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25 May 2017

टाई वाला मजदूर......

एक्ज़िक्यूटिव क्लास
टाई वाला मजदूर
अपने गले में
आई कार्ड का पट्टा लटकाए
कान में हेडफोन
और 'कॉन कॉल' का
शोर सुनते हुए
'लाइन' पर रह कर
'एक्सक्यूजेज़' देते हुए
भटकता फिरता है
दर बदर
भारी भरकम
और कभी कभी
एवरेस्ट से भी ऊंचे
टारगेट के
चरम
या उसके आस-पास
कहीं पहुँचने को।

वह दिन भर
मौसम के हर रूप
शहर के हर मोड़
और गली को
गूगल के नक्शे पर
नापते हुए
अपनी कुंठा
और खिन्नता को
छुपाते हुए
अपने चेहरे की
कृत्रिम मुस्कुराहट
और ऊर्जा से
कोशिश करता है
ए सी की ठंडक में
लक्ज़री चेयर पर बैठे
अपने 'क्लाइंट'   
या 'बॉस' को
लुभाने की
और बदले में
कुछ पाने की।

एक्ज़िक्यूटिव क्लास
टाई वाला मजदूर
'बेलदार' तो नहीं
पर उससे
कम भी नहीं होता
यह बात अलग है
कि वह ईंट और गारा
नहीं ढोता।
वह ढोता है–
अपने दिमाग में
बहुमुखी अपेक्षाओं
आशंकाओं की
ईंटों के चट्टे ...
अपने
अनोखे 'लक्ष्यों'
और उन्हें पाने की
जुगाड़ों के
कई नायाब तरीके।

वह
करता रहता है
हर संभव कोशिशें
नौकरी को
'सेफ' रखने की
'इन्सेंटिव' नहीं
तो 'सिर्फ 'सैलरी' से
जीने की
क्योंकि उसके घर में
उसके साथ
कुछ लोग
गुज़र करते हैं
एक छोटी सी रसोई में
बने
दाल-भात
सब्जी और अचार की
थोड़ी सी
खुराक से।

-यश©
25/मई/2017


20 May 2017

दक्षिण की एक फिल्म से क्यों थर्रा गया बॉलीवुड-सुनील मिश्र, फिल्म समीक्षक

हिंदुस्तान-19/मई/2017
तीन सप्ताह से दिलचस्प तमाशा देखने में आ रहा है।  दक्षिण से दो-तीन साल पहले बनकर आई फिल्म बाहुबली  ने जैसे बॉलीवुड की सारी प्रतिभाओं और क्षमताओं पर तुषारापात करके रख दिया था। बॉलीवुड के ही बरसों से खाली बैठे एक निर्माता उसके वितरक बन बैठे और इतना धन अर्जित किया, जितना यदि वह खुद कोई फिल्म बनाते तो भी न अर्जित कर पाते। केवल डिस्ट्रीब्यूशन से उनके चेहरे पर आर्थिक सफलता की वह मुस्कान तिर गई कि उनको बैठे-बिठाए यही लाभ का धंधा नजर आया। जबकि उनकी पहचान एक ऐसे युवा फिल्मकार के रूप में बनी हुई है, जो नए जमाने के समझ-बूझ वाले सिनेमा का जानकार है और उसकी नब्ज भी समझता है। ऐसा निर्माता एक वितरक के रूप में अपनी कमाई पर गर्व कर तो रहा था, लेकिन शायद वह यह समझने को तैयार नहीं था कि यह धंधा ही उसके परंपरागत कारोबार के लिए सबसे बड़ी चुनौती पेश कर रहा है। 
बाहुबली का निर्माण और उसके पहले संस्करण की सफलता दरअसल मुंबइया सिनेमा को आईना दिखाने वाली बड़ी घटना थी। भारतीय सिनेमा में, सिनेमा के प्रति प्रतिबद्धता, समर्पण, सिनेमा को एक बड़ा और सबसे ज्यादा सांस्कृतिक रूप से संप्रेषणीय आयाम मानकर तमिल, तेलुगु, कन्नड़ और मलयालम में बनने वाली अनूठी व असाधारण फिल्मों की एक परंपरा रही है। आज भी दक्षिण की ही फिल्मों को सबसे ज्यादा श्रेणियों में नेशनल अवॉर्ड मिलता है, तो इसकी वजह ही यह है कि वे सिनेमा को अपनी संस्कृति और परंपरा के विस्तार का अविभाज्य अंग मानते हैं। हिंदी सिनेमा में मुंबइया सिनेमा के साथ-साथ बरसों तक दक्षिण का पारिवारिक व सामाजिक सिनेमा चला है, जिसमें जेमिनी व प्रसाद प्रोडक्शंस जैसे घरानों के योगदान को नहीं भुला सकते।
बॉलीवुड के कलाकार 30 साल से ज्यादा समय से अपनी सुरक्षित और व्यावसायिकता की आदर्श शर्तों से भरी रोजी-रोटी दक्षिण के सिनेमा से प्राप्त करते रहे हैं। बॉलीवुड भले बहुत उदार न रहा हो, लेकिन दक्षिण के सिनेमा में बॉलीवुड के सितारों को बहुत उदारतापूर्वक अपनाया गया है। लगभग इतने ही समय से दक्षिण भाषायी फिल्मों का हिंदी में भी निर्माण होता आ रहा है, पिछले एक दशक में यह और अधिक बढ़ गया है। दक्षिण में सिनेमा के 50 दिन चलने पर निर्माता फिर से उसके हजारों-लाखों पोस्टर लगवाकर जश्न मनाता है और दर्शकों का उपकार मानता है, जब सौ दिन या सिल्वर जुबली होती है, तब तो बात अलग ही होती है। सलमान खान को भी दक्षिण से अच्छी स्क्रिप्ट की तलाश रहती है और अक्षय कुमार को भी दक्षिण से प्रेरित कहानियों ने सितारा बनाने में योगदान किया है।
ऐसे केंद्र से बाहुबली का प्रदर्शित होना सब तरफ चमत्कार की तरह प्रचारित कर दिया गया है। बाहुबली का प्रथम प्रदर्शन व उससे जुड़े कौतुहलपूर्ण प्रश्नों को देखते हुए शोले का समय याद आ गया, जिसके संवाद आज भी भुलाए नहीं जा सके हैं। पहले बाहुबली से उपजे प्रश्न का समाधान हमारे देश को इस बाहुबली में जाकर जितनी आसानी से मिल गया, वह कम हास्यास्पद नहीं है, पर यह भी उल्लेखनीय है कि दक्षिण की फिल्म निर्माण संस्थाएं व लोग सस्पेंस, रहस्य व गोपनीयता को आखिरी समय तक जाहिर नहीं होने देते। उन्हें यदि दर्शकों को अचंभित करना है, तो उसकी पूरी तैयारी होती है।
बाहुबली के दूसरे भाग के लिए पूरे देश के सिनेमाघर पूरी तरह शरणागत होकर रह गए। निर्माता, निर्देशक और सितारों ने अपना ध्यान खेल में लगाया और पलक-पांवड़े बिछाकर बाहुबली भाग-दो का स्वागत किया। सारे सिनेमाघर, सारे शो ऐसे इस फिल्म ने मुट्ठी में कर लिए जैसे दूसरी फिल्मों को देश-निकाला दे दिया गया हो। आत्महीनता और गिरे आत्मविश्वास की बात है कि इस तूफान से भयभीत दूसरे निर्माता पीठ करके खड़े हो गए। हाल यह है कि देश के हर सिनेमाघर, हर शो में सिर्फ बाहुबली। देखो तो बाहुबली, न देखो तो बाहुबली। वास्तव में यह दयनीय स्थिति है सिनेमा के लोकतंत्र के लिए, सिनेमा की संस्कृति के लिए। कहना मुश्किल है कि इसमें कितना बाहुबली का अपना बल था और कितना दूसरों की भुजाओं को काठ मार जाना।

(ये लेखक के अपने विचार हैं)

साभार-'हिंदुस्तान'-19/मई/2017

यह तो होना ही था


जीवन के सफर में
कुछ पाना कुछ खोना ही था
हमें पहले ही पता था
कि यह तो होना ही था। 

उनकी फितरत ही ऐसी है
कि क्या कहें -कब कहें
खुद ही नहीं जानते
आँखों पर पट्टी बांधे हुए
वह सच को नहीं मानते। 

मझधार पर बीच भंवर में
फँसकर डूबना ही था
हमें पहले ही पता था
कि यह तो होना ही था।

-यश ©
20/मई/2017  

19 May 2017

कुंठित मन के सवाल....

मेरा कुंठित मन
पूछता है
कुछ सवाल
कभी कभी
कि वह क्या है
जो मेरे पास नहीं है
पर जो दूसरों के पास है .....
वह क्या है
जिसके न होते हुए
मैं जलता हूँ
कुढ़ता हूँ
मन ही मन
रखता हूँ चाह
उसे पाने की
जिसे पाना
आसान नहीं
या मुमकिन नहीं ...
पर
जब सोचता हूँ जवाब
तो बनता नहीं
कुछ भी फिर
कहना या
समझना
क्योंकि
ऐसा बहुत कुछ है
जो मुझे जलाता है
जिसे पाने की चाह
मेरे भीतर
बीती कई सदियों से है
मैं
हर बार
एक नयी तमन्ना लिए
नये नये रूपों मे
लेता हूँ
नये नये जन्म
फिर भी
बस इसी तरह
अधूरा रह रह कर
जलता रहता हूँ
और शायद जलता रहूँगा
क्योंकि
अतृप्त
और कुंठित मन के
विरोधाभासी सवालों के जवाब
मेरे पास न हैं
न कभी होंगे।

-यश © 
19/मई/2017

16 May 2017

बुरा तो लगना ही है .....


15 May 2017

कुछ लोग-38

जीवन के
कदम कदम पर
उधार में डूबे हुए
कुछ लोग
क्या क्या
नहीं कर गुजरते
तगादों से
बचने को ।
घूमते हुए
फिरते हुए 
लेकिन
आखिरकार
जब घिरते हैं
चौतरफा
तब समझ आता है
कि
पल पल की
किश्तों से बेहतर
एक मुश्त लेना
और देना ही है।

-यश©

 

13 May 2017

अगर यह कविता है तो .......

यह
जो मैंने लिखा
इस ब्लॉग पर
या डायरी पर
अगर सच में कविता है
तो वह क्या है
जो निराला, महादेवी,प्रसाद
गुप्त और दिनकर
लिख गए
वह क्या है
जो उन जैसे
और भी अनेकों
(जिन्हें मैं जानता
या नहीं जानता )
अपनी कलम से
दिमाग से
कल्पनाशीलता और
शब्द शिल्प से
दर्ज़ कर गए
इतिहास में
स्वर्ण अक्षर ?

इसलिए
मेरी नज़र में
यह जो मैं लिखता हूँ
सिर्फ अतिक्रमण है
अंतर्जाल पर
मिली हुई
मुफ्त की सुविधा का
यह कविता नहीं
सिर्फ कुछ पंक्तियाँ हैं
सब जान कर भी
जिन्हें
लिख देता हूँ
मन के इशारे पर
मन के शब्दों में
क्योंकि
अपने मन की
अंधेरी-उजली दुनिया में
मैं आज़ाद हूँ
अपने मन की
करने को और
कहने को।

-यश©
13/05/2017

12 May 2017

शोषण,शोषक और शोषित



शोषण,शोषक और शोषित
पूरक हैं
आदि काल से
और रहेंगे
अनादि काल तक
जब तक रहेगा
यह जीवन।

हमने
नदियों, तालाबों
पेड़ों और पहाड़ों का  
दोहन किया
शोषण किया
इस्तेमाल किया
और फिर
उत्सर्जित कर दिया।

किसी शोषक ने
हमसे
जी भर काम लिया
दिन भर के पसीने का
बूंद भर दाम दिया
बिना कुछ सुने –कहे
बस अपने मौन और
कुटिल दृष्टि के साथ
उसकी ‘दया’ का हाथ
हमने थामा
और चल दिये
अपने ठौर पर
चरने को
सूखी सी रोटी
और सोने को
फिर नयी सुबह के
इंतज़ार में ।

और जब
पूरा हुआ इंतज़ार
नयी सुबह का
रात के साथ
सारी बात भूल कर
हम फिर से जुट गए
उसी दिनचर्या में
जो हमारे साथ है
न जाने कितने ही
जन्मों से
और  साथ रहेगी
न जाने कितने ही
जन्मों तक।

शोषण,शोषक और शोषित
हम खुद ही हैं
अपनी दशा की दवा
और ईलाज
हम खुद ही हैं
जो नहीं पहचान पाते
दिन के उजाले
और रात के अंधेरे में
खुद के ही अक्स को। 

-यश © 
12/05/2017

11 May 2017

मजदूर हूँ मैं


06 May 2017

बस अब डूबना बाकी है


मंज़िल तो वही है  वहीं है 
पहुँचने की राह बदलनी बाकी है 
देखना है यहाँ सांसें कितनी बचीं 
कुछ और दूर चलना बाकी है । 

अरमान तो यह था कि चलेंगे साथ 
सात समुंदर पार तक 
मझधार पर भंवर में आ फंसा 
बस अब डूबना बाकी है। 

-यश©

04 May 2017

वह सामने होगा या नहीं।

अजीबो गरीब से
खयालातों में डूबा हुआ
नये हालातों में
कहीं खोया हुआ
गिन रहा हूँ दिन
जिंदगी के
कि जो आज है
वह कल होगा या नहीं
कल आज से बेहतर
या बदतर होगा कि नहीं
पर मैं
उलझन में  नहीं
निश्चिंत हूँ
मौन हूँ
सिर्फ यह देखने के लिए
जो मेरे मन में है
वह सामने होगा या नहीं।
.
~यश ©

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