खेले जाते हैं
मंच पर
जिनकी पटकथा
और संवाद
सुनिश्चित हैं ।
नाटक-
कुछ बन जाते हैं
अपने आप
और हम सब
उनके पात्र
नाचते हैं
बंध कर
किसी डोरी से ।
नाटक
भले ही होते हैं
कुछ काल्पनिक
कुछ वास्तविक
पर जीवन का
हिस्सा होते हैं
सुबह
और शाम की तरह।
~यशवन्त यश©
बहुत ही साधारण लिखने वाला एक बहुत ही साधारण इंसान जिसने 7 वर्ष की उम्र से ही लिखना शुरू कर दिया था। वाणिज्य में स्नातक। अच्छा संगीत सुनने का शौकीन। ब्लॉगिंग में वर्ष 2010 से सक्रिय। एक अग्रणी शैक्षिक प्रकाशन में बतौर हिन्दी प्रूफ रीडर 3 वर्ष का कार्य अनुभव।
09 October 2015
लखनऊ पुस्तक मेले में डॉ सूर्यकांत जी द्वारा स्वास्थ्य परामर्श
कल 08/10/2015 को लखनऊ पुस्तक मेले के मंच से किंग जॉर्ज चिकित्सा विश्वविद्यालय के पलमोनरी मेडिसिन विभाग के प्रोफेसर एवं अध्यक्ष डॉ सूर्यकांत जी ने फेफड़े एवं श्वास रोगों से संबन्धित परिचर्चा के अंतर्गत स्वस्थ जीवन शैली हेतु कुछ महत्वपूर्ण बातें बतायीं उनका सारांश इस प्रकार है-
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नियमित,संयमित एवं उचित जीवन शैली ही अच्छे स्वास्थ्य का मूल आधार है।
( जनहित में प्रस्तुतकर्ता -यशवन्त यश )
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- 30 वर्ष से अधिक आयु वर्ग के सभी व्यक्तियों को जिम जाने व ट्रेडमिल आदि के प्रयोग से बचना चाहिए। साइकलिंग एक्सरसाइज़ ज़्यादा बेहतर है। बल्कि सबसे अच्छा तो यह है कि अपनी आयु के (क्षमता से)सामान्य से अधिक तेज़ गति से चलने की आदत डालनी चाहिए। धीमे धीमे टहलने से कोई लाभ नहीं है।
- fast food (कोल्ड ड्रिंक नूडल्स,चाउमीन ,बर्गर,पेटीज,चाट आदि) के प्रयोग से बचें। केले से बेहतर कोई fast food नहीं हो सकता। केला अपनी diet में ज़रूर शामिल करें।
- मधुमेह (sugar)के रोगी भी रोज़ एक केला खा सकते हैं।
- अपनी रसोई में refined oil /dalda आदि के खाना बनाने मे प्रयोग से बचें। यह स्वास्थ्य के लिए बहुत हानिकारक होते हैं। सबसे बेहतर सरसों का तेल है। सरसों के तेल में बना खाना स्वास्थ्य के लिए अच्छा होता है।
- चीनी का प्रयोग भी कम से कम करना चाहिये। यदि चीनी का प्रयोग करना ही है तो रसायनों से साफ की हुई अधिक सफ़ेद चीनी के बजाय कत्थई (brown) रंग की चीनी का प्रयोग करना चाहिए।
- नमक का प्रयोग भी कम से कम और सिर्फ दैनिक भोजन मे ही करना चाहिए।( मूँगफली या खीरा अथवा भोजन के अतिरिक्त अन्य चीजों के साथ नमक का प्रयोग नहीं करना चाहिए। )
- अपनी क्षमतानुसार कोई भी एक मौसमी फल नियमित लेना चाहिए।
- सिगरेट/शराब इत्यादि के सेवन बिलकुल न करें।
- 40 वर्ष से अधिक आयु वर्ग के व्यक्तियों को पूर्ण शाकाहार अपनाना चाहिए,यद्यपि कई चिकित्सा शोधों से यह प्रमाणित हुआ है कि शाकाहार सभी आयु वर्ग के लिए पूर्ण एवं हानि रहित है।
- जो रोग (जैसे एलर्जी/मधुमेह/अस्थमा आदि) हमारे साथ जीवन भर रहने हैं, उन से संबन्धित उपचार/दवाओं आदि को अपना दुश्मन नहीं बल्कि दोस्त मानना चाहिए।
नियमित,संयमित एवं उचित जीवन शैली ही अच्छे स्वास्थ्य का मूल आधार है।
( जनहित में प्रस्तुतकर्ता -यशवन्त यश )
बहुत ही साधारण लिखने वाला एक बहुत ही साधारण इंसान जिसने 7 वर्ष की उम्र से ही लिखना शुरू कर दिया था। वाणिज्य में स्नातक। अच्छा संगीत सुनने का शौकीन। ब्लॉगिंग में वर्ष 2010 से सक्रिय। एक अग्रणी शैक्षिक प्रकाशन में बतौर हिन्दी प्रूफ रीडर 3 वर्ष का कार्य अनुभव।
एक योजना का निराधार हो जाना--हरजिंदर, हेड-थॉट, हिन्दुस्तान
यूनीक आइडेंटिटी नंबर यानी आधार की राह कभी आसान नहीं थी। खासतौर पर आम
लोगों ने इसके लिए काफी पापड़ बेले हैं। पांच साल पहले, जब कार्ड बनाने की
शुरुआत हुई थी, तो इसका फॉर्म लेने के लिए ही लंबी लाइनें लगती थीं।
फिर उंगलियों के निशान और आंखों की पुतलियों का स्कैन दर्ज कराने के लिए हफ्तों बाद का समय मिलता था। इतने इंतजार के बाद नियत समय पर पहुंचने वालों को पता चलता था कि सारा काम समय से काफी पीछे चल रहा है और उन्हें अभी और इंतजार करना पड़ेगा। देश की तकरीबन 75 फीसदी आबादी के पास आधार कार्ड के लिए भटकने के ढेर सारे कड़वे और खट्टे-मीठे अनुभव हैं- कहीं विद्युत आपूर्ति रुकने की वजह से काम अटक गया, तो कहीं पर स्कैनर खराब हो गया, नया अब अगले सोमवार को ही आ पाएगा। इन सारी बाधाओं के बावजूद अगर 90 करोड़ से ज्यादा लोगों को आधार कार्ड मिल चुके हैं, तो यह कोई कम बड़ी उपलब्धि नहीं है।
यह संख्या यूरोप के 50 देशों की कुल आबादी से भी 18 फीसदी ज्यादा है। लेकिन इतनी बड़ी उपलब्धि अब अपना ज्यादातर महत्व खो चुकी है। यूनीक आइडेंटिटी नंबर की जो व्यवस्था पूरे देश की आबादी को एक बहुत बड़े सूचना तंत्र से जोड़ने की कल्पना के साथ रची गई थी, उसकी भूमिका अब किसी राशन कार्ड से ज्यादा नहीं रह गई। सुप्रीम कोर्ट के ताजा फैसले के बाद अब इसे सिर्फ सार्वजनिक वितरण प्रणाली में मिलने वाले अनाज, रसोई गैस और केरोसीन के लिए ही इस्तेमाल किया जा सकेगा। कहां तो योजना यह थी कि आधार कार्ड न सिर्फ प्रत्येक नागरिक की पहचान का सबसे बड़ा आधार बनेगा, बल्कि यह उसके बैंक खाते से भी जुड़ेगा और बहुत सारे भ्रष्टाचार पर लगाम लगा देगा। यह कहा जा रहा था कि इसके बाद सरकारी सब्सिडी ही नहीं, वृद्धा पेंशन तक सीधे लोगों के बैंक खाते में पहुंच जाया करेगी।
यह वादा भी था कि इससे कई तरह की धोखाधड़ी और घपलों पर भी रोक लग सकेगी। काले धन पर रोक के तर्क भी दिए जा रहे थे। शेयर बाजार में कारोबार के लिए इसे जरूरी बनाने पर भी विचार चल रहा था। सरकार के सुरक्षा सलाहकार अजित डोभाल का कहना था कि इसकी मूल परिकल्पना सुरक्षा जरूरतों के हिसाब से बनाई गई थी, बैंक खाते और आर्थिक लाभ जैसी चीजें इसमें बाद में जोड़ी गईं। लेकिन सर्वोच्च अदालत के ताजा फैसले के बाद फिलहाल इन सब वादों और इरादों का कोई अर्थ नहीं रहा। यह ठीक है कि सुप्रीम कोर्ट ने पूरे मामले को एक सांविधानिक पीठ के हवाले करने की बात कही है, मगर अभी तो सारे भगीरथ प्रयत्न के बाद हमें जो जलधारा मिली है, उसे हम महानदी तो क्या नाला भी नहीं कह सकते।
आधार का पूरा मामला, दरअसल एक साथ हमारे तंत्र की खूबियों और खामियों को दिखाता है। खूबी इस मायने में कि हम इतनी बड़ी योजना न सिर्फ बना सकते हैं, बल्कि उसे काफी हद तक लागू भी कर सकते हैं। सवा अरब की आबादी वाले विशाल देश में अगर सरकार लोगों से संवाद कर ले, न केवल उन तक अपन संदेश पहुंचा दे, बल्कि उनकी भागीदारी भी सुनिश्चित कर दे, तो यह कोई छोटी बात नहीं है। वैसे इसका मजाक उड़ाते हुए यह भी कहा जाता है कि जब फायदा मिलने की बात आती है, तो लोग अपने आप उमड़ पड़ते हैं। लेकिन यह भी सच है कि भ्रष्टाचार की हाय-तौबा वाले देश में लोग अब भी पूरी तरह निराश नहीं हैं और यह मानते हैं कि सरकार उन तक योजनाओं का लाभ पहुंचा सकती है।
लेकिन आधार यह भी बताता है कि हमारा तंत्र बिना बहुत ज्यादा विचार किए किसी वृहद् योजना पर काम शुरू कर सकता है। नौकरशाही की सुविधा का पूरा ख्याल रखा जाता है, लेकिन जनता पर पड़ने वाले दूरगामी असर को नजरअंदाज कर दिया जाता है। सबसे पहले तो आधार की पूरी योजना ही एक सरकारी आदेश पर शुरू कर दी गई, इसके लिए कानूनी और सांविधानिक प्रावधान करने की जरूरत भी नहीं समझी गई। बाद में जो प्रावधान किए गए, वे भी आधे-अधूरे ही थे। इनमें भी इन आंकड़ों के दुरुपयोग को रोकने और लोगों की निजता के उल्लंघन से निपटने की कोई सोच नहीं थी। ढेर सारी आलोचनाएं हुईं, कई खतरे भी गिनाए गए।
2011 की शुरुआत में जब यूनीक आइडेंटिटी नंबर अथॉरिटी के अध्यक्ष भाषण देने के लिए बेंगलुरु की इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ साइंस में गए, तो वहां इसके खतरों पर उनका ध्यान खींचने के लिए कुछ लोगों ने बैनर लगा रखे थे, जिन पर लिखा था- हैप्पी न्यू फियर। लेकिन सरकारें आलोचनाओं पर न ध्यान देती हैं, न कान। आधार की हर आलोचना को सरकार की नीयत पर संदेह की तरह देखा गया। सब ठीक है- सब ठीक है वाले अंदाज में इसे बढ़ाते रहने की कोशिशें जारी रहीं।
आधार का मामला यह भी बताता है कि जब सरकारों के सामने आलोचनाओं का जवाब देने की मजबूरी आ जाती है, तो वे अक्सर बेतुकी हो जाती हैं और कुतर्क करने लगती हैं। अभी कुछ महीने पहले ही जब आधार पर सुप्रीम कोर्ट में चर्चा चल रही थी, तो सरकार ने तर्क दिया था कि निजता का अधिकार लोगों का मूल अधिकार नहीं है। बेशक, भारतीय संविधान की किताबी व्याख्याओं से इस तर्क को सही ठहराया जा सकता हो, लेकिन 21वीं सदी के इस सूचना युग में अगर कोई सरकार यह कहती है कि निजता का अधिकार कोई बड़ी चीज नहीं है, तो सचमुच लोगों को आने वाले खतरों के प्रति सचेत हो जाना चाहिए। सुप्रीम कोर्ट ने सुनवाई के दौरान एक और महत्वपूर्ण बात कही थी, अदालत का कहना था कि किसी नागरिक को सिर्फ इसलिए उसके अधिकर से वंचित नहीं किया जा सकता कि उसके पास आधार कार्ड नहीं है। इस बात को और आगे ले जाएं, तो कई और तरह के खतरे भी देखे जा सकते हैं। तब हो सकता है कि बहुत ज्यादा जोर दिए जाने के कारण आधार की सुविधा असुविधा में बदलती दिखाई दे। जैसे किसी को सिर्फ इसलिए नागरिक मानने से इनकार कर जेल में डाल दिया जाए कि उसके पास आधार नहीं है। हमने आधार कार्ड के लिए लंबा-चौड़ा तंत्र तो बना दिया, लेकिन अभी तक इसके उपयोग-दुरुपयोग के लिए कोई एथिक्स या आचार संहिता बनाने की जरूरत क्यों नहीं महसूस की?
सरकारी तंत्र की बेपरवाही के कारण आधार की योजना सुप्रीम कोर्ट पहंुचकर जनता के लिए निराधार हो गई। लेकिन अगर इसी रूप में यह सचमुच लागू हो जाती, तो हो सकता है कि जनता के लिए यह बंटाधार साबित होती। आधार के इस हश्र से क्या सरकार सचमुच कोई सबक लेगी? अभी तक के जो रिकॉर्ड हैं, उनसे तो कोई उम्मीद नहीं बनती।
साभार :-'हिंदुस्तान'-09/10/2015
फिर उंगलियों के निशान और आंखों की पुतलियों का स्कैन दर्ज कराने के लिए हफ्तों बाद का समय मिलता था। इतने इंतजार के बाद नियत समय पर पहुंचने वालों को पता चलता था कि सारा काम समय से काफी पीछे चल रहा है और उन्हें अभी और इंतजार करना पड़ेगा। देश की तकरीबन 75 फीसदी आबादी के पास आधार कार्ड के लिए भटकने के ढेर सारे कड़वे और खट्टे-मीठे अनुभव हैं- कहीं विद्युत आपूर्ति रुकने की वजह से काम अटक गया, तो कहीं पर स्कैनर खराब हो गया, नया अब अगले सोमवार को ही आ पाएगा। इन सारी बाधाओं के बावजूद अगर 90 करोड़ से ज्यादा लोगों को आधार कार्ड मिल चुके हैं, तो यह कोई कम बड़ी उपलब्धि नहीं है।
यह संख्या यूरोप के 50 देशों की कुल आबादी से भी 18 फीसदी ज्यादा है। लेकिन इतनी बड़ी उपलब्धि अब अपना ज्यादातर महत्व खो चुकी है। यूनीक आइडेंटिटी नंबर की जो व्यवस्था पूरे देश की आबादी को एक बहुत बड़े सूचना तंत्र से जोड़ने की कल्पना के साथ रची गई थी, उसकी भूमिका अब किसी राशन कार्ड से ज्यादा नहीं रह गई। सुप्रीम कोर्ट के ताजा फैसले के बाद अब इसे सिर्फ सार्वजनिक वितरण प्रणाली में मिलने वाले अनाज, रसोई गैस और केरोसीन के लिए ही इस्तेमाल किया जा सकेगा। कहां तो योजना यह थी कि आधार कार्ड न सिर्फ प्रत्येक नागरिक की पहचान का सबसे बड़ा आधार बनेगा, बल्कि यह उसके बैंक खाते से भी जुड़ेगा और बहुत सारे भ्रष्टाचार पर लगाम लगा देगा। यह कहा जा रहा था कि इसके बाद सरकारी सब्सिडी ही नहीं, वृद्धा पेंशन तक सीधे लोगों के बैंक खाते में पहुंच जाया करेगी।
यह वादा भी था कि इससे कई तरह की धोखाधड़ी और घपलों पर भी रोक लग सकेगी। काले धन पर रोक के तर्क भी दिए जा रहे थे। शेयर बाजार में कारोबार के लिए इसे जरूरी बनाने पर भी विचार चल रहा था। सरकार के सुरक्षा सलाहकार अजित डोभाल का कहना था कि इसकी मूल परिकल्पना सुरक्षा जरूरतों के हिसाब से बनाई गई थी, बैंक खाते और आर्थिक लाभ जैसी चीजें इसमें बाद में जोड़ी गईं। लेकिन सर्वोच्च अदालत के ताजा फैसले के बाद फिलहाल इन सब वादों और इरादों का कोई अर्थ नहीं रहा। यह ठीक है कि सुप्रीम कोर्ट ने पूरे मामले को एक सांविधानिक पीठ के हवाले करने की बात कही है, मगर अभी तो सारे भगीरथ प्रयत्न के बाद हमें जो जलधारा मिली है, उसे हम महानदी तो क्या नाला भी नहीं कह सकते।
आधार का पूरा मामला, दरअसल एक साथ हमारे तंत्र की खूबियों और खामियों को दिखाता है। खूबी इस मायने में कि हम इतनी बड़ी योजना न सिर्फ बना सकते हैं, बल्कि उसे काफी हद तक लागू भी कर सकते हैं। सवा अरब की आबादी वाले विशाल देश में अगर सरकार लोगों से संवाद कर ले, न केवल उन तक अपन संदेश पहुंचा दे, बल्कि उनकी भागीदारी भी सुनिश्चित कर दे, तो यह कोई छोटी बात नहीं है। वैसे इसका मजाक उड़ाते हुए यह भी कहा जाता है कि जब फायदा मिलने की बात आती है, तो लोग अपने आप उमड़ पड़ते हैं। लेकिन यह भी सच है कि भ्रष्टाचार की हाय-तौबा वाले देश में लोग अब भी पूरी तरह निराश नहीं हैं और यह मानते हैं कि सरकार उन तक योजनाओं का लाभ पहुंचा सकती है।
लेकिन आधार यह भी बताता है कि हमारा तंत्र बिना बहुत ज्यादा विचार किए किसी वृहद् योजना पर काम शुरू कर सकता है। नौकरशाही की सुविधा का पूरा ख्याल रखा जाता है, लेकिन जनता पर पड़ने वाले दूरगामी असर को नजरअंदाज कर दिया जाता है। सबसे पहले तो आधार की पूरी योजना ही एक सरकारी आदेश पर शुरू कर दी गई, इसके लिए कानूनी और सांविधानिक प्रावधान करने की जरूरत भी नहीं समझी गई। बाद में जो प्रावधान किए गए, वे भी आधे-अधूरे ही थे। इनमें भी इन आंकड़ों के दुरुपयोग को रोकने और लोगों की निजता के उल्लंघन से निपटने की कोई सोच नहीं थी। ढेर सारी आलोचनाएं हुईं, कई खतरे भी गिनाए गए।
2011 की शुरुआत में जब यूनीक आइडेंटिटी नंबर अथॉरिटी के अध्यक्ष भाषण देने के लिए बेंगलुरु की इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ साइंस में गए, तो वहां इसके खतरों पर उनका ध्यान खींचने के लिए कुछ लोगों ने बैनर लगा रखे थे, जिन पर लिखा था- हैप्पी न्यू फियर। लेकिन सरकारें आलोचनाओं पर न ध्यान देती हैं, न कान। आधार की हर आलोचना को सरकार की नीयत पर संदेह की तरह देखा गया। सब ठीक है- सब ठीक है वाले अंदाज में इसे बढ़ाते रहने की कोशिशें जारी रहीं।
आधार का मामला यह भी बताता है कि जब सरकारों के सामने आलोचनाओं का जवाब देने की मजबूरी आ जाती है, तो वे अक्सर बेतुकी हो जाती हैं और कुतर्क करने लगती हैं। अभी कुछ महीने पहले ही जब आधार पर सुप्रीम कोर्ट में चर्चा चल रही थी, तो सरकार ने तर्क दिया था कि निजता का अधिकार लोगों का मूल अधिकार नहीं है। बेशक, भारतीय संविधान की किताबी व्याख्याओं से इस तर्क को सही ठहराया जा सकता हो, लेकिन 21वीं सदी के इस सूचना युग में अगर कोई सरकार यह कहती है कि निजता का अधिकार कोई बड़ी चीज नहीं है, तो सचमुच लोगों को आने वाले खतरों के प्रति सचेत हो जाना चाहिए। सुप्रीम कोर्ट ने सुनवाई के दौरान एक और महत्वपूर्ण बात कही थी, अदालत का कहना था कि किसी नागरिक को सिर्फ इसलिए उसके अधिकर से वंचित नहीं किया जा सकता कि उसके पास आधार कार्ड नहीं है। इस बात को और आगे ले जाएं, तो कई और तरह के खतरे भी देखे जा सकते हैं। तब हो सकता है कि बहुत ज्यादा जोर दिए जाने के कारण आधार की सुविधा असुविधा में बदलती दिखाई दे। जैसे किसी को सिर्फ इसलिए नागरिक मानने से इनकार कर जेल में डाल दिया जाए कि उसके पास आधार नहीं है। हमने आधार कार्ड के लिए लंबा-चौड़ा तंत्र तो बना दिया, लेकिन अभी तक इसके उपयोग-दुरुपयोग के लिए कोई एथिक्स या आचार संहिता बनाने की जरूरत क्यों नहीं महसूस की?
सरकारी तंत्र की बेपरवाही के कारण आधार की योजना सुप्रीम कोर्ट पहंुचकर जनता के लिए निराधार हो गई। लेकिन अगर इसी रूप में यह सचमुच लागू हो जाती, तो हो सकता है कि जनता के लिए यह बंटाधार साबित होती। आधार के इस हश्र से क्या सरकार सचमुच कोई सबक लेगी? अभी तक के जो रिकॉर्ड हैं, उनसे तो कोई उम्मीद नहीं बनती।
साभार :-'हिंदुस्तान'-09/10/2015
बहुत ही साधारण लिखने वाला एक बहुत ही साधारण इंसान जिसने 7 वर्ष की उम्र से ही लिखना शुरू कर दिया था। वाणिज्य में स्नातक। अच्छा संगीत सुनने का शौकीन। ब्लॉगिंग में वर्ष 2010 से सक्रिय। एक अग्रणी शैक्षिक प्रकाशन में बतौर हिन्दी प्रूफ रीडर 3 वर्ष का कार्य अनुभव।
08 October 2015
जो जैसा है वैसा ही रहता है........
यूं तो
झूठ,
झूठ ही रहता है
पर
कभी कभी
रंग बदल कर
सच के मुखौटे में
छिप कर
अपना सा
लगने लगता है।
यूं तो
सच,
सच ही रहता है
पर
कभी कभी
झूठ की
चादर के भीतर
खौफ में जी कर
पराया सा
लगने लगता है।
जो जैसा है
वह
वैसा ही रहता है
रूप रंग के
आवरण में
कुछ पल
छल देता है
या छला जाता है
पर फिर
वह वक़्त भीआता है
जब पर्दा हटने पर
हर अपना
पराया
और हर पराया
अपना सा
लगने लगता है।
~यशवन्त यश©
झूठ,
झूठ ही रहता है
पर
कभी कभी
रंग बदल कर
सच के मुखौटे में
छिप कर
अपना सा
लगने लगता है।
यूं तो
सच,
सच ही रहता है
पर
कभी कभी
झूठ की
चादर के भीतर
खौफ में जी कर
पराया सा
लगने लगता है।
जो जैसा है
वह
वैसा ही रहता है
रूप रंग के
आवरण में
कुछ पल
छल देता है
या छला जाता है
पर फिर
वह वक़्त भीआता है
जब पर्दा हटने पर
हर अपना
पराया
और हर पराया
अपना सा
लगने लगता है।
~यशवन्त यश©
बहुत ही साधारण लिखने वाला एक बहुत ही साधारण इंसान जिसने 7 वर्ष की उम्र से ही लिखना शुरू कर दिया था। वाणिज्य में स्नातक। अच्छा संगीत सुनने का शौकीन। ब्लॉगिंग में वर्ष 2010 से सक्रिय। एक अग्रणी शैक्षिक प्रकाशन में बतौर हिन्दी प्रूफ रीडर 3 वर्ष का कार्य अनुभव।
07 October 2015
जब कोई मच्छर वीआईपी हो जाए--सहीराम
डेंगू के मच्छर का पूरा अंदाज ही निराला है। वह सिर्फ साफ पानी में पनपता
है। दूसरे मच्छरों की तरह वह गंदे पानी की तरफ देखता भी नहीं। इसीलिए बताते
हैं कि वह वीआईपी इलाकों में ही ज्यादा पनपता है- राष्ट्रपति भवन से लेकर
संसद तक। मंत्रियों के बंगलों से लेकर डॉक्टरों के घरों तक। वह गंदी
बस्तियों का कतई मोहताज नहीं है। गरीबों को मारने के लिए दूसरी बहुत-सी
बीमारियां हैं।
वह आरोप क्यों ले कि उसका जोर भी भगवान की तरह गरीबों पर ही चलता है? हो सकता है कि आने वाले दिनों में उसकी मांग यह हो जाए कि मेरे लिए फिल्टर वाटर या मिनरल वाटर का इंतजाम करो। बताते हैं कि डेंगू के मच्छर दिन में काटते हैं। उनकी ड्यूटी का समय तय है- सुबह नौ बजे तक और कुछ देर शाम के वक्त। हो सकता है कि दोपहर को एकाध झपकी भी ले लेता हो। दूसरे मच्छरों की तरह नहीं है कि रात भर भिनभिनाता रहे। वह कोई मजदूर नहीं है कि ओवरटाइम करे।
पता चला है कि मच्छर मारने वाले धुएं का उस पर कोई असर नहीं होता। वह बाबुओं की तरह बिल्कुल चिकना घड़ा हो गया है। यह धुआं उस धमकी की तरह है, जो छोटे कर्मचारियों पर असर दिखाता है, बाबुओं और नौकरशाहों पर इसका कोई असर नहीं होता। जैसे नौकरशाही व्यवस्था को अपनी तरह तोड़-मोड़ लेती है, डेंगू मच्छर भी इस मच्छर मार धुएं को अपनी खुराक बना लेता है, अपने लिए इस्तेमाल कर लेता है। कहा तो यह भी जाता है कि डेंगू का मच्छर बड़ा ही समाजवादी किस्म का जीव है, जबकि ऐसे जीव आजकल कम ही मिलते हैं। वह अमीरों-गरीबों में कोई भेद नहीं करता है।
वह वीआईपी लोगों और आम गरीब-गुरबे में कोई भेद नहीं करता है, वह समान भाव से अपना काम करता है। वह डॉक्टरों को सिर्र्फ इसलिए नहीं बख्श देता कि उनका काम बीमार होना नहीं, इलाज करना है। वह वीआईपी लोगों को भी इसलिए नहीं बख्शता कि वे बस अमीरों वाली बीमारियों के लिए आरक्षित हैं। आजकल तो भेदभाव करने वाले लोग ही नहीं मिलते, और न ऐसे विचार ही मिलते हैं, मच्छर कहां मिलेंगे भला?
सहीराम
साभार-'हिंदुस्तान'- 07/10/2015
वह आरोप क्यों ले कि उसका जोर भी भगवान की तरह गरीबों पर ही चलता है? हो सकता है कि आने वाले दिनों में उसकी मांग यह हो जाए कि मेरे लिए फिल्टर वाटर या मिनरल वाटर का इंतजाम करो। बताते हैं कि डेंगू के मच्छर दिन में काटते हैं। उनकी ड्यूटी का समय तय है- सुबह नौ बजे तक और कुछ देर शाम के वक्त। हो सकता है कि दोपहर को एकाध झपकी भी ले लेता हो। दूसरे मच्छरों की तरह नहीं है कि रात भर भिनभिनाता रहे। वह कोई मजदूर नहीं है कि ओवरटाइम करे।
पता चला है कि मच्छर मारने वाले धुएं का उस पर कोई असर नहीं होता। वह बाबुओं की तरह बिल्कुल चिकना घड़ा हो गया है। यह धुआं उस धमकी की तरह है, जो छोटे कर्मचारियों पर असर दिखाता है, बाबुओं और नौकरशाहों पर इसका कोई असर नहीं होता। जैसे नौकरशाही व्यवस्था को अपनी तरह तोड़-मोड़ लेती है, डेंगू मच्छर भी इस मच्छर मार धुएं को अपनी खुराक बना लेता है, अपने लिए इस्तेमाल कर लेता है। कहा तो यह भी जाता है कि डेंगू का मच्छर बड़ा ही समाजवादी किस्म का जीव है, जबकि ऐसे जीव आजकल कम ही मिलते हैं। वह अमीरों-गरीबों में कोई भेद नहीं करता है।
वह वीआईपी लोगों और आम गरीब-गुरबे में कोई भेद नहीं करता है, वह समान भाव से अपना काम करता है। वह डॉक्टरों को सिर्र्फ इसलिए नहीं बख्श देता कि उनका काम बीमार होना नहीं, इलाज करना है। वह वीआईपी लोगों को भी इसलिए नहीं बख्शता कि वे बस अमीरों वाली बीमारियों के लिए आरक्षित हैं। आजकल तो भेदभाव करने वाले लोग ही नहीं मिलते, और न ऐसे विचार ही मिलते हैं, मच्छर कहां मिलेंगे भला?
सहीराम
साभार-'हिंदुस्तान'- 07/10/2015
बहुत ही साधारण लिखने वाला एक बहुत ही साधारण इंसान जिसने 7 वर्ष की उम्र से ही लिखना शुरू कर दिया था। वाणिज्य में स्नातक। अच्छा संगीत सुनने का शौकीन। ब्लॉगिंग में वर्ष 2010 से सक्रिय। एक अग्रणी शैक्षिक प्रकाशन में बतौर हिन्दी प्रूफ रीडर 3 वर्ष का कार्य अनुभव।
01 October 2015
कुछ लोग-28
स्वनाम धन्य
कुछ लोग
जो कहने को
पत्रकार
कलाकार
और न जाने
क्या क्या होते हैं
देश दुनिया की
तमाम समझ होने पर भी
कभी कभी
अपनी टिप्पणियों से
ना समझ लगते हैं।
उनके पास
उनके स्वाभाविक
पूर्वाग्रहों का
असीमित भंडार
रोकने लगता है
सही तरह
सोचने से
और वह
सिर वही लिखते
और कहते हैं
जो देश -समाज
भविष्य के हित से परे
सिर्फ उनके
अपने अहं को
संतुष्ट करता है
सिर्फ उनके
अपने चित्त को
तुष्ट करता है।
हर जगह
अपने कुतर्कों को
तर्क साबित करने में
ऐसे कुछ लोग
बिता देते हैं
वह अनमोल वक़्त
जो
खो चुका होता है
अपनी सार्थकता
सिर्फ
उनकी वजह से।
~यशवन्त यश©
कुछ लोग
जो कहने को
पत्रकार
कलाकार
और न जाने
क्या क्या होते हैं
देश दुनिया की
तमाम समझ होने पर भी
कभी कभी
अपनी टिप्पणियों से
ना समझ लगते हैं।
उनके पास
उनके स्वाभाविक
पूर्वाग्रहों का
असीमित भंडार
रोकने लगता है
सही तरह
सोचने से
और वह
सिर वही लिखते
और कहते हैं
जो देश -समाज
भविष्य के हित से परे
सिर्फ उनके
अपने अहं को
संतुष्ट करता है
सिर्फ उनके
अपने चित्त को
तुष्ट करता है।
हर जगह
अपने कुतर्कों को
तर्क साबित करने में
ऐसे कुछ लोग
बिता देते हैं
वह अनमोल वक़्त
जो
खो चुका होता है
अपनी सार्थकता
सिर्फ
उनकी वजह से।
~यशवन्त यश©
बहुत ही साधारण लिखने वाला एक बहुत ही साधारण इंसान जिसने 7 वर्ष की उम्र से ही लिखना शुरू कर दिया था। वाणिज्य में स्नातक। अच्छा संगीत सुनने का शौकीन। ब्लॉगिंग में वर्ष 2010 से सक्रिय। एक अग्रणी शैक्षिक प्रकाशन में बतौर हिन्दी प्रूफ रीडर 3 वर्ष का कार्य अनुभव।
26 September 2015
सब चारण तैयार हैं......
इधर भी खड़े
कुछ उधर भी खड़े
चरणों में लिपटे पड़े
सब चारण तैयार हैं.... ।
हाथों में स्मृति चिह्न लिए
मुद्रा-प्रशस्ति गिन लिए
गुण, गुड़ शक्कर हो लिए
अंग वस्त्र धारण सरकार हैं .... ।
सब चारण तैयार हैं......
मौन व्रत स्वाभाविक है
अच्छा बुरा मन माफिक है
जो अपने खुद का मालिक है
उस साधारण पर वार हैं .... ।
सब चारण तैयार हैं......।
~यशवन्त यश©
कुछ उधर भी खड़े
चरणों में लिपटे पड़े
सब चारण तैयार हैं.... ।
हाथों में स्मृति चिह्न लिए
मुद्रा-प्रशस्ति गिन लिए
गुण, गुड़ शक्कर हो लिए
अंग वस्त्र धारण सरकार हैं .... ।
सब चारण तैयार हैं......
मौन व्रत स्वाभाविक है
अच्छा बुरा मन माफिक है
जो अपने खुद का मालिक है
उस साधारण पर वार हैं .... ।
सब चारण तैयार हैं......।
~यशवन्त यश©
बहुत ही साधारण लिखने वाला एक बहुत ही साधारण इंसान जिसने 7 वर्ष की उम्र से ही लिखना शुरू कर दिया था। वाणिज्य में स्नातक। अच्छा संगीत सुनने का शौकीन। ब्लॉगिंग में वर्ष 2010 से सक्रिय। एक अग्रणी शैक्षिक प्रकाशन में बतौर हिन्दी प्रूफ रीडर 3 वर्ष का कार्य अनुभव।
21 September 2015
बस यूं ही.......
न यहाँ ज्ञान है
न विज्ञान है
न साहित्य है
न कविता है
न कहानी है
न कोई विधा है
यहाँ तो बस
कुछ बातें हैं
जो मन में आती हैं
और लिख जाती हैं
दर्ज़ हो जाती हैं
डायरी की तरह
हर आने वाले कल
अपनी याद दिलाने के लिए
यूं ही पलटते हुए
अनकहे ही
कुछ कह जाने के लिए ।
~यशवन्त यश©
न विज्ञान है
न साहित्य है
न कविता है
न कहानी है
न कोई विधा है
यहाँ तो बस
कुछ बातें हैं
जो मन में आती हैं
और लिख जाती हैं
दर्ज़ हो जाती हैं
डायरी की तरह
हर आने वाले कल
अपनी याद दिलाने के लिए
यूं ही पलटते हुए
अनकहे ही
कुछ कह जाने के लिए ।
~यशवन्त यश©
बहुत ही साधारण लिखने वाला एक बहुत ही साधारण इंसान जिसने 7 वर्ष की उम्र से ही लिखना शुरू कर दिया था। वाणिज्य में स्नातक। अच्छा संगीत सुनने का शौकीन। ब्लॉगिंग में वर्ष 2010 से सक्रिय। एक अग्रणी शैक्षिक प्रकाशन में बतौर हिन्दी प्रूफ रीडर 3 वर्ष का कार्य अनुभव।
17 September 2015
फिलहाल कुछ नहीं
फिलहाल कुछ नहीं
न लिखने को
न कहने को
न सुनने को
फिलहाल तो बस
अपनी धुन में
चलते चलते
किसी राह पर
ठोकर खा कर
गिरते हुए
कभी संभलते हुए
आँखों पर
ज़िद्द की पट्टी बांधे
कुछ सोचता हुआ
कल के बारे में
चलता जा रहा हूँ
उस अनजान
मंज़िल की तरफ
जिसका पता
फिलहाल कुछ नहीं।
~यशवन्त यश©
न लिखने को
न कहने को
न सुनने को
फिलहाल तो बस
अपनी धुन में
चलते चलते
किसी राह पर
ठोकर खा कर
गिरते हुए
कभी संभलते हुए
आँखों पर
ज़िद्द की पट्टी बांधे
कुछ सोचता हुआ
कल के बारे में
चलता जा रहा हूँ
उस अनजान
मंज़िल की तरफ
जिसका पता
फिलहाल कुछ नहीं।
~यशवन्त यश©
बहुत ही साधारण लिखने वाला एक बहुत ही साधारण इंसान जिसने 7 वर्ष की उम्र से ही लिखना शुरू कर दिया था। वाणिज्य में स्नातक। अच्छा संगीत सुनने का शौकीन। ब्लॉगिंग में वर्ष 2010 से सक्रिय। एक अग्रणी शैक्षिक प्रकाशन में बतौर हिन्दी प्रूफ रीडर 3 वर्ष का कार्य अनुभव।
14 September 2015
हिंदी और सरकारी पंडागिरी-शशि शेखर ( प्रधान संपादक 'हिंदुस्तान')
पुडुचेरी की सीमा पर स्थित उस होटल से समुद्र थोड़ा दूर था। वहां के मैनेजर का आग्रह था कि हम कुछ देर तट पर जरूर बिताएं, ऐसा निर्जन और अछूता समुद्री किनारा आम पर्यटक स्थलों में दुर्लभ है। हमने राय मान ली और उस ओर चल पड़े। समुद्र तट और होटल के बीच में एक छोटा गांव पड़ता है। हम जब उसे पार कर रहे थे, तो कुछ महिलाओं ने हमारी ओर देखकर कौतूहलपूर्ण इशारे किए और एक छोटी बच्ची परंपरागत वेशभूषा में नजदीक तक चली आई। वे हम अजनबियों के बारे में कुछ जानना चाह रही थीं। मेरी पत्नी रुकी और उस लड़की से पूछने लगी, 'तुम किस क्लास में पढ़ती हो?' उसने हंसते हुए जवाब दिया, 'फोर्थ।' मैं समझ गया कि इन दोनों के बीच संवाद का तंतु अंग्रेजी के ये दो अक्षर हैं। मन में प्रश्न उठा कि क्या भारतीय भाषाएं कभी आपस में बातचीत का जरिया नहीं बनेंगी?
यह टीस कुछ ही मिनटों में दूर हो गई।
हुआ यह कि उस बच्ची ने इशारे से दूर खड़ी गांव की महिलाओं को पास बुला लिया। पहले तो कुछ देर मेरी पत्नी और वे महिलाएं मुस्कराहटों का आदान-प्रदान करती रहीं, फिर उनमें से किसी ने कुछ पूछा। हमारे पल्ले सिर्फ एक शब्द पड़ा- 'पंजाबी।' हम समझ गए कि वे पूछ रही हैं कि क्या आप लोग पंजाबी हैं? उसके बाद मेरी पत्नी और तमिल महिलाएं कुछ इशारों, तो कुछ शब्दों के जरिए वार्तालाप की कोशिश करती रहीं। दोनों पक्षों के लिए ये लम्हे खासे मनोरंजक थे। तभी मुझे याद आया कि तमिलभाषी इलाकों में कभी हिंदी बोलने वालों की पिटाई कर दी जाती थी। दूर-दराज के उस गांव में शाम धुंधली पड़ रही थी, एक पल को नहीं लगा कि हम खतरे में हैं।
भाषायी भिन्नता के बावजूद भारतीयता का तंतु हमें जोड़े हुए था।
अगले तीन दिनों में ऐसा बार-बार हुआ। नुक्कड़ की कॉफी शॉप पर, घडि़यालों के अभयारण्य में, साड़ी की दुकानों में या किसी दर्शनीय स्थल पर हमें परायापन महसूस नहीं हुआ। और तो और, एक रेस्टोरेंट में भोजन करते समय श्रीमती जी ने पूछ लिया कि यह सब्जी कैसे बनी है? मैनेजर अंग्रेजी में समझाने लगा, तो उन्होंने कहा कि किसी ऐसे 'शेफ' को बुलाएं, जो हिंदी जानता हो। कुछ देर में हिंदीभाषी सज्जन हाजिर थे। उन्होंने विस्तार से बताया कि दक्षिण भारतीय शाकाहारी भोजन कैसे बनता है? यही नहीं, उन्होंने दिल्ली के बाजार भी बता दिए, जहां ये सब्जियां आसानी से उपलब्ध हैं।
अब हमारे घर आने वाले अतिथि दक्षिण भारतीय व्यंजन देखकर चकित रह जाते हैं।
लौटते वक्त मेरी पत्नी तमिलनाडु और वहां के लोगों की प्रशंसा के पुल बांध रही थीं। मैंने उन्हें बताया कि किस तरह तीन दशक पहले तब के मद्रास और आज के चेन्नई में मुझ हिंदीभाषी को नफरत की नजरों से देखा गया था। मुक्त बाजार की अर्थव्यवस्था ने जहां कुछ दिक्कतें पैदा की हैं, वहीं बड़ी मात्रा में शिक्षा और रोजगार के दरवाजे देश के नौजवानों के लिए खोल दिए हैं। यही वजह है कि बेंगलुरु, चेन्नई, मदुरै जैसी जगहों पर अब हिंदीभाषियों को अधिक दिक्कत नहीं होती। उत्तर भारत के शहर भी दक्षिण भारतीय नौजवानों को उसी अनुराग से अपनाते हैं। हिंदी का यह कारवां सिर्फ अपने देश में ही नहीं बढ़ रहा।
पिछले साल न्यूयॉर्क के मेनहट्टन में मैंने प्राय: हर जगह हिंदीभाषियों को पाया। इसी तरह, यूरोप के कई मुल्कों में हिंदी में बतियाते लोग देखे जा सकते हैं। दुबई, रूस और इंग्लैंड में तो पहले भी अंग्रेजी बोलने की कम जरूरत पड़ती थी। यह वह समय है, जब हमें सारी दुनिया में फैले हिंदीभाषियों को एक सूत्र में बांधना चाहिए। आधुनिक संचार साधन इसमें बड़ी भूमिका अदा कर सकते हैं। फिजी, त्रिनिदाद अथवा मॉरीशस जैसे देशों में बसे भारतवंशी हमें किस उम्मीद से देखते हैं, इसका एक उदाहरण। पिछला विश्व हिंदी सम्मेलन दक्षिण अफ्रीका के जोहान्सबर्ग में हुआ था। वहां सभा स्थल पर एक पिता-पुत्री से सामना हुआ। वे त्रिनिदाद से आए थे।
लड़की के हाथ में अनगढ़ हिंदी में लिखा एक खत था। उसमें उन्होंने अपील की थी कि हम भी भारत मां की संतानें हैं और अपनी परंपराओं को जिंदा रखने की कोशिश कर रहे हैं। हिंदी इसमें बड़ी भूमिका अदा करती है, पर नई पीढ़ी दूर भाग रही है। भारत सरकार क्यों नहीं इस दिशा में कुछ कदम उठाती? मैं देर तक उनसे बात करता रहा। पता चला कि कभी भारतीय वहां जाकर अध्यापन किया करते थे, पर अब वे पद रिक्त पडे़ हैं। जब अमेरिका और अन्य विकसित देशों में रोजगार उपलब्ध हों और साथ ही अपने देश में तरक्की हो रही हो, तो ऐसे में भला कौन वेस्ट इंडीज के इन छोटे देशों में जाना चाहेगा? उनकी पीड़ा थी कि भारत ने भारतवंशियों को भुला दिया।
मैंने विदेश मंत्रालय के आला अधिकारियों से उनकी मुलाकात करवाई, ताकि समस्याओं का समाधान निकल सके, पर नौकरशाहों के रुख से साफ था कि ऐसे कामों में उनकी रुचि नहीं है। उनका यह रवैया समझ से परे है। एक तरफ नई दिल्ली की हुकूमत बरसों से कोशिश कर रही है कि भारत को सुरक्षा परिषद में स्थायी सीट मिल जाए और इसके लिए एक-एक वोट महत्वपूर्ण है। हिंदी की इसमें बड़ी भूमिका हो सकती है। जिन देशों में भारतीय मूल के लोग हैं, वहां वे अपनी सरकारों पर दबाव बना सकते हैं। सत्तानायकों के स्तर पर छिटपुट ऐसी कोशिशें की जाती रही हैं, परंतु निचले स्तर पर वह गंभीरता नजर नहीं आती। वे क्यों भूल जाते हैं कि सैकड़ों साल पहले जब मौजूदा सभ्यता आकार ले रही थी, तब ऋषियों और बौद्ध भिक्षुओं ने समुद्रों या पर्वतों को लांघकर भारतीयता का प्रचार-प्रसार किया।
जो बंधुआ मजदूर जबरन मॉरीशस अथवा वेस्ट इंडीज के देशों में ले जाए गए, वे भी हमारे सांस्कृतिक दूत साबित हुए।
हिंदी में खुद को जिलाए रखने की अद्भुत क्षमता है। इसका सबसे बड़ा प्रमाण फिजी से प्रकाशित होने वाला साप्ताहिक अखबार शांतिदूत है। इसकी प्रसार संख्या लगभग 13 हजार है। यही नहीं, दुनिया भर के तमाम देशों में अनेक रेडियो स्टेशन, टीवी और यू-ट्यूब चैनल हिंदी का साहित्य और सामग्री लोगों तक पहुंचाते हैं। भाषा विशेषज्ञ जयंती प्रसाद नौटियाल की माने, तो हिंदी ने चीन की मैंडेरिन को पीछे छोड़ दिया है। करीब सात अरब लोगों की इस धरती पर हर छठा आदमी हिंदी समझता है।
साफ है। हिंदी का काफिला आगे बढ़ रहा है, पर क्या उसकी गति संतोषजनक है? यकीनन नहीं। अभी तक हिंदी को बढ़ाने में हिंदीभाषियों की सर्वाधिक भूमिका रही है, न कि उन सरकारी पंडों की, जो करदाताओं के धन पर मौज मार रहे हैं। तमाम मंत्रालयों को करोड़ों रुपये हिंदी के प्रसार और बढ़ोतरी के लिए दिए जाते हैं। भोपाल में आयोजित विश्व हिंदी सम्मेलन हिंदी प्रदेशों को आंदोलित करने में नाकाम रहा, जबकि इसका मकसद समूचे ग्लोब में हिंदी के प्रति रुचि बढ़ाना है। इसकी जवाबदेही किसकी है? नई दिल्ली के सत्तानायकों के सामने एक चुनौती इस पंडागिरी के खात्मे की भी है। अगली 14 सितंबर यानी हिंदी दिवस को वह इसका संकल्प जगजाहिर करेंगे क्या?
@shekharkahin
shashi.shekhar@livehindustan.com
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बहुत ही साधारण लिखने वाला एक बहुत ही साधारण इंसान जिसने 7 वर्ष की उम्र से ही लिखना शुरू कर दिया था। वाणिज्य में स्नातक। अच्छा संगीत सुनने का शौकीन। ब्लॉगिंग में वर्ष 2010 से सक्रिय। एक अग्रणी शैक्षिक प्रकाशन में बतौर हिन्दी प्रूफ रीडर 3 वर्ष का कार्य अनुभव।
12 September 2015
हिंदी, बिंदी, चिंदी के आगे की तुक--उर्मिल कुमार थपलियाल (वरिष्ठ व्यंग्यकार एवं रंग कर्मी)
कहते हैं कि जिस तरह जातिवाद होता है, उस तरह का जातिवाद साहित्य में नहीं होता। साहित्यकारों में हो सकता है। साहित्य में दलित अब भी ढंग से परिभाषित नहीं हो पाए हैं। इसलिए कभी कहीं न छपने वाले कवि इस श्रेणी में रखे जा सकते हैं। वैसे भी साहित्य में ब्राह्मण जन्म से नहीं होते, कर्म से होते हैं। मेरे कई मित्रों को मेरी कविताएं समझ में नहीं आतीं। मेरा यह गुण मुझे बुद्धिजीवियों और ऊंचे पाए के जटिल कवियों में शामिल करता है। मुझमें और मुक्तिबोध में अगर कोई फर्क नहीं है, तो मैं क्या कर सकता हूं? इन दिनों गीत, नवगीत व छंदों में लिखने वाले कवि भाजपाई लगने लग पड़े हैं। जब देखो, हिंदी-हिंदी करते रहते हैं। ऐसे ही बहुत को भोपाल के विश्व हिंदी सम्मेलन में न्योता गया है। वे वहीं सरकारी पंगत में बैठे, न बुलाए गए अपने समकालीनों को ठेंगा दिखाकर खा-पी रहे हैं। वहां उनका एक अपना निजी विश्व है। लोकल लोग तो अपना सालाना हिंदी दिवस अगले सोमवार को ही मनाएंगे।
पिछले साल हिंदी दिवस पर मेरे एक हिंदी अध्यापक मित्र को गोष्ठी में बुलाया गया। उनमें कवि के दुर्गुण भी थे। शाम को मेरे घर आए। बोले- मित्र बोलो, कैसा लग रहा हूं। मैंने उनका मुंह सूंघा, गहरा भभका लगा। मैंने कहा- मित्र जाओ, अब तुम गोष्ठी में जाने लायक हो गए हो। उन्होंने कतई बुरा नहीं माना और रिक्शे में लदकर चल दिए। हमारी यूपी में कविता से ज्यादा रुचि पहलवानी में दिखती है। आज की कविता भी तो पाठकों के लिए एक कुश्ती है। हुंकार भरती हुई हर सभा और गोष्ठी में दुनिया को बदल डालने के प्रस्ताव रिन्यू होते रहते हैं। शायद किसी बड़े ने कहा था कि साहित्य, समाज के आगे जलती हुई मशाल है। ताजा सवाल यह है कि आज के मशालची हैं कौन-कौन। किस तुक्कड़ कवि में इतना दम है कि वह हिंदी, सिंधी, बिंदी और फिर चिंदी-चिंदी के आगे का तुक भिड़ा सके। मित्रो, अगर तुम हिंदी नहीं जानते, तो अपनी अंग्रेजी में भी अव्यक्त रहोगे। अपनी भाषा पहचानो, वरना एक दिन वह भी तुम्हें नहीं पहचान पाएगी।
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साभार-हिंदुस्तान-12/09/2015
पिछले साल हिंदी दिवस पर मेरे एक हिंदी अध्यापक मित्र को गोष्ठी में बुलाया गया। उनमें कवि के दुर्गुण भी थे। शाम को मेरे घर आए। बोले- मित्र बोलो, कैसा लग रहा हूं। मैंने उनका मुंह सूंघा, गहरा भभका लगा। मैंने कहा- मित्र जाओ, अब तुम गोष्ठी में जाने लायक हो गए हो। उन्होंने कतई बुरा नहीं माना और रिक्शे में लदकर चल दिए। हमारी यूपी में कविता से ज्यादा रुचि पहलवानी में दिखती है। आज की कविता भी तो पाठकों के लिए एक कुश्ती है। हुंकार भरती हुई हर सभा और गोष्ठी में दुनिया को बदल डालने के प्रस्ताव रिन्यू होते रहते हैं। शायद किसी बड़े ने कहा था कि साहित्य, समाज के आगे जलती हुई मशाल है। ताजा सवाल यह है कि आज के मशालची हैं कौन-कौन। किस तुक्कड़ कवि में इतना दम है कि वह हिंदी, सिंधी, बिंदी और फिर चिंदी-चिंदी के आगे का तुक भिड़ा सके। मित्रो, अगर तुम हिंदी नहीं जानते, तो अपनी अंग्रेजी में भी अव्यक्त रहोगे। अपनी भाषा पहचानो, वरना एक दिन वह भी तुम्हें नहीं पहचान पाएगी।
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साभार-हिंदुस्तान-12/09/2015
बहुत ही साधारण लिखने वाला एक बहुत ही साधारण इंसान जिसने 7 वर्ष की उम्र से ही लिखना शुरू कर दिया था। वाणिज्य में स्नातक। अच्छा संगीत सुनने का शौकीन। ब्लॉगिंग में वर्ष 2010 से सक्रिय। एक अग्रणी शैक्षिक प्रकाशन में बतौर हिन्दी प्रूफ रीडर 3 वर्ष का कार्य अनुभव।
10 September 2015
नज़दीकियाँ खतरनाक होती हैं......
कुछ जाने पहचाने
और अनजाने चेहरों के बीच
किसी अपने को
पहचानने में
अक्सर हो जाती है
छोटी बड़ी भूल
जिसका खामियाजा
आज नहीं
तो कल
देखना ही होता है
इसलिए
बेहतर है
खुद को ही
अनजान बनाए रखना
खुद को ही
दूर बनाए रखना
क्योंकि
नज़दीकियाँ
आज के जमाने में
खतरनाक होती हैं।
बहुत ही साधारण लिखने वाला एक बहुत ही साधारण इंसान जिसने 7 वर्ष की उम्र से ही लिखना शुरू कर दिया था। वाणिज्य में स्नातक। अच्छा संगीत सुनने का शौकीन। ब्लॉगिंग में वर्ष 2010 से सक्रिय। एक अग्रणी शैक्षिक प्रकाशन में बतौर हिन्दी प्रूफ रीडर 3 वर्ष का कार्य अनुभव।
05 September 2015
सुदामा शिक्षकों की जन्माष्टमी में झांकी दर्शन-ऊर्मिल कुमार थपलियाल (वरिष्ठ रंग कर्मी,एवं प्रख्यात व्यंग्यकार)
मुझे याद नहीं कि जन्माष्टमी और शिक्षक दिवस एक साथ कब पड़े थे। इस साल तो एक छुट्टी मारी गई। फर्क क्या पड़ता है? दिन में शिक्षक दिवस। रात में जन्माष्टमी। जन्माष्टमी से याद आया कि शिक्षक दिवस के दिन कोई कृष्ण-सुदामा के गुरु संदीपन को याद क्यों नहीं करता? संदीपन आश्रम एक तरह का हॉस्टल था। कृष्ण अपर क्लास के थे, और सुदामा लोअर। वहां को-एजुकेशन होती, तो राधा भी साथ पढ़ती। कृष्ण तो राजा बनकर द्वारका चले गए, लेकिन सुदामा की परंपरा बनी रही।
खासतौर पर हिंदी का टीचर आज भी विप्र सुदामा जैसा लगता है। उसकी गति क्या होती है, यह आप हिंदी दिवस के दिन देख लेना। सरकारी कृष्ण उन्हें शॉल, नारियल, गुलदस्ता और 51 रुपये नकद देकर घर लौटाएंगे। सुदामा की पत्नी खीझती रहेगी।
कभी मेरे मित्र कवि कुल्हड़ देहरादूनी ने कृष्ण के महल के आगे खड़े सुदामा का चित्रण किया था। द्वारपाल कृष्ण से कहता है कि- महाराज, बाहर एक व्यक्ति खड़ा है। कृष्ण ने पूछा- कौन है, कैसा है? द्वारपाल बोला- खिचड़ी से बाल और छितरी सी दाढ़ी है/ गंदे से कुरते पे ढीलो पजामा/ देखन में कम्युनिस्ट लगे है/ बतावत आपनो नाम सुदामा। ये तत्कालीन समकालीनता थी। कृष्ण तो बदल गए, सुदामा जस के तस। हर पुलिस लाइन में जन्माष्टमी प्रायश्चित के तौर पर मनाई जाती है। इसी दिन जेल के सिपाही ऐन वक्त पर सो गए थे, इसी कारण वासुदेव जी कृष्ण को लेकर फरार हो सके। पुलिस आज तक शर्मसार है।
लेकिन वक्त पर सो जाने का स्वभाव थोड़े ही छूटता है। अब शिक्षा की बात करें। अब तो हाल यह है कि- आधे शिक्षक बैठे अनशन/ बाकी शिक्षक करें प्रदर्शन/ हैरत में हैं राधाकृष्णन/ स्मृति है ईरानी भैया अपने मोदीजी के बूते/ टीचर जी के चरण छोड़कर/ सारे छात्र छू रहे जूते। वैसे आज विचित्र संजोग है। एक तरफ राधा-कृष्ण, दूसरी तरफ राधाकृष्णन। नवीनतम टीप का बंद तो यह है कि कल मेरे बेटे ने पूछा- पापा, अगर शीना बोरा हत्याकांड पर फिल्म बनाई जाए, तो इंद्राणी मुखर्जी के रोल में कौन फिट रहेगा? मैंने तुरंत जवाब दिया- राधे मां।
.
स्रोत:-'हिंदुस्तान' -05/09/2015
खासतौर पर हिंदी का टीचर आज भी विप्र सुदामा जैसा लगता है। उसकी गति क्या होती है, यह आप हिंदी दिवस के दिन देख लेना। सरकारी कृष्ण उन्हें शॉल, नारियल, गुलदस्ता और 51 रुपये नकद देकर घर लौटाएंगे। सुदामा की पत्नी खीझती रहेगी।
कभी मेरे मित्र कवि कुल्हड़ देहरादूनी ने कृष्ण के महल के आगे खड़े सुदामा का चित्रण किया था। द्वारपाल कृष्ण से कहता है कि- महाराज, बाहर एक व्यक्ति खड़ा है। कृष्ण ने पूछा- कौन है, कैसा है? द्वारपाल बोला- खिचड़ी से बाल और छितरी सी दाढ़ी है/ गंदे से कुरते पे ढीलो पजामा/ देखन में कम्युनिस्ट लगे है/ बतावत आपनो नाम सुदामा। ये तत्कालीन समकालीनता थी। कृष्ण तो बदल गए, सुदामा जस के तस। हर पुलिस लाइन में जन्माष्टमी प्रायश्चित के तौर पर मनाई जाती है। इसी दिन जेल के सिपाही ऐन वक्त पर सो गए थे, इसी कारण वासुदेव जी कृष्ण को लेकर फरार हो सके। पुलिस आज तक शर्मसार है।
लेकिन वक्त पर सो जाने का स्वभाव थोड़े ही छूटता है। अब शिक्षा की बात करें। अब तो हाल यह है कि- आधे शिक्षक बैठे अनशन/ बाकी शिक्षक करें प्रदर्शन/ हैरत में हैं राधाकृष्णन/ स्मृति है ईरानी भैया अपने मोदीजी के बूते/ टीचर जी के चरण छोड़कर/ सारे छात्र छू रहे जूते। वैसे आज विचित्र संजोग है। एक तरफ राधा-कृष्ण, दूसरी तरफ राधाकृष्णन। नवीनतम टीप का बंद तो यह है कि कल मेरे बेटे ने पूछा- पापा, अगर शीना बोरा हत्याकांड पर फिल्म बनाई जाए, तो इंद्राणी मुखर्जी के रोल में कौन फिट रहेगा? मैंने तुरंत जवाब दिया- राधे मां।
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स्रोत:-'हिंदुस्तान' -05/09/2015
बहुत ही साधारण लिखने वाला एक बहुत ही साधारण इंसान जिसने 7 वर्ष की उम्र से ही लिखना शुरू कर दिया था। वाणिज्य में स्नातक। अच्छा संगीत सुनने का शौकीन। ब्लॉगिंग में वर्ष 2010 से सक्रिय। एक अग्रणी शैक्षिक प्रकाशन में बतौर हिन्दी प्रूफ रीडर 3 वर्ष का कार्य अनुभव।
02 September 2015
वक़्त के कत्लखाने में -12
वक़्त के कत्लखाने में
यूं ही बैठा बैठा
यही सोचता रहता हूँ
कि आखिर
जगह जगह पसरे पड़े
कूड़े के अनगिनत ढेरों पर
पलता बढ़ता बचपन
क्या कभी पाएगा
अपना सही मुकाम ?
या बस
स्याही से रंगे पुते
कागज की
कई परतों में सिमटी
'कल्याणकारी' योजनाओं का
बनकर कोई हिस्सा
खुद को पाएगा वहीं
जहां वह पहले से था
सड़क के किसी किनारे
या ऐसे ही
वक़्त के
किसी और
कत्लखाने में।
~यशवन्त यश©
यूं ही बैठा बैठा
यही सोचता रहता हूँ
कि आखिर
जगह जगह पसरे पड़े
कूड़े के अनगिनत ढेरों पर
पलता बढ़ता बचपन
क्या कभी पाएगा
अपना सही मुकाम ?
या बस
स्याही से रंगे पुते
कागज की
कई परतों में सिमटी
'कल्याणकारी' योजनाओं का
बनकर कोई हिस्सा
खुद को पाएगा वहीं
जहां वह पहले से था
सड़क के किसी किनारे
या ऐसे ही
वक़्त के
किसी और
कत्लखाने में।
~यशवन्त यश©
बहुत ही साधारण लिखने वाला एक बहुत ही साधारण इंसान जिसने 7 वर्ष की उम्र से ही लिखना शुरू कर दिया था। वाणिज्य में स्नातक। अच्छा संगीत सुनने का शौकीन। ब्लॉगिंग में वर्ष 2010 से सक्रिय। एक अग्रणी शैक्षिक प्रकाशन में बतौर हिन्दी प्रूफ रीडर 3 वर्ष का कार्य अनुभव।
29 August 2015
ऑनलाइन रिश्ते
आभासी दुनिया के
ऑनलाइन रिश्ते
अपने भीतर
सिर्फ समेटे रहते हैं
एक आभास
कुछ होने का
जो वास्तव में
कुछ नहीं होता ।
यहाँ वहाँ बिखरे
ज्ञान विज्ञान
मनोरंजन की
बातों के बीच
छल छद्म
द्वेष स्वार्थ
और लालच
जमाए रहते हैं
कहीं गहरी पैठ
जिसका नतीजा
होते हैं
सिर्फ कुछ सिफर
जो शिखर से गिर कर
हजार टुकड़ों में बंट कर
फर्श पर
कहीं बिखरे होते हैं ।
आभासी दुनिया के
ऑनलाइन रिश्ते
कुछ ऐसे ही होते हैं।
~यशवन्त यश©
ऑनलाइन रिश्ते
अपने भीतर
सिर्फ समेटे रहते हैं
एक आभास
कुछ होने का
जो वास्तव में
कुछ नहीं होता ।
यहाँ वहाँ बिखरे
ज्ञान विज्ञान
मनोरंजन की
बातों के बीच
छल छद्म
द्वेष स्वार्थ
और लालच
जमाए रहते हैं
कहीं गहरी पैठ
जिसका नतीजा
होते हैं
सिर्फ कुछ सिफर
जो शिखर से गिर कर
हजार टुकड़ों में बंट कर
फर्श पर
कहीं बिखरे होते हैं ।
आभासी दुनिया के
ऑनलाइन रिश्ते
कुछ ऐसे ही होते हैं।
~यशवन्त यश©
बहुत ही साधारण लिखने वाला एक बहुत ही साधारण इंसान जिसने 7 वर्ष की उम्र से ही लिखना शुरू कर दिया था। वाणिज्य में स्नातक। अच्छा संगीत सुनने का शौकीन। ब्लॉगिंग में वर्ष 2010 से सक्रिय। एक अग्रणी शैक्षिक प्रकाशन में बतौर हिन्दी प्रूफ रीडर 3 वर्ष का कार्य अनुभव।
18 August 2015
गुसलखाने में भजन और वीराने में कोयलिया कूक-अशोक सण्ड
भले ही एक चर्चित फिल्म में अपराधी के मोबाइल पर यकायक बज उठी रिंगटोन से दबंग पुलिस अफसर झूमने लगा था, उस दिन रियल लाइफ में मल्टीप्लेक्स के वाशरूम में (लघु) शंका के निवारण के समय निकट खड़े साथी के मोबाइल से जब लताजी के कंठ से एक पवित्र मंत्र सुनाई पड़ा, तो शांत हो गई नाड़ी। असमय ध्वनित रिंगटोन से पड़ोसी भी असहज दिखे। कान से जनेऊ उतारने के बाद भाईजान के सॉरी कहने पर अपने सफेद बालों की आड़ लेते हुए हमने कहा- भइये, जिस हालत में आप खुद मौन साध लेते हो, उसमें इस 'बेजुबान' को भी सायलेंट मोड में डाल दिया होता। पसंदीदा गीत के मुखड़े, मंत्रोच्चार और शास्त्रीय आवाजों को रिंगटोन में कैद करना सांगीतिक अनुराग नहीं, बल्कि एक सनक है। नित नई कॉलर ट्यून, अक्सर बदलती रिंगटोन। वैसे, पहली बार रिंगटोन की विविधता से अपना परिचय श्मशान में ही हुआ। हरियाली विहीन स्थान पर अचानक कोयल की कूक सुन मैं इधर-उधर निहारने लगा था कि निकट बैठे 'गमगीन' भाई साहब ने जेब से मोबाइल फोन निकालकर मुस्कराते हुए सूचित किया यह 'रिंगटोन' थी।
ग्राहम बेल ने जब फोन का ईजाद किया होगा, तब उसने यह कल्पना भी न की होगी कि कालांतर में इसकी नस्लें स्लिम-ट्रिम होने के साथ-साथ कैमरा, कंप्यूटर, संगीत, चिट्ठी-पत्री सब कुछ ठूंस लेंगी अपने अंदर। बेस फोन तो बेचारा अब घर बैठे बुजुर्गों की तरह एक ही सुर में ट्रिन-ट्रिनाता (भुनभुनाता) रहता है। रिंगटोन्स का संगीत बस उतनी देर के लिए परोसा जाता है, जब तक कि हरा बटन दबाना है या माचिस की तीली माफिक उंगली को स्क्रीन पर रगड़ना है। बाकी सब तो ठीक है, मगर दुख की खबर साझा करने पर नगाड़ा-नगाड़ा बजा की कॉलर ट्यून उस दुख का उपहास ही उड़ाती है। संगीत की इस सनक ने जिस दिन 'डोरबेल' पर दस्तक दे दी, तब दरवाजे पर अलाप लगेगी तेरे द्वार खड़ा भाईजान... क्या पता, कविता के शौकीन हाई पिच पर गुहार लगाते मिलें, अबे सुन बे नवाब...आगे-आगे देखिए होता है क्या?
.
साभार-'हिंदुस्तान'-18/08/2015
ग्राहम बेल ने जब फोन का ईजाद किया होगा, तब उसने यह कल्पना भी न की होगी कि कालांतर में इसकी नस्लें स्लिम-ट्रिम होने के साथ-साथ कैमरा, कंप्यूटर, संगीत, चिट्ठी-पत्री सब कुछ ठूंस लेंगी अपने अंदर। बेस फोन तो बेचारा अब घर बैठे बुजुर्गों की तरह एक ही सुर में ट्रिन-ट्रिनाता (भुनभुनाता) रहता है। रिंगटोन्स का संगीत बस उतनी देर के लिए परोसा जाता है, जब तक कि हरा बटन दबाना है या माचिस की तीली माफिक उंगली को स्क्रीन पर रगड़ना है। बाकी सब तो ठीक है, मगर दुख की खबर साझा करने पर नगाड़ा-नगाड़ा बजा की कॉलर ट्यून उस दुख का उपहास ही उड़ाती है। संगीत की इस सनक ने जिस दिन 'डोरबेल' पर दस्तक दे दी, तब दरवाजे पर अलाप लगेगी तेरे द्वार खड़ा भाईजान... क्या पता, कविता के शौकीन हाई पिच पर गुहार लगाते मिलें, अबे सुन बे नवाब...आगे-आगे देखिए होता है क्या?
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साभार-'हिंदुस्तान'-18/08/2015
बहुत ही साधारण लिखने वाला एक बहुत ही साधारण इंसान जिसने 7 वर्ष की उम्र से ही लिखना शुरू कर दिया था। वाणिज्य में स्नातक। अच्छा संगीत सुनने का शौकीन। ब्लॉगिंग में वर्ष 2010 से सक्रिय। एक अग्रणी शैक्षिक प्रकाशन में बतौर हिन्दी प्रूफ रीडर 3 वर्ष का कार्य अनुभव।
15 August 2015
कुछ लोग-27
(1)
कुछ लोग
समझते हैं
आज़ादी का
सही मतलब
और आनंद लेते हैं
हर पल का
कभी
कूड़े के ऊंचे ढेरों में
तलाशते हैं
दो वक़्त की रोटी
और अपना भविष्य
कभी फुटपाथों पर
फटेहाल भी
मुस्कुराते हुए
निभाते हैं
खुले आसमान
और ज़मीन से
अपना रिश्ता ।
(2)
कुछ लोग
समझते हैं
आज़ादी को
अपने घर की खेती
जिनका उद्देश्य
कायरों की तरह
छुप कर
करना होता है वार
दूसरों पर
कभी ज़ुबानों से
कभी तीरों से
हर चूकते निशाने को
समझते हैं
अपनी वीरता का दम
हर उल्टे वार से बेखबर
आज़ादी के भ्रम में
धँसते जाते हैं
दलदलों में
कुछ लोग
बहुत समझदारी से
दिखाते हैं खुद को
नासमझ
आज़ादी से।
~यशवन्त यश©
कुछ लोग
समझते हैं
आज़ादी का
सही मतलब
और आनंद लेते हैं
हर पल का
कभी
कूड़े के ऊंचे ढेरों में
तलाशते हैं
दो वक़्त की रोटी
और अपना भविष्य
कभी फुटपाथों पर
फटेहाल भी
मुस्कुराते हुए
निभाते हैं
खुले आसमान
और ज़मीन से
अपना रिश्ता ।
(2)
कुछ लोग
समझते हैं
आज़ादी को
अपने घर की खेती
जिनका उद्देश्य
कायरों की तरह
छुप कर
करना होता है वार
दूसरों पर
कभी ज़ुबानों से
कभी तीरों से
हर चूकते निशाने को
समझते हैं
अपनी वीरता का दम
हर उल्टे वार से बेखबर
आज़ादी के भ्रम में
धँसते जाते हैं
दलदलों में
कुछ लोग
बहुत समझदारी से
दिखाते हैं खुद को
नासमझ
आज़ादी से।
~यशवन्त यश©
बहुत ही साधारण लिखने वाला एक बहुत ही साधारण इंसान जिसने 7 वर्ष की उम्र से ही लिखना शुरू कर दिया था। वाणिज्य में स्नातक। अच्छा संगीत सुनने का शौकीन। ब्लॉगिंग में वर्ष 2010 से सक्रिय। एक अग्रणी शैक्षिक प्रकाशन में बतौर हिन्दी प्रूफ रीडर 3 वर्ष का कार्य अनुभव।
13 August 2015
यूं ही चलते चलते
यूं ही चलते चलते
कभी कदम
थम जाते हैं
थोड़ा सुस्ताते हैं
और फिर
चलने लग जाते हैं
उसी पूरी रफ्तार से
कई सुबहों
और
कई शामों की
परिक्रमा लगाते लगाते
फिर एक दिन
जब सोते हैं
तब जागते हैं
किसी नये चोले के भीतर
किसी और
अलग सी दुनिया में
यूं ही चलते चलते।
~यशवन्त यश©
कभी कदम
थम जाते हैं
थोड़ा सुस्ताते हैं
और फिर
चलने लग जाते हैं
उसी पूरी रफ्तार से
कई सुबहों
और
कई शामों की
परिक्रमा लगाते लगाते
फिर एक दिन
जब सोते हैं
तब जागते हैं
किसी नये चोले के भीतर
किसी और
अलग सी दुनिया में
यूं ही चलते चलते।
~यशवन्त यश©
बहुत ही साधारण लिखने वाला एक बहुत ही साधारण इंसान जिसने 7 वर्ष की उम्र से ही लिखना शुरू कर दिया था। वाणिज्य में स्नातक। अच्छा संगीत सुनने का शौकीन। ब्लॉगिंग में वर्ष 2010 से सक्रिय। एक अग्रणी शैक्षिक प्रकाशन में बतौर हिन्दी प्रूफ रीडर 3 वर्ष का कार्य अनुभव।
08 August 2015
बेवकूफ़ हम ही थे.......
वह एक ही हैं
वह एक ही थे,
सबसे बड़े बेवकूफ़
हम ही थे।
शक तो पहले भी था
अब तो सबूत भी है
बात पहले से
और मजबूत भी है ।
यह भी अच्छा हुआ
कि राहें अलग हो चलीं
फिर भी हलचलों का
अब तक वजूद भी है ।
हमें हारा समझना
उनकी ना समझ है
भीतर के कालों की
थोड़ी ऊपरी चमक है ।
वह अब भी वही हैं
वह तब भी वही थे
सफ़ेद पर्दों के भीतर
स्याह चेहरे वही थे ।
वह एक ही थे,
सबसे बड़े बेवकूफ़
हम ही थे।
शक तो पहले भी था
अब तो सबूत भी है
बात पहले से
और मजबूत भी है ।
यह भी अच्छा हुआ
कि राहें अलग हो चलीं
फिर भी हलचलों का
अब तक वजूद भी है ।
हमें हारा समझना
उनकी ना समझ है
भीतर के कालों की
थोड़ी ऊपरी चमक है ।
वह अब भी वही हैं
वह तब भी वही थे
सफ़ेद पर्दों के भीतर
स्याह चेहरे वही थे ।
थी गलती हमारी
उन्हें अपना समझने की
मतलब के 'रिश्तों' से
अनजान हम ही थे।
~यशवन्त यश©
बहुत ही साधारण लिखने वाला एक बहुत ही साधारण इंसान जिसने 7 वर्ष की उम्र से ही लिखना शुरू कर दिया था। वाणिज्य में स्नातक। अच्छा संगीत सुनने का शौकीन। ब्लॉगिंग में वर्ष 2010 से सक्रिय। एक अग्रणी शैक्षिक प्रकाशन में बतौर हिन्दी प्रूफ रीडर 3 वर्ष का कार्य अनुभव।
कुछ लोग -26
वर्णांधता से ग्रस्त
कुछ पढे लिखे
स्थापित लोग
नहीं कर पाते अंतर
व्यंग्य,कविता,
कहानी और लेख में
निकालते हैं मीन मेख
सत्यता को
बिना देखे
बिना परखे
नाचते हैं
दूसरों की
कठपुतली
बन कर
और अंततः
अपने भीतर की
ईर्ष्या की
आग में झुलस कर
खुद ही हो जाते हैं भस्म
ऐसे ही कुछ लोग।
~यशवन्त यश©
कुछ पढे लिखे
स्थापित लोग
नहीं कर पाते अंतर
व्यंग्य,कविता,
कहानी और लेख में
निकालते हैं मीन मेख
सत्यता को
बिना देखे
बिना परखे
नाचते हैं
दूसरों की
कठपुतली
बन कर
और अंततः
अपने भीतर की
ईर्ष्या की
आग में झुलस कर
खुद ही हो जाते हैं भस्म
ऐसे ही कुछ लोग।
~यशवन्त यश©
बहुत ही साधारण लिखने वाला एक बहुत ही साधारण इंसान जिसने 7 वर्ष की उम्र से ही लिखना शुरू कर दिया था। वाणिज्य में स्नातक। अच्छा संगीत सुनने का शौकीन। ब्लॉगिंग में वर्ष 2010 से सक्रिय। एक अग्रणी शैक्षिक प्रकाशन में बतौर हिन्दी प्रूफ रीडर 3 वर्ष का कार्य अनुभव।
06 August 2015
कुछ चीज़ें नहीं होतीं आसान
कुछ चीज़ें
जितनी आसान लगती हैं
होती हैं
कहीं ज़्यादा कठिन
फिर भी हम
पड़े रहते हैं
उनके पीछे
कभी दबंगई
डर या दहशत
दिखा कर
कभी
चुगलखोरी
चापलूसी
या तारीफ़ों के
पुल बांध कर
हम करना चाहते हैं
हर पल को
अपने वश में .....
सब कुछ जान कर भी
बने रहते हैं
अनजान
कि कुछ चीज़ें
नहीं होतीं
उतनी आसान।
~यशवन्त यश©
जितनी आसान लगती हैं
होती हैं
कहीं ज़्यादा कठिन
फिर भी हम
पड़े रहते हैं
उनके पीछे
कभी दबंगई
डर या दहशत
दिखा कर
कभी
चुगलखोरी
चापलूसी
या तारीफ़ों के
पुल बांध कर
हम करना चाहते हैं
हर पल को
अपने वश में .....
सब कुछ जान कर भी
बने रहते हैं
अनजान
कि कुछ चीज़ें
नहीं होतीं
उतनी आसान।
~यशवन्त यश©
बहुत ही साधारण लिखने वाला एक बहुत ही साधारण इंसान जिसने 7 वर्ष की उम्र से ही लिखना शुरू कर दिया था। वाणिज्य में स्नातक। अच्छा संगीत सुनने का शौकीन। ब्लॉगिंग में वर्ष 2010 से सक्रिय। एक अग्रणी शैक्षिक प्रकाशन में बतौर हिन्दी प्रूफ रीडर 3 वर्ष का कार्य अनुभव।
04 August 2015
कुछ लोग -25
कुछ लोग
पा लेते हैं
सब कुछ
अपने कर्म
और
अपने भाग्य से
वहीं
कुछ लोग
करते रहते हैं
इंतज़ार
किस्मत के
दरवाजे खुलने का
यूं ही
बैठे बैठे
दस्तक देते देते
खुल जाता है
साँसों का दरवाजा
और आँखें
बंद हो जाती हैं
सदा के लिये
कुछ लोगों की।
~यशवन्त यश©
पा लेते हैं
सब कुछ
अपने कर्म
और
अपने भाग्य से
वहीं
कुछ लोग
करते रहते हैं
इंतज़ार
किस्मत के
दरवाजे खुलने का
यूं ही
बैठे बैठे
दस्तक देते देते
खुल जाता है
साँसों का दरवाजा
और आँखें
बंद हो जाती हैं
सदा के लिये
कुछ लोगों की।
~यशवन्त यश©
बहुत ही साधारण लिखने वाला एक बहुत ही साधारण इंसान जिसने 7 वर्ष की उम्र से ही लिखना शुरू कर दिया था। वाणिज्य में स्नातक। अच्छा संगीत सुनने का शौकीन। ब्लॉगिंग में वर्ष 2010 से सक्रिय। एक अग्रणी शैक्षिक प्रकाशन में बतौर हिन्दी प्रूफ रीडर 3 वर्ष का कार्य अनुभव।
03 August 2015
साहित्य के संसार में मेरा योगदान -सुधीश पचौरी, हिंदी साहित्यकार
'योगदान' हिंदी का वह महादान है, जिसे लेखक द्वारा या तो किया जा चुका है
अथवा वह कर रहा होता है या करने वाला होता है। साहित्य और योगदान का अंतरंग
संबंध है। साहित्यकार जो करता है, वह उसका 'योगदान' कहलाता है। वह जो कुछ
कर चुका है, कर रहा है या करेगा, वह उसका योगदान ही होगा और जिसे उसका या
तो 'अभूतपूर्व योगदान' कहा जाएगा या फिर 'अतुलनीय योगदान' अथवा 'अप्रतिम
योगदान।' योगदान जब भी, जिसके द्वारा भी किया जाता है, हमेशा
'विनम्रतापूर्वक' ही किया जाता है। 'विनम्रता' हिंदी साहित्यकार की वह
मुद्रा है, जिसमें वह हमेशा हाथ जोड़े यानी करबद्ध होकर चेहरे पर
'अनुनय-विनय' के भाव के साथ 'सविनय निवेदन' करता हुआ 'नैवेद्य' अर्पित करता
हुआ पाया जाता है। कहा भी जाता है कि 'त्वदीयंवस्तु गोविंदम् तुभ्यमेव
समर्पये' यानी 'हे गोविंद! (यानी जनता) ये तेरा माल तुझी को मुबारक!' यानी
'जो कुछ मुझे दिया है, वो लौटा रहा हूं मैं (मय ब्याज के)।' कहने की जरूरत
नहीं कि साहित्यकार वह योगी है, जो अपने लिए कुछ नहीं करता और न अपने पास
कुछ रखता है, बल्कि सब कुछ दान कर देता है और वह भी विनम्र भाव से। ऐसा
विनम्र योगदान हिंदी के अखिल भारतीय शोध छात्रों के लिए पीएचडी का पॉपुलर
विषय यानी 'टॉपिक' कहलाता है। योगदान हमेशा विपुल होता है और इसीलिए पीएचडी
भी विपुलाकार होती है। 50 साल के योगदान को समेटना कोई हंसी-ठट्ठा नहीं।
जो पीएचडी वीर इसे पांच-सात सौ पेजों में समेटने की कला दिखा देता है, वह आचार्य पद को प्राप्त करता है। जैसे ही किसी ने ऐसे योगदान पर एक भी पीएचडी की या कराई, देखते-देखते देश भर में उस पर सौ-पचास पीएचडी हुई समझिए। यही हिंदी का 'एकोहं बहुस्याम:' यानी बहुलतावादी भाव है। योगदान और पीएचडी के बीच 'अन्योन्याश्रय' संबंध कहा जाता है। जो पीएचडी लायक न हुआ, उसका योगदान क्या? पीएचडियां उसी पर हुई हैं, जिसने साहित्य को विनम्र-फिनम्र स्टाइल में कुछ दिया होता है। जिस दानी पर पीएचडी हुई, वह जीते जी स्वर्ग में कलोनी काटता है और जिस पर न हो सकी, वह सीधे प्रेतयोनि को प्राप्त होता है। उसकी अभिशप्त आत्मा एक ठो पीएचडी के लिए तरसती है और जिस-तिस पर मुकदमे करती रहती है। आप उसके योगदान पर एक पीएचडी करवा दीजिए- कोटि-कोटि योनियों में अटकती-भटकती- लटकती आत्मा अपना केस वापस ले लेगी। ऐसा हुआ है और ऐसा ही होता है। यह सवाल शुद्ध साहित्येतर कोटि का घटिया सवाल ही कहा जा सकता है कि कोई पूछे कि किसने कितना योगदान किया है और किस तरह से किया? आप यह तो पूछ सकते हैं कि योगदान किस युग वाला है? लेकिन यह पूछना कि 'क्यों और किस तरह किया है?' शुद्ध बदतमीजी मानी जाएगी। यह दानी का अपमान है। योगदान करने वाला योगदान करता है। पीएचडी करने वाला पीएचडी। आपको क्या? आज के कंजूस युग में जब प्यासे को फ्री में दो चुल्लू पानी तक कोई नहीं पिलाता, तब एक बंदा विनम्रतापूर्ण योगदान किए जा रहा है और दूसरा उसके दुर्लभ योगदान को ढूंढ़ निकाल रहा है और उतनी ही विनम्रतापूर्वक पीएचडी कर डाल रहा है, तब 'क्यों' टाइप सवाल कोई अति कमीना दिमाग ही कर सकता है। हे ईश्वर! उसे क्षमा कर, वह नहीं जानता कि क्या पूछ रहा है? हे पाठक! दूसरों के योगदान को योगदान बताना ही अपना योगदान है।
साभार-हिंदुस्तान-03/08/2015
जो पीएचडी वीर इसे पांच-सात सौ पेजों में समेटने की कला दिखा देता है, वह आचार्य पद को प्राप्त करता है। जैसे ही किसी ने ऐसे योगदान पर एक भी पीएचडी की या कराई, देखते-देखते देश भर में उस पर सौ-पचास पीएचडी हुई समझिए। यही हिंदी का 'एकोहं बहुस्याम:' यानी बहुलतावादी भाव है। योगदान और पीएचडी के बीच 'अन्योन्याश्रय' संबंध कहा जाता है। जो पीएचडी लायक न हुआ, उसका योगदान क्या? पीएचडियां उसी पर हुई हैं, जिसने साहित्य को विनम्र-फिनम्र स्टाइल में कुछ दिया होता है। जिस दानी पर पीएचडी हुई, वह जीते जी स्वर्ग में कलोनी काटता है और जिस पर न हो सकी, वह सीधे प्रेतयोनि को प्राप्त होता है। उसकी अभिशप्त आत्मा एक ठो पीएचडी के लिए तरसती है और जिस-तिस पर मुकदमे करती रहती है। आप उसके योगदान पर एक पीएचडी करवा दीजिए- कोटि-कोटि योनियों में अटकती-भटकती- लटकती आत्मा अपना केस वापस ले लेगी। ऐसा हुआ है और ऐसा ही होता है। यह सवाल शुद्ध साहित्येतर कोटि का घटिया सवाल ही कहा जा सकता है कि कोई पूछे कि किसने कितना योगदान किया है और किस तरह से किया? आप यह तो पूछ सकते हैं कि योगदान किस युग वाला है? लेकिन यह पूछना कि 'क्यों और किस तरह किया है?' शुद्ध बदतमीजी मानी जाएगी। यह दानी का अपमान है। योगदान करने वाला योगदान करता है। पीएचडी करने वाला पीएचडी। आपको क्या? आज के कंजूस युग में जब प्यासे को फ्री में दो चुल्लू पानी तक कोई नहीं पिलाता, तब एक बंदा विनम्रतापूर्ण योगदान किए जा रहा है और दूसरा उसके दुर्लभ योगदान को ढूंढ़ निकाल रहा है और उतनी ही विनम्रतापूर्वक पीएचडी कर डाल रहा है, तब 'क्यों' टाइप सवाल कोई अति कमीना दिमाग ही कर सकता है। हे ईश्वर! उसे क्षमा कर, वह नहीं जानता कि क्या पूछ रहा है? हे पाठक! दूसरों के योगदान को योगदान बताना ही अपना योगदान है।
साभार-हिंदुस्तान-03/08/2015
बहुत ही साधारण लिखने वाला एक बहुत ही साधारण इंसान जिसने 7 वर्ष की उम्र से ही लिखना शुरू कर दिया था। वाणिज्य में स्नातक। अच्छा संगीत सुनने का शौकीन। ब्लॉगिंग में वर्ष 2010 से सक्रिय। एक अग्रणी शैक्षिक प्रकाशन में बतौर हिन्दी प्रूफ रीडर 3 वर्ष का कार्य अनुभव।
01 August 2015
कुछ रिश्ते ........
कुछ
रिश्ते
अनचाहे ही
ढोए जाते हैं
गधे की पीठ पर लदे
बोझे की तरह
अपनी सुस्त चाल
चलते जाते हैं
और आखिरकार
पटक दिये जाते हैं
किसी घाट पर
धो-पोछ कर
सुखा कर
फिर से झेलने को
या
कर दिये जाते हैं
प्रवाहित
हमेशा के लिए
मुक्त हो जाने को।
~यशवन्त यश©
रिश्ते
अनचाहे ही
ढोए जाते हैं
गधे की पीठ पर लदे
बोझे की तरह
अपनी सुस्त चाल
चलते जाते हैं
और आखिरकार
पटक दिये जाते हैं
किसी घाट पर
धो-पोछ कर
सुखा कर
फिर से झेलने को
या
कर दिये जाते हैं
प्रवाहित
हमेशा के लिए
मुक्त हो जाने को।
~यशवन्त यश©
बहुत ही साधारण लिखने वाला एक बहुत ही साधारण इंसान जिसने 7 वर्ष की उम्र से ही लिखना शुरू कर दिया था। वाणिज्य में स्नातक। अच्छा संगीत सुनने का शौकीन। ब्लॉगिंग में वर्ष 2010 से सक्रिय। एक अग्रणी शैक्षिक प्रकाशन में बतौर हिन्दी प्रूफ रीडर 3 वर्ष का कार्य अनुभव।
31 July 2015
अंधेर / प्रेमचंद ( प्रेमचंद जी की जयंती पर विशेष)
1
नागपंचमी आई। साठे के जिन्दादिल नौजवानों ने रंग-बिरंगे जांघिये बनवाये। अखाड़े में ढोल की मर्दाना सदायें गूँजने लगीं। आसपास के पहलवान इकट्ठे हुए और अखाड़े पर तम्बोलियों ने अपनी दुकानें सजायीं क्योंकि आज कुश्ती और दोस्ताना मुकाबले का दिन है। औरतों ने गोबर से अपने आँगन लीपे और गाती-बजाती कटोरों में दूध-चावल लिए नाग पूजने चलीं।
साठे और पाठे दो लगे हुए मौजे थे। दोनों गंगा के किनारे। खेती में ज्यादा मशक्कत नहीं करनी पड़ती थी इसीलिए आपस में फौजदारियाँ खूब होती थीं। आदिकाल से उनके बीच होड़ चली आती थी। साठेवालों को यह घमण्ड था कि उन्होंने पाठेवालों को कभी सिर न उठाने दिया। उसी तरह पाठेवाले अपने प्रतिद्वंद्वियों को नीचा दिखलाना ही जिन्दगी का सबसे बड़ा काम समझते थे। उनका इतिहास विजयों की कहानियों से भरा हुआ था। पाठे के चरवाहे यह गीत गाते हुए चलते थे:
साठेवाले कायर सगरे पाठेवाले हैं सरदार
और साठे के धोबी गाते:
साठेवाले साठ हाथ के जिनके हाथ सदा तरवार
उन लोगन के जनम नसाये जिन पाठे मान लीन अवतार
गरज आपसी होड़ का यह जोश बच्चों में माँ दूध के साथ दाखिल होता था और उसके प्रदर्शन का सबसे अच्छा और ऐतिहासिक मौका यही नागपंचमी का दिन था। इस दिन के लिए साल भर तैयारियाँ होती रहती थीं। आज उनमें मार्के की कुश्ती होने वाली थी। साठे को गोपाल पर नाज था, पाठे को बलदेव का गर्रा। दोनों सूरमा अपने-अपने फरीक की दुआएँ और आरजुएँ लिए हुए अखाड़े में उतरे। तमाशाइयों पर चुम्बक का-सा असर हुआ। मौजें के चौकीदारों ने लट्ठ और डण्डों का यह जमघट देखा और मर्दों की अंगारे की तरह लाल आँखें तो पिछले अनुभव के आधार पर बेपता हो गये। इधर अखाड़े में दांव-पेंच होते रहे। बलदेव उलझता था, गोपाल पैंतरे बदलता था। उसे अपनी ताकत का जोम था, इसे अपने करतब का भरोसा। कुछ देर तक अखाड़े से ताल ठोंकने की आवाजें आती रहीं, तब यकायक बहुत-से आदमी खुशी के नारे मार-मार उछलने लगे, कपड़े और बर्तन और पैसे और बताशे लुटाये जाने लगे। किसी ने अपना पुराना साफा फेंका, किसी ने अपनी बोसीदा टोपी हवा में उड़ा दी साठे के मनचले जवान अखाड़े में पिल पड़े। और गोपाल को गोद में उठा लाये। बलदेव और उसके साथियों ने गोपाल को लहू की आँखों से देखा और दाँत पीसकर रह गये।
२
दस बजे रात का वक्त और सावन का महीना। आसमान पर काली घटाएँ छाई थीं। अंधेरे का यह हाल था कि जैसे रोशनी का अस्तित्व ही नहीं रहा। कभी-कभी बिजली चमकती थी मगर अँधेरे को और ज्यादा अंधेरा करने के लिए। मेंढकों की आवाजें जिन्दगी का पता देती थीं वर्ना और चारों तरफ मौत थी। खामोश, डरावने और गम्भीर साठे के झोंपड़े और मकान इस अंधेरे में बहुत गौर से देखने पर काली-काली भेड़ों की तरह नजर आते थे। न बच्चे रोते थे, न औरतें गाती थीं। पावित्रात्मा बुड्ढे राम नाम न जपते थे।
मगर आबादी से बहुत दूर कई पुरशोर नालों और ढाक के जंगलों से गुजरकर ज्वार और बाजरे के खेत थे और उनकी मेंड़ों पर साठे के किसान जगह-जगह मड़ैया ड़ाले खेतों की रखवाली कर रहे थे। तले जमीन, ऊपर अंधेरा, मीलों तक सन्नाटा छाया हुआ। कहीं जंगली सुअरों के गोल, कहीं नीलगायों के रेवड़, चिलम के सिवा कोई साथी नहीं, आग के सिवा कोई मददगार नहीं। जरा खटका हुआ और चौंके पड़े। अंधेरा भय का दूसरा नाम है, जब मिट्टी का एक ढेर, एक ठूँठा पेड़ और घास का ढेर भी जानदार चीजें बन जाती हैं। अंधेरा उनमें जान ड़ाल देता है। लेकिन यह मजबूत हाथोंवाले, मजबूत जिगरवाले, मजबूत इरादे वाले किसान हैं कि यह सब सख्तियाँ झेलते हैं ताकि अपने ज्यादा भाग्यशाली भाइयों के लिए भोग-विलास के सामान तैयार करें। इन्हीं रखवालों में आज का हीरो, साठे का गौरव गोपाल भी है जो अपनी मड़ैया में बैठा हुआ है और नींद को भगाने के लिए धीमें सुरों में यह गीत गा रहा है:
मैं तो तोसे नैना लगाय पछतायी रे
अचाकन उसे किसी के पाँव की आहट मालूम हुई। जैसे हिरन कुत्तों की आवाजों को कान लगाकर सुनता है उसी तरह गोपाल ने भी कान लगाकर सुना। नींद की अंघाई दूर हो गई। लट्ठ कंधे पर रक्खा और मड़ैया से बाहर निकल आया। चारों तरफ कालिमा छाई हुई थी और हलकी-हलकी बूंदें पड़ रही थीं। वह बाहर निकला ही था कि उसके सर पर लाठी का भरपूर हाथ पड़ा। वह त्योराकर गिरा और रात भर वहीं बेसुध पड़ा रहा। मालूम नहीं उस पर कितनी चोटें पड़ीं। हमला करनेवालों ने तो अपनी समझ में उसका काम तमाम कर ड़ाला। लेकिन जिन्दगी बाकी थी। यह पाठे के गैरतमन्द लोग थे जिन्होंने अंधेरे की आड़ में अपनी हार का बदला लिया था।
३
गोपाल जाति का अहीर था, न पढ़ा न लिखा, बिलकुल अक्खड़। दिमाग रौशन ही नहीं हुआ तो शरीर का दीपक क्यों घुलता। पूरे छ: फुट का कद, गठा हुआ बदन, ललकान कर गाता तो सुननेवाले मील भर पर बैठे हुए उसकी तानों का मजा लेते। गाने-बजाने का आशिक, होली के दिनों में महीने भर तक गाता, सावन में मल्हार और भजन तो रोज का शगल था। निड़र ऐसा कि भूत और पिशाच के अस्तित्व पर उसे विद्वानों जैसे संदेह थे। लेकिन जिस तरह शेर और चीते भी लाल लपटों से डरते हैं उसी तरह लाल पगड़ी से उसकी रूह असाधारण बात थी लेकिन उसका कुछ बस न था। सिपाही की वह डरावनी तस्वीर जो बचपन में उसके दिल पर खींची गई थी, पत्थर की लकीर बन गई थी। शरारतें गयीं, बचपन गया, मिठाई की भूख गई लेकिन सिपाही की तस्वीर अभी तक कायम थी। आज उसके दरवाजे पर लाल पगड़ीवालों की एक फौज जमा थी लेकिन गोपाल जख्मों से चूर, दर्द से बेचैन होने पर भी अपने मकान के अंधेरे कोने में छिपा हुआ बैठा था। नम्बरदार और मुखिया, पटवारी और चौकीदार रोब खाये हुए ढंग से खड़े दारोगा की खुशामद कर रहे थे। कहीं अहीर की फरियाद सुनाई देती थी, कहीं मोदी रोना-धोना, कहीं तेली की चीख-पुकार, कहीं कमाई की आँखों से लहू जारी। कलवार खड़ा अपनी किस्मत को रो रहा था। फोहश और गन्दी बातों की गर्मबाजारी थी। दारोगा जी निहायत कारगुजार अफसर थे, गालियों में बात करते थे। सुबह को चारपाई से उठते ही गालियों का वजीफा पढ़ते थे। मेहतर ने आकर फरियाद की-हुजूर, अण्डे नहीं हैं, दारोगाजी हण्टर लेकर दौड़े और उस गरीब का भुरकुस निकाल दिया। सारे गाँव में हलचल पड़ी हुई थी। कांसिटेबल और चौकीदार रास्तों पर यों अकड़ते चलते थे गोया अपनी ससुराल में आये हैं। जब गाँव के सारे आदमी आ गये तो वारदात हुई और इस कम्बख्त गोपाल ने रपट तक न की।
मुखिया साहब बेंत की तरह कांपते हुए बोले--हुजूर, अब माफी दी जाय।
दारोगाजी ने गजबनाक निगाहों से उसकी तरफ देखकर कहा--यह इसकी शरारत है। दुनिया जानती है कि जुर्म को छुपाना जुर्म करने के बराबर है। मैं इस बदकाश को इसका मजा चखा दूँगा। वह अपनी ताकत के जोम में भूला हुआ है, और कोई बात नहीं। लातों के भूत बातों से नहीं मानते।
मुखिया साहब ने सिर झुकाकर कहा--हुजूर, अब माफी दी जाय।
दारोगाजी की त्योरियाँ चढ़ गयीं और झुंझलाकर बोले--अरे हजूर के बच्चे, कुछ सठिया तो नहीं गया है। अगर इसी तरह माफी देनी होती तो मुझे क्या कुत्ते ने काटा था कि यहाँ तक दौड़ा आता। न कोई मामला, न ममाले की बात, बस माफी की रट लगा रक्खी है। मुझे ज्यादा फुरसत नहीं है। नमाज पढ़ता हूँ, तब तक तुम अपना सलाह मशविरा कर लो और मुझे हँसी-खुशी रुखसत करो वर्ना गौसखाँ को जानते हो, उसका मारा पानी भी नही मांगता!
दारोगा तकवे व तहारत के बड़े पाबन्द थे पाँचों वक्त की नमाज पढ़ते और तीसों रोजे रखते, ईदों में धूमधाम से कुर्बानियाँ होतीं। इससे अच्छा आचरण किसी आदमी में और क्या हो सकता है!
४
मुखिया साहब दबे पाँव गुपचुप ढंग से गौरा के पास और बोले--यह दारोगा बड़ा काफिर है, पचास से नीचे तो बात ही नहीं करता। अब्बल दर्जे का थानेदार है। मैंने बहुत कहा, हुजूर, गरीब आदमी है, घर में कुछ सुभीता नहीं, मगर वह एक नहीं सुनता।
गौरा ने घूँघट में मुँह छिपाकर कहा--दादा, उनकी जान बच जाए, कोई तरह की आंच न आने पाए, रूपये-पैसे की कौन बात है, इसी दिन के लिए तो कमाया जाता है।
गोपाल खाट पर पड़ा सब बातें सुन रहा था। अब उससे न रहा गया। लकड़ी गांठ ही पर टूटती है। जो गुनाह किया नहीं गया वह दबता है मगर कुचला नहीं जा सकता। वह जोश से उठ बैठा और बोला--पचास रुपये की कौन कहे, मैं पचास कौड़ियाँ भी न दूँगा। कोई गदर है, मैंने कसूर क्या किया है?
मुखिया का चेहरा फक हो गया। बड़प्पन के स्वर में बोले-धीरे बोलो, कहीं सुन ले तो गजब हो जाए।
लेकिन गोपाल बिफरा हुआ था, अकड़कर बोला--मैं एक कौड़ी भी न दूँगा। देखें कौन मेरे फांसी लगा देता है।
गौरा ने बहलाने के स्वर में कहा--अच्छा, जब मैं तुमसे रूपये मांगूँ तो मत देना। यह कहकर गौरा ने, जो इस वक्त लौड़ी के बजाय रानी बनी हुई थी, छप्पर के एक कोने में से रुपयों की एक पोटली निकाली और मुखिया के हाथ में रख दी। गोपाल दांत पीसकर उठा, लेकिन मुखिया साहब फौरन से पहले सरक गये। दारोगा जी ने गोपाल की बातें सुन ली थीं और दुआ कर रहे थे कि ऐ खुदा, इस मरदूद के दिल को पलट। इतने में मुखिया ने बाहर आकर पचीस रूपये की पोटली दिखाई। पचीस रास्ते ही में गायब हो गये थे। दारोगा जी ने खुदा का शुक्र किया। दुआ सुनी गयी। रुपया जेब में रक्खा और रसद पहुँचाने वालों की भीड़ को रोते और बिलबिलाते छोड़कर हवा हो गये। मोदी का गला घुंट गया। कसाई के गले पर छुरी फिर गयी। तेली पिस गया। मुखिया साहब ने गोपाल की गर्दन पर एहसान रक्खा गोया रसद के दाम गिरह से दिए। गाँव में सुर्खरू हो गया, प्रतिष्ठा बढ़ गई। इधर गोपाल ने गौरा की खूब खबर ली। गाँव में रात भर यही चर्चा रही। गोपाल बहुत बचा और इसका सेहरा मुखिया के सिर था। बड़ी विपत्ति आई थी। वह टल गयी। पितरों ने, दीवान हरदौल ने, नीम तलेवाली देवी ने, तालाब के किनारे वाली सती ने, गोपाल की रक्षा की। यह उन्हीं का प्रताप था। देवी की पूजा होनी जरूरी थी। सत्यनारायण की कथा भी लाजिमी हो गयी।
५
फिर सुबह हुई लेकिन गोपाल के दरवाजे पर आज लाल पगड़ियों के बजाय लाल साड़ियों का जमघट था। गौरा आज देवी की पूजा करने जाती थी और गाँव की औरतें उसका साथ देने आई थीं। उसका घर सोंधी-सोंधी मिट्टी की खुशबू से महक रहा था जो खस और गुलाब से कम मोहक न थी। औरतें सुहाने गीत गा रही थीं। बच्चे खुश हो-होकर दौड़ते थे। देवी के चबूतरे पर उसने मिटटी का हाथी चढ़ाया। सती की मांग में सेंदुर डाला। दीवान साहब को बताशे और हलुआ खिलाया। हनुमान जी को लड्डू से ज्यादा प्रेम है, उन्हें लड्डू चढ़ाये तब गाती बजाती घर को आयी और सत्यनारायण की कथा की तैयारियाँ होने लगीं । मालिन फूल के हार, केले की शाखें और बन्दनवारें लायीं। कुम्हार नये-नये दिये और हांडियाँ दे गया। बारी हरे ढाक के पत्तल और दोने रख गया। कहार ने आकर मटकों में पानी भरा। बढ़ई ने आकर गोपाल और गौरा के लिए दो नयी-नयी पीढ़ियाँ बनायीं। नाइन ने आंगन लीपा और चौक बनायी। दरवाजे पर बन्दनवारें बँध गयीं। आंगन में केले की शाखें गड़ गयीं। पण्डित जी के लिए सिंहासन सज गया। आपस के कामों की व्यवस्था खुद-ब-खुद अपने निश्चित दायरे पर चलने लगी । यही व्यवस्था संस्कृति है जिसने देहात की जिन्दगी को आडम्बर की ओर से उदासीन बना रक्खा है । लेकिन अफसोस है कि अब ऊँच-नीच की बेमतलब और बेहूदा कैदों ने इन आपसी कर्तव्यों को सौहार्द्र सहयोग के पद से हटा कर उन पर अपमान और नीचता का दाग लगा दिया है।
शाम हुई। पण्डित मोटेरामजी ने कन्धे पर झोली डाली, हाथ में शंख लिया और खड़ाऊँ पर खटपट करते गोपाल के घर आ पहुँचे। आंगन में टाट बिछा हुआ था। गाँव के प्रतिष्ठित लोग कथा सुनने के लिए आ बैठे। घण्टी बजी, शंख फुंका गया और कथा शुरू हुईं। गोपाल भी गाढ़े की चादर ओढ़े एक कोने में फूंका गया और कथा शुरू हुई। गोपाल भी गाढ़े की चादर ओढ़े एक कोने में दीवार के सहारे बैठा हुआ था। मुखिया, नम्बरदार और पटवारी ने मारे हमदर्दी के उससे कहा—सत्यनारायण क महिमा थी कि तुम पर कोई आंच न आई।
गोपाल ने अँगड़ाई लेकर कहा—सत्यनारायण की महिमा नहीं, यह अंधेर है।
--जमाना, जुलाई १९१३
साभार-गद्य कोश
नागपंचमी आई। साठे के जिन्दादिल नौजवानों ने रंग-बिरंगे जांघिये बनवाये। अखाड़े में ढोल की मर्दाना सदायें गूँजने लगीं। आसपास के पहलवान इकट्ठे हुए और अखाड़े पर तम्बोलियों ने अपनी दुकानें सजायीं क्योंकि आज कुश्ती और दोस्ताना मुकाबले का दिन है। औरतों ने गोबर से अपने आँगन लीपे और गाती-बजाती कटोरों में दूध-चावल लिए नाग पूजने चलीं।
साठे और पाठे दो लगे हुए मौजे थे। दोनों गंगा के किनारे। खेती में ज्यादा मशक्कत नहीं करनी पड़ती थी इसीलिए आपस में फौजदारियाँ खूब होती थीं। आदिकाल से उनके बीच होड़ चली आती थी। साठेवालों को यह घमण्ड था कि उन्होंने पाठेवालों को कभी सिर न उठाने दिया। उसी तरह पाठेवाले अपने प्रतिद्वंद्वियों को नीचा दिखलाना ही जिन्दगी का सबसे बड़ा काम समझते थे। उनका इतिहास विजयों की कहानियों से भरा हुआ था। पाठे के चरवाहे यह गीत गाते हुए चलते थे:
साठेवाले कायर सगरे पाठेवाले हैं सरदार
और साठे के धोबी गाते:
साठेवाले साठ हाथ के जिनके हाथ सदा तरवार
उन लोगन के जनम नसाये जिन पाठे मान लीन अवतार
गरज आपसी होड़ का यह जोश बच्चों में माँ दूध के साथ दाखिल होता था और उसके प्रदर्शन का सबसे अच्छा और ऐतिहासिक मौका यही नागपंचमी का दिन था। इस दिन के लिए साल भर तैयारियाँ होती रहती थीं। आज उनमें मार्के की कुश्ती होने वाली थी। साठे को गोपाल पर नाज था, पाठे को बलदेव का गर्रा। दोनों सूरमा अपने-अपने फरीक की दुआएँ और आरजुएँ लिए हुए अखाड़े में उतरे। तमाशाइयों पर चुम्बक का-सा असर हुआ। मौजें के चौकीदारों ने लट्ठ और डण्डों का यह जमघट देखा और मर्दों की अंगारे की तरह लाल आँखें तो पिछले अनुभव के आधार पर बेपता हो गये। इधर अखाड़े में दांव-पेंच होते रहे। बलदेव उलझता था, गोपाल पैंतरे बदलता था। उसे अपनी ताकत का जोम था, इसे अपने करतब का भरोसा। कुछ देर तक अखाड़े से ताल ठोंकने की आवाजें आती रहीं, तब यकायक बहुत-से आदमी खुशी के नारे मार-मार उछलने लगे, कपड़े और बर्तन और पैसे और बताशे लुटाये जाने लगे। किसी ने अपना पुराना साफा फेंका, किसी ने अपनी बोसीदा टोपी हवा में उड़ा दी साठे के मनचले जवान अखाड़े में पिल पड़े। और गोपाल को गोद में उठा लाये। बलदेव और उसके साथियों ने गोपाल को लहू की आँखों से देखा और दाँत पीसकर रह गये।
२
दस बजे रात का वक्त और सावन का महीना। आसमान पर काली घटाएँ छाई थीं। अंधेरे का यह हाल था कि जैसे रोशनी का अस्तित्व ही नहीं रहा। कभी-कभी बिजली चमकती थी मगर अँधेरे को और ज्यादा अंधेरा करने के लिए। मेंढकों की आवाजें जिन्दगी का पता देती थीं वर्ना और चारों तरफ मौत थी। खामोश, डरावने और गम्भीर साठे के झोंपड़े और मकान इस अंधेरे में बहुत गौर से देखने पर काली-काली भेड़ों की तरह नजर आते थे। न बच्चे रोते थे, न औरतें गाती थीं। पावित्रात्मा बुड्ढे राम नाम न जपते थे।
मगर आबादी से बहुत दूर कई पुरशोर नालों और ढाक के जंगलों से गुजरकर ज्वार और बाजरे के खेत थे और उनकी मेंड़ों पर साठे के किसान जगह-जगह मड़ैया ड़ाले खेतों की रखवाली कर रहे थे। तले जमीन, ऊपर अंधेरा, मीलों तक सन्नाटा छाया हुआ। कहीं जंगली सुअरों के गोल, कहीं नीलगायों के रेवड़, चिलम के सिवा कोई साथी नहीं, आग के सिवा कोई मददगार नहीं। जरा खटका हुआ और चौंके पड़े। अंधेरा भय का दूसरा नाम है, जब मिट्टी का एक ढेर, एक ठूँठा पेड़ और घास का ढेर भी जानदार चीजें बन जाती हैं। अंधेरा उनमें जान ड़ाल देता है। लेकिन यह मजबूत हाथोंवाले, मजबूत जिगरवाले, मजबूत इरादे वाले किसान हैं कि यह सब सख्तियाँ झेलते हैं ताकि अपने ज्यादा भाग्यशाली भाइयों के लिए भोग-विलास के सामान तैयार करें। इन्हीं रखवालों में आज का हीरो, साठे का गौरव गोपाल भी है जो अपनी मड़ैया में बैठा हुआ है और नींद को भगाने के लिए धीमें सुरों में यह गीत गा रहा है:
मैं तो तोसे नैना लगाय पछतायी रे
अचाकन उसे किसी के पाँव की आहट मालूम हुई। जैसे हिरन कुत्तों की आवाजों को कान लगाकर सुनता है उसी तरह गोपाल ने भी कान लगाकर सुना। नींद की अंघाई दूर हो गई। लट्ठ कंधे पर रक्खा और मड़ैया से बाहर निकल आया। चारों तरफ कालिमा छाई हुई थी और हलकी-हलकी बूंदें पड़ रही थीं। वह बाहर निकला ही था कि उसके सर पर लाठी का भरपूर हाथ पड़ा। वह त्योराकर गिरा और रात भर वहीं बेसुध पड़ा रहा। मालूम नहीं उस पर कितनी चोटें पड़ीं। हमला करनेवालों ने तो अपनी समझ में उसका काम तमाम कर ड़ाला। लेकिन जिन्दगी बाकी थी। यह पाठे के गैरतमन्द लोग थे जिन्होंने अंधेरे की आड़ में अपनी हार का बदला लिया था।
३
गोपाल जाति का अहीर था, न पढ़ा न लिखा, बिलकुल अक्खड़। दिमाग रौशन ही नहीं हुआ तो शरीर का दीपक क्यों घुलता। पूरे छ: फुट का कद, गठा हुआ बदन, ललकान कर गाता तो सुननेवाले मील भर पर बैठे हुए उसकी तानों का मजा लेते। गाने-बजाने का आशिक, होली के दिनों में महीने भर तक गाता, सावन में मल्हार और भजन तो रोज का शगल था। निड़र ऐसा कि भूत और पिशाच के अस्तित्व पर उसे विद्वानों जैसे संदेह थे। लेकिन जिस तरह शेर और चीते भी लाल लपटों से डरते हैं उसी तरह लाल पगड़ी से उसकी रूह असाधारण बात थी लेकिन उसका कुछ बस न था। सिपाही की वह डरावनी तस्वीर जो बचपन में उसके दिल पर खींची गई थी, पत्थर की लकीर बन गई थी। शरारतें गयीं, बचपन गया, मिठाई की भूख गई लेकिन सिपाही की तस्वीर अभी तक कायम थी। आज उसके दरवाजे पर लाल पगड़ीवालों की एक फौज जमा थी लेकिन गोपाल जख्मों से चूर, दर्द से बेचैन होने पर भी अपने मकान के अंधेरे कोने में छिपा हुआ बैठा था। नम्बरदार और मुखिया, पटवारी और चौकीदार रोब खाये हुए ढंग से खड़े दारोगा की खुशामद कर रहे थे। कहीं अहीर की फरियाद सुनाई देती थी, कहीं मोदी रोना-धोना, कहीं तेली की चीख-पुकार, कहीं कमाई की आँखों से लहू जारी। कलवार खड़ा अपनी किस्मत को रो रहा था। फोहश और गन्दी बातों की गर्मबाजारी थी। दारोगा जी निहायत कारगुजार अफसर थे, गालियों में बात करते थे। सुबह को चारपाई से उठते ही गालियों का वजीफा पढ़ते थे। मेहतर ने आकर फरियाद की-हुजूर, अण्डे नहीं हैं, दारोगाजी हण्टर लेकर दौड़े और उस गरीब का भुरकुस निकाल दिया। सारे गाँव में हलचल पड़ी हुई थी। कांसिटेबल और चौकीदार रास्तों पर यों अकड़ते चलते थे गोया अपनी ससुराल में आये हैं। जब गाँव के सारे आदमी आ गये तो वारदात हुई और इस कम्बख्त गोपाल ने रपट तक न की।
मुखिया साहब बेंत की तरह कांपते हुए बोले--हुजूर, अब माफी दी जाय।
दारोगाजी ने गजबनाक निगाहों से उसकी तरफ देखकर कहा--यह इसकी शरारत है। दुनिया जानती है कि जुर्म को छुपाना जुर्म करने के बराबर है। मैं इस बदकाश को इसका मजा चखा दूँगा। वह अपनी ताकत के जोम में भूला हुआ है, और कोई बात नहीं। लातों के भूत बातों से नहीं मानते।
मुखिया साहब ने सिर झुकाकर कहा--हुजूर, अब माफी दी जाय।
दारोगाजी की त्योरियाँ चढ़ गयीं और झुंझलाकर बोले--अरे हजूर के बच्चे, कुछ सठिया तो नहीं गया है। अगर इसी तरह माफी देनी होती तो मुझे क्या कुत्ते ने काटा था कि यहाँ तक दौड़ा आता। न कोई मामला, न ममाले की बात, बस माफी की रट लगा रक्खी है। मुझे ज्यादा फुरसत नहीं है। नमाज पढ़ता हूँ, तब तक तुम अपना सलाह मशविरा कर लो और मुझे हँसी-खुशी रुखसत करो वर्ना गौसखाँ को जानते हो, उसका मारा पानी भी नही मांगता!
दारोगा तकवे व तहारत के बड़े पाबन्द थे पाँचों वक्त की नमाज पढ़ते और तीसों रोजे रखते, ईदों में धूमधाम से कुर्बानियाँ होतीं। इससे अच्छा आचरण किसी आदमी में और क्या हो सकता है!
४
मुखिया साहब दबे पाँव गुपचुप ढंग से गौरा के पास और बोले--यह दारोगा बड़ा काफिर है, पचास से नीचे तो बात ही नहीं करता। अब्बल दर्जे का थानेदार है। मैंने बहुत कहा, हुजूर, गरीब आदमी है, घर में कुछ सुभीता नहीं, मगर वह एक नहीं सुनता।
गौरा ने घूँघट में मुँह छिपाकर कहा--दादा, उनकी जान बच जाए, कोई तरह की आंच न आने पाए, रूपये-पैसे की कौन बात है, इसी दिन के लिए तो कमाया जाता है।
गोपाल खाट पर पड़ा सब बातें सुन रहा था। अब उससे न रहा गया। लकड़ी गांठ ही पर टूटती है। जो गुनाह किया नहीं गया वह दबता है मगर कुचला नहीं जा सकता। वह जोश से उठ बैठा और बोला--पचास रुपये की कौन कहे, मैं पचास कौड़ियाँ भी न दूँगा। कोई गदर है, मैंने कसूर क्या किया है?
मुखिया का चेहरा फक हो गया। बड़प्पन के स्वर में बोले-धीरे बोलो, कहीं सुन ले तो गजब हो जाए।
लेकिन गोपाल बिफरा हुआ था, अकड़कर बोला--मैं एक कौड़ी भी न दूँगा। देखें कौन मेरे फांसी लगा देता है।
गौरा ने बहलाने के स्वर में कहा--अच्छा, जब मैं तुमसे रूपये मांगूँ तो मत देना। यह कहकर गौरा ने, जो इस वक्त लौड़ी के बजाय रानी बनी हुई थी, छप्पर के एक कोने में से रुपयों की एक पोटली निकाली और मुखिया के हाथ में रख दी। गोपाल दांत पीसकर उठा, लेकिन मुखिया साहब फौरन से पहले सरक गये। दारोगा जी ने गोपाल की बातें सुन ली थीं और दुआ कर रहे थे कि ऐ खुदा, इस मरदूद के दिल को पलट। इतने में मुखिया ने बाहर आकर पचीस रूपये की पोटली दिखाई। पचीस रास्ते ही में गायब हो गये थे। दारोगा जी ने खुदा का शुक्र किया। दुआ सुनी गयी। रुपया जेब में रक्खा और रसद पहुँचाने वालों की भीड़ को रोते और बिलबिलाते छोड़कर हवा हो गये। मोदी का गला घुंट गया। कसाई के गले पर छुरी फिर गयी। तेली पिस गया। मुखिया साहब ने गोपाल की गर्दन पर एहसान रक्खा गोया रसद के दाम गिरह से दिए। गाँव में सुर्खरू हो गया, प्रतिष्ठा बढ़ गई। इधर गोपाल ने गौरा की खूब खबर ली। गाँव में रात भर यही चर्चा रही। गोपाल बहुत बचा और इसका सेहरा मुखिया के सिर था। बड़ी विपत्ति आई थी। वह टल गयी। पितरों ने, दीवान हरदौल ने, नीम तलेवाली देवी ने, तालाब के किनारे वाली सती ने, गोपाल की रक्षा की। यह उन्हीं का प्रताप था। देवी की पूजा होनी जरूरी थी। सत्यनारायण की कथा भी लाजिमी हो गयी।
५
फिर सुबह हुई लेकिन गोपाल के दरवाजे पर आज लाल पगड़ियों के बजाय लाल साड़ियों का जमघट था। गौरा आज देवी की पूजा करने जाती थी और गाँव की औरतें उसका साथ देने आई थीं। उसका घर सोंधी-सोंधी मिट्टी की खुशबू से महक रहा था जो खस और गुलाब से कम मोहक न थी। औरतें सुहाने गीत गा रही थीं। बच्चे खुश हो-होकर दौड़ते थे। देवी के चबूतरे पर उसने मिटटी का हाथी चढ़ाया। सती की मांग में सेंदुर डाला। दीवान साहब को बताशे और हलुआ खिलाया। हनुमान जी को लड्डू से ज्यादा प्रेम है, उन्हें लड्डू चढ़ाये तब गाती बजाती घर को आयी और सत्यनारायण की कथा की तैयारियाँ होने लगीं । मालिन फूल के हार, केले की शाखें और बन्दनवारें लायीं। कुम्हार नये-नये दिये और हांडियाँ दे गया। बारी हरे ढाक के पत्तल और दोने रख गया। कहार ने आकर मटकों में पानी भरा। बढ़ई ने आकर गोपाल और गौरा के लिए दो नयी-नयी पीढ़ियाँ बनायीं। नाइन ने आंगन लीपा और चौक बनायी। दरवाजे पर बन्दनवारें बँध गयीं। आंगन में केले की शाखें गड़ गयीं। पण्डित जी के लिए सिंहासन सज गया। आपस के कामों की व्यवस्था खुद-ब-खुद अपने निश्चित दायरे पर चलने लगी । यही व्यवस्था संस्कृति है जिसने देहात की जिन्दगी को आडम्बर की ओर से उदासीन बना रक्खा है । लेकिन अफसोस है कि अब ऊँच-नीच की बेमतलब और बेहूदा कैदों ने इन आपसी कर्तव्यों को सौहार्द्र सहयोग के पद से हटा कर उन पर अपमान और नीचता का दाग लगा दिया है।
शाम हुई। पण्डित मोटेरामजी ने कन्धे पर झोली डाली, हाथ में शंख लिया और खड़ाऊँ पर खटपट करते गोपाल के घर आ पहुँचे। आंगन में टाट बिछा हुआ था। गाँव के प्रतिष्ठित लोग कथा सुनने के लिए आ बैठे। घण्टी बजी, शंख फुंका गया और कथा शुरू हुईं। गोपाल भी गाढ़े की चादर ओढ़े एक कोने में फूंका गया और कथा शुरू हुई। गोपाल भी गाढ़े की चादर ओढ़े एक कोने में दीवार के सहारे बैठा हुआ था। मुखिया, नम्बरदार और पटवारी ने मारे हमदर्दी के उससे कहा—सत्यनारायण क महिमा थी कि तुम पर कोई आंच न आई।
गोपाल ने अँगड़ाई लेकर कहा—सत्यनारायण की महिमा नहीं, यह अंधेर है।
--जमाना, जुलाई १९१३
साभार-गद्य कोश
बहुत ही साधारण लिखने वाला एक बहुत ही साधारण इंसान जिसने 7 वर्ष की उम्र से ही लिखना शुरू कर दिया था। वाणिज्य में स्नातक। अच्छा संगीत सुनने का शौकीन। ब्लॉगिंग में वर्ष 2010 से सक्रिय। एक अग्रणी शैक्षिक प्रकाशन में बतौर हिन्दी प्रूफ रीडर 3 वर्ष का कार्य अनुभव।
30 July 2015
खामोशी ......
इस शोर में भी
कहीं सुनाई देती है
अजीब सी
खामोशी
जो अनकहे ही
कह देती है
बहुत कुछ
जो कहीं छुपा सा है
इस भीड़ में
कहीं दबा सा है
आ जाता है
सामने
जब खामोशी
खोल देती है
अपनी जुबां
बहते सैलाब के साथ।
~यशवन्त यश©
कहीं सुनाई देती है
अजीब सी
खामोशी
जो अनकहे ही
कह देती है
बहुत कुछ
जो कहीं छुपा सा है
इस भीड़ में
कहीं दबा सा है
आ जाता है
सामने
जब खामोशी
खोल देती है
अपनी जुबां
बहते सैलाब के साथ।
~यशवन्त यश©
बहुत ही साधारण लिखने वाला एक बहुत ही साधारण इंसान जिसने 7 वर्ष की उम्र से ही लिखना शुरू कर दिया था। वाणिज्य में स्नातक। अच्छा संगीत सुनने का शौकीन। ब्लॉगिंग में वर्ष 2010 से सक्रिय। एक अग्रणी शैक्षिक प्रकाशन में बतौर हिन्दी प्रूफ रीडर 3 वर्ष का कार्य अनुभव।
26 July 2015
विजय .......
विजय
किसी लड़ाई में
ताकतवर की ही नहीं होती
विजय
किसी दंगल में
बलशाली की ही नहीं होती
विजय
बंदूकों -तलवारों
और तोपों से ही नहीं होती
विजय
स्वाभिमान-आत्मविश्वास
और मन की स्थिरता से होती है
विजय
दृढ़ निश्चय-संकल्प
और खुद की प्रतिष्ठा से होती है
विजय
खुद की आहुति
और सच्ची निष्ठा से होती है।
~यशवन्त यश©
किसी लड़ाई में
ताकतवर की ही नहीं होती
विजय
किसी दंगल में
बलशाली की ही नहीं होती
विजय
बंदूकों -तलवारों
और तोपों से ही नहीं होती
विजय
स्वाभिमान-आत्मविश्वास
और मन की स्थिरता से होती है
विजय
दृढ़ निश्चय-संकल्प
और खुद की प्रतिष्ठा से होती है
विजय
खुद की आहुति
और सच्ची निष्ठा से होती है।
~यशवन्त यश©
बहुत ही साधारण लिखने वाला एक बहुत ही साधारण इंसान जिसने 7 वर्ष की उम्र से ही लिखना शुरू कर दिया था। वाणिज्य में स्नातक। अच्छा संगीत सुनने का शौकीन। ब्लॉगिंग में वर्ष 2010 से सक्रिय। एक अग्रणी शैक्षिक प्रकाशन में बतौर हिन्दी प्रूफ रीडर 3 वर्ष का कार्य अनुभव।
25 July 2015
जब नहीं होता कुछ नया कहने के लिए
जब नहीं होता
कुछ नया कहने के लिए
तब हम देखने लगते हैं
पुरानी
बीत चुकी बातों को
फिर से एक बार
खोजने लगते हैं
उन्हीं में से
कुछ नया
अपने मतलब का
और पिरो लेते हैं
एक माला
कई पुरानी बातों के
कुछ हिस्सों को मिला कर
बना देते हैं
कुछ नया सा
जब नहीं होता अपने पास
कुछ कहने के लिए।
~यशवन्त यश©
कुछ नया कहने के लिए
तब हम देखने लगते हैं
पुरानी
बीत चुकी बातों को
फिर से एक बार
खोजने लगते हैं
उन्हीं में से
कुछ नया
अपने मतलब का
और पिरो लेते हैं
एक माला
कई पुरानी बातों के
कुछ हिस्सों को मिला कर
बना देते हैं
कुछ नया सा
जब नहीं होता अपने पास
कुछ कहने के लिए।
~यशवन्त यश©
बहुत ही साधारण लिखने वाला एक बहुत ही साधारण इंसान जिसने 7 वर्ष की उम्र से ही लिखना शुरू कर दिया था। वाणिज्य में स्नातक। अच्छा संगीत सुनने का शौकीन। ब्लॉगिंग में वर्ष 2010 से सक्रिय। एक अग्रणी शैक्षिक प्रकाशन में बतौर हिन्दी प्रूफ रीडर 3 वर्ष का कार्य अनुभव।
23 July 2015
सितारों से आगे की उलझन - हरजिंदर, हेड-थॉट, हिन्दुस्तान
वैज्ञानिकों की सोच के भी दौर चलते हैं। कुछ वैसे ही, जैसे सभ्य समाजों में फैशन के चलते हैं। आज जो आमतौर पर सोचा जा रहा है, कल भी वैसे ही सोचा जाएगा, यह जरूरी नहीं है। अभी कुछ दशक पहले की ही बात करें, तो ज्यादातर वैज्ञानिक यह मानकर चलते थे कि जीवन अगर कहीं है, तो धरती पर ही है। इस सोच के पीछे यह धारणा थी कि हमारे ग्रह पर जो जीवन है, वह अतीत की तमाम रासायनिक दुर्घटनाओं का परिणाम है। यह एक लंबी और जटिल प्रक्रिया से उपजा है। जो रासायनिक दुर्घटनाएं और जटिल प्रक्रियाएं इस धरती पर हुई हैं, वैसी ही दुनिया में कहीं और भी हुई हों, इसकी संभावना लगभग नहीं है। एक सर्वेक्षण हुआ था, जिसमें पाया गया था कि ज्यादातर वैज्ञानिक यह नहीं मानते कि ब्रह्मांड में कहीं और भी जीवन होगा। हालांकि मामला उनके मानने या न मानने का नहीं था, अनंत आकाश रहस्यमय चमक के लिए तरह-तरह की कल्पनाएं बुनना हमारी पुरानी फितरत रही है। इस फितरत ने न सिर्फ कल्पना और कथा लोक को बुना है, बल्कि यह हमारे धर्मों और पुराणशास्त्र का भी हिस्सा रहा है। लेकिन वैज्ञानिक इससे ज्यादा आगे नहीं सोचते थे। अमेरिकी स्पेस एजेंसी नासा के वैज्ञानिक डेविड मोरिसन यहां तक कहते थे कि दूसरे ग्रह के वासी सिर्फ कल्पना का नतीजा हैं, और कुछ नहीं।
इसलिए, अभी तीन माह पहले ही नासा के प्रमुख वैज्ञानिक एलेन स्टेफने ने जब यह दावा किया कि वैज्ञानिक अगले दस साल में दूसरे ग्रह के वासियों यानी एलियन को ढूंढ़ निकालेंगे, तो हर किसी को हैरत हुई थी। लेकिन अब ऐसा लगता है कि वैज्ञानिक समुदाय के ज्यादातर लोग एलियन के अस्तित्व पर नहीं, तो उसकी संभावनाओं पर जरूर यकीन करने लगे हैं। दिलचस्प यह है कि इसमें संभावनाएं सिर्फ वैज्ञानिकों को नहीं, उद्योगपतियों को भी नजर आने लगी हैं। बात सिर्फ इतनी ही नहीं है, वैज्ञानिकों और उद्योगपतियों ने मिलकर एलियन को खोजने के लिए करोड़ों डॉलर की एक परियोजना भी शुरू कर दी है, जिसमें एक तरफ प्रख्यात वैज्ञानिक स्टीफन हॉकिंग शामिल हैं, तो दूसरी तरफ रूसी अरबपति यूरी मिलनर। सारे तर्क अब अचानक ही बदल गए हैं। अब कहा जा रहा है कि ब्रह्मांड में चार अरब से ज्यादा ग्रह-उपग्रह मौजूद हैं, जिनमें लगभग चार करोड़ तो ऐसे हैं ही, जहां जीवन लायक स्थितियां हो सकती हैं। और हो सकता है कि इनमें से किसी में कुछ जीवाणु, कुछ कीटाणु या किसी और तरह के जीव-जंतु सांसें ले रहे हों। फिर वह कल्पना तो खैर है ही कि हो सकता है कि हम किसी ऐसी दुनिया को भी खोज लें, जहां के लोग हमसे ज्यादा बुद्धिमान हों, या हमसे ज्यादा खतरनाक हों। या हो सकता है कि कहीं ऐसी सभ्यता भी हो, जो हमसे कहीं ज्यादा विकसित हो, और आज हम जिन समस्याओं में सिर खपा रहे हैं, उनके हल वह बहुत पहले ही तलाश चुकी हो।
शायद इस सोच के बदलने के पीछे एक कारण और भी है। धरती के भविष्य को लेकर आशंकाएं बढ़ती जा रही हैं। ज्यादातर वैज्ञानिक मानते हैं कि लगातार गरम होती धरती ग्लोबल वार्मिंग की ओर बढ़ती जा रही है, कुछ थोड़े-से ऐसे भी हैं, जो मानते हैं कि धरती पर हिमयुग भी वापस आ सकता है। जो भी हो, अगर पर्यावरण बदला, तो धरती का मौसम उतना सुहाना तो नहीं ही रहेगा, जितना सुहाना वह अब है। हो सकता है कि वह रहने लायक ही न रहे। स्टीफन हॉकिंग मानते हैं कि ऐसे में मानव जाति को बचाने का एक ही तरीका होगा कि आपात स्थितियों में हम सब किसी उस ग्रह पर जाकर बस जाएं, जहां के हालात हमारे अनुकूल हों। इसलिए अभी से ऐसे ग्रहों की खोज बहुत जरूरी है। जाहिर है, यह अपनी पूरी दुनिया को, यानी अपने शहर, अपने घर, अपने स्कूल, अपने उद्योग दूसरी जगह बसाने का मामला है, इसलिए इसमें उद्योगपतियों की दिलचस्पी को भी समझा जा सकता है।
ये उद्योगपति क्या सोच रहे हैं, यह तो पता नहीं है, लेकिन वैज्ञानिक कम-से-कम इतना तो जानते ही हैं कि यह काम आसान भी नहीं है। पूरे ब्रह्मांड के हिसाब से देखें, तो हमारे सौर्य मंडल का लाल ग्रह, यानी मंगल धरती से बहुत दूर भी नहीं है, लेकिन मंगल पर जीवन है या नहीं, इसे समझने के लिए हम कई दशक से जुटे हैं, लेकिन अभी तक कुछ भी जान नहीं सके। हर बार जितना जान पाते हैं, पहेली उससे ज्यादा उलझ जाती है। यह बात अलग है कि जितना ज्ञान अभी तक है, उसके आधार पर ही वहां लोगों को ले जाने की शटल सेवा चलाने, प्लॉट काटकर बेचने और बस्ती बसाने का धंधा कुछ लोगों ने जरूर शुरू कर दिया है। इन सबसे अलग यह एक लंबा और कठिन काम है, इसके लिए निरंतर भगीरथ प्रयत्न और बड़े निवेश की जरूरत है। जीवन को खोजने में हम सफल हो पाते हैं या नहीं यह एक अलग बात है, लेकिन इस कोशिश से हम अपने ब्रह्मांड को और खुद अपने आप को ज्यादा बेहतर ढंग से समझ सकेंगे। और शायद उन कुछ पहेलियों को भी सुलझा लें, जो अक्सर हमें परेशान करती रहती हैं। लेकिन एक सवाल इस खोज से भी ज्यादा बड़ा है। हो सकता है कि हम सचमुच एलियन को खोज लें, या हो सकता है कि हम अंतिम रूप से इस नतीजे पर पहुंच जाएं कि इस धरती के अलावा कहीं और जीवन नहीं है।
ऐसे में, उस कल्पना लोक, उस कथा लोक, उन सांस्कृतिक मिथकों का क्या होगा, जिनको मानव ने अपनी सभ्यता की अभी तक की यात्रा में बुना और गुना है? क्या ऐसी एक खोज सब कुछ खत्म कर देगी? हमारे कल्पना लोक, हमारे पुराण शास्त्र भी मानवीय प्रयासों के उतने ही महत्वपूर्ण परिणाम हैं, जितना कि हमारा विज्ञान। शायद यह आशंका सही नहीं है, क्योंकि विज्ञान का अभी तक का अनुभव तो यही बताता है कि कोई भी सच जब सामने आता है, तो अपने साथ शक और शुबहों की बहुत सारी नई गंुजाइश भी लाता है। हर बार नए उजागर हुए सच से विज्ञान को खड़े होने का नया आधार जरूर मिलता है, पर इसके साथ ही हमारे कल्पना लोक को उड़ान भरने का एक नया आसमान भी मिलता है।
सच के साथ ही जुड़ा हुआ एक सच यह भी है कि सच से अक्सर तुरंत ही सोच बदलती नहीं है, बस हर तरह की सोच आगे बढ़ती है। यह जरूर है कि धीरे-धीरे बहुत-सी सोच और धारणाएं लुप्त होने लगती हैं, धारणाओं की दुनिया में प्रगति ऐसे ही होती है। कोई एलियन इसे रातोंरात नहीं बदल सकता।
साभार-'हिंदुस्तान' 22/07/2015
बहुत ही साधारण लिखने वाला एक बहुत ही साधारण इंसान जिसने 7 वर्ष की उम्र से ही लिखना शुरू कर दिया था। वाणिज्य में स्नातक। अच्छा संगीत सुनने का शौकीन। ब्लॉगिंग में वर्ष 2010 से सक्रिय। एक अग्रणी शैक्षिक प्रकाशन में बतौर हिन्दी प्रूफ रीडर 3 वर्ष का कार्य अनुभव।
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