प्रतिलिप्याधिकार/सर्वाधिकार सुरक्षित ©

इस ब्लॉग पर प्रकाशित अभिव्यक्ति (संदर्भित-संकलित गीत /चित्र /आलेख अथवा निबंध को छोड़ कर) पूर्णत: मौलिक एवं सर्वाधिकार सुरक्षित है।
यदि कहीं प्रकाशित करना चाहें तो yashwant009@gmail.com द्वारा पूर्वानुमति/सहमति अवश्य प्राप्त कर लें।

23 September 2017

मैं देवी हूँ-6 (नवरात्रि विशेष)

मेरे नाम से
न जाने कितनी ही
आहुतियाँ दी जाती हैं
रोज़
यज्ञ वेदी पर
कभी सरस्वती
कभी लक्ष्मी
कभी दुर्गा
और कभी काली
न जाने कितने ही नाम
रच दिए गए हैं मेरे
लेकिन क्या
इन नौ दिनों के अलावा
तुमने देखा है
मुझे
इन्हीं पूज्य रूपों में?
अगर हाँ
तो आखिर क्यों ?
मैं दिखती हूँ
अखबार की सुर्खियों में !
आखिर क्यों ?
सबको दिखता है
सिर्फ मेरा वाह्य आवरण!
आखिर क्यों ?
सबकी नज़रें
करती हैं
रोज़ चीर-हरण मेरा !
जानती हूँ!
इन प्रश्नों का सही जवाब
न है
न कभी मिलेगा
पर इतना समझ लेना
कि
मैं
कोमल नहीं
तुम्हारे हर
पुरुषार्थ की जननी हूँ
मैं देवी हूँ!

-यश©

इस  शृंखला की पूर्व सभी किश्तें इस लिंक पर क्लिक करके देखी जा सकती हैं

21 September 2017

मैं देवी हूँ -5 (नवरात्रि विशेष)

यह समाज
यह आस-पड़ोस
यह रिश्ते-नाते
क्या सच में मेरे हैं
क्या सच में अपने हैं
या बस
यूं ही
अपने भीतर की
तमाम कुंठाओं का
प्रतिरूप
अपने स्मार्ट फोन की
स्क्रीन पर देखते हुए
तुम में से
कुछ लोग
करते रहोगे
छद्म गुणगान
जगरातों की
पैरोडी सुर-ताल पर।
मुझे पता है
तुम सबका असली रूप
मुझे मालूम है
तुम्हारे मन के
भीतर की एक-एक बात
एक-एक राज़
जो तुम्हारे चेहरे
और तुम्हारी नज़रें
खुद ही बता देती हैं
बस-ट्रेन और टेम्पो के भीतर
खुली सड़क पर
और हर
उस जगह
जहां मुझ पर
सवाल उठाने वाले
खुद ही बन जाते हैं
प्रश्न चिह्न
क्योंकि
मैं ही समिधा
और यज्ञ की वेदी हूँ
मैं देवी हूँ!

-यश©


इस  शृंखला की पूर्व सभी किश्तें इस लिंक पर क्लिक करके देखी जा सकती हैं

10 September 2017

नहीं कोई साथ निभाने को....

समय के चक्रव्यूह में फँसकर 
नहीं बचा कुछ पाने को। 
उखड़ती साँसों से क्या कहना 
अमृत को चख जाने को।  
बहरूपियों के जीवन मंच पर 
कठपुतलियाँ खेल दिखाती हैं।  
जैसा जो कोई कहता जाता 
बस वैसा करती जातीं हैं।  
अपनी अपनी राहों पर सब 
जुटे हैं मंज़िल पाने को।  
गैरों में किसको खुद का समझें 
नहीं कोई साथ निभाने को। 

-यश©
10/09/2017 


24 August 2017

रोलर कोस्टर ज़िन्दगी

रोलर कोस्टर ज़िन्दगी.....
अपने उतार चढ़ावों के 
एक एक पल में 
समेटे रहती है ....
जाने कितनी ही खुशियाँ 
और कितने ही गम .....
फिर भी रहते हैं हम 
वैसे ही.....
कल आज और 
कल की तरह...
थोड़े से शान्त 
थोड़े से उतावले 
टिक-टिक करती 
बढ़ती जातीं 
घड़ी की सुइयों 
के पग चिह्नों को 
नापते जाने के 
कई सफल-असफल 
प्रयासों के साथ 
कभी 
खुशियों से नाचते-गाते 
और कभी 
सर झुकाए 
किसी सोच में डूब कर 
आँखों से बहने को बेकरार 
सैलाब को थाम कर 
रोलर कोस्टर ज़िन्दगी
बंद पलकों के भीतर 
दिखाती है 
आरंभ से अंत का 
एक अंतहीन 
चलचित्र!

-यश©
24/08/2017

17 August 2017

हर मुस्कुराते चेहरे के पीछे....

हर मुस्कुराते चेहरे के पीछे
एक कहानी होती है
जिसे सुनकर हँसती दुनिया
या कभी कभी वह रोती है  ।

कोई कहता हँसता है वह
कोई कहता पागल है
ऐसी कैसी उसकी फितरत
भीतर से वह घायल है

मिल कर गले कोई नहीं
जो सुनकर मन की बातों को
अपने ढंग से देख समझ कर
दिखला दे नयी राहों को

जीवन की आपा-धापी में
एक धार बहानी होती है
हर मुस्कुराते चेहरे के पीछे
एक कहानी होती है।


-यश ©
17/08/2017

15 August 2017

तिरंगे में पुते चेहरे दिखने लगे हैं

तिरंगे में पुते चेहरे दिखने लगे हैं 
तिरंगे फिजा में लहरने लगे हैं 
ये कुछ पल का नज़ारा है मानो न मानो 
फिर तो बस शाम को बुहरने लगे हैं 

करके सुबह सलाम,बस इतना सा करना
चूने की सड़कों पे संभल संभल के चलना 

न आए पैरों तले, न बेकद्री से बिखरे 
मेरा देश और ये झण्डा खूब खुशियों से निखरे 

-यश-©

आप सभी को स्वतन्त्रता दिवस की हार्दिक शुभ कामनाएँ !
खुद को सावधान रखें...तिरंगे का मान रखें !

10 August 2017

कुछ लोग -40

संपर्कहीन
बीते दौर के
कुछ लोग
जिनसे जुड़े होते हैं
हम
अपनी पूरी भावनाओं
और संवेगों के साथ,
संभाले होते हैं
जिनकी स्मृति
और कुछ
स्वर्णिम पल
इस उम्मीद में
कि फिर कभी
कहीं मिलेंगे
इसी जीवन में
किसी नदी के किनारे,
या सड़क पर
कहीं को जाते हुए
या आते हुए-
उनके नाम
जब टकराते हैं
बदले हुए चेहरों -
पर,
उन्हीं हाव-भावों
सहयोग और अपनेपन
के साथ,
तब ऐसा लगता है
जैसे
तेज़ भागते वक़्त को भी
होती है कद्र
कुछ लोगों के
भीतर के
एहसासों की।
.
-यश©

03 August 2017

मन की देहरी पर


मन की देहरी पर
मन की बातों को लेकर
मैं -जैसा हूँ
वैसा ही बने रह कर
बस कह देता हूँ
कुछ शब्द
जो कुछ भी नहीं हो कर
कहीं समा जाते हैं
कुछ पन्नों के भीतर ।

कुछ पन्ने
जो चिन्दियाँ बन कर
उड़ कर
गिरते जाते हैं
यहाँ-वहाँ
और न जाने
क्या-क्या कह कर
कोई सुनने वाला हो यहाँ
तो वो ही समझेगा
न जाने क्या क्या दफन है
मेरे मन की देहरी पर।

-यश©
03/08/2017

01 August 2017

एक कहानी ऐसी लिख दूँ


एक कहानी ऐसी लिख दूँ
जिसमें अपने मन की कह दूँ
काले यथार्थ की गहरी परतों पर
कल आज और कल को रच दूँ।

एक कहानी ऐसी लिख दूँ
जिससे जुड़ा हो बचपन सब का
परावर्तित हो भूत-भविष्य और
दिखे चलचित्र तब और अब का।

एक कहानी ऐसी लिख दूँ
जिसका अंत अनादि हो कर
जुड़ा हो सबके अपने आज से
कुछ कल्पना के रंग में घुल कर।

एक कहानी ऐसी लिख दूँ
जिसमें अपने मन की कह कर
शब्दों के मनकों से जुड़ लूँ
और हल्का खुद को थोड़ा कर लूँ।

एक कहानी ऐसी लिख दूँ।

-यश © 
01/08/2017

बहुत दिन पुराना यह अधूरा ड्राफ्ट आखिरकार आज पूरा हुआ :)

16 July 2017

कुछ लोग -39

बने रहो पगला
काम करेगा अगला की
तर्ज़ पर
'बैल बुद्दि' वाले
कुछ लोग
अपने प्रतिउत्तरों से
निरुत्तर करने की बजाय
खेल जाते हैं
उल्टे दांव।
ऐसे कुछ लोग
न जाने
किस सोच मे डूबे हुए
सिर्फ खुद को सही
और ज्ञाता मानते हुए
अपने पूर्वानुमानों को ही
सबसे सही बताते हुए
बस किसी तरह ही
रख पाते हैं काबू
अपने भीतर के शैतान को।
'बैल बुद्दि' वाले
कुछ लोग
मजबूर होते हैं
अपनी आदतों
और आनुवंशिकी
संस्कारों से
जिनको बदल पाना \
हो नहीं सकता
कभी भी
किसी भी तरह
संभव।
.
-यश©

14 July 2017

बी ए पास रिक्शे वाला


बी ए पास
वह रिक्शे वाला
मौसम की हर मार से
बे असर –बे खबर
हर समय रहता है तैयार
चलने को
तलवार की धार की तरह
पैनी तीखी
मेरे शहर की
सड़कों के साथ जाती
किसी की मंज़िल तक
पहुँचने को
या
पहुंचाने को।

वह
सवारियों के लिए
उठा लेता है
‘हुड’
धूप और
बरसात से बचने को
लेकिन खुद
पसीने से तर-बतर
चेहरे पर मुस्कान
और ज़ुबान पर
मीठी बात लिए
किसी कुशल
‘सेल्समैन’ की तरह
गड्ढेदार सड़कों के
प्रतिउत्तर का
अपने संयम और
उत्साह से 
सामना करते हुए
बस कामना करता है
अपने ‘उचित प्रतिफल’ की।

बी ए पास
वह रिक्शे वाला
कल मुझे मिला
और इच्छा करने लगा
कहीं  
एक अदद नौकरी की
सिफ़ारिश की....
मदद की
बिना उसका उत्तर दिये
बी ए पास ‘मैं’
बस अपने मौन में
यही सोचता रहा
कि मुझसे कहीं बेहतर
आत्मनिर्भर
बी ए पास
वह रिक्शे वाला
आखिर क्यों
बनना चाहता है
मेरी तरह
सूट-बूट
टाई और काले चश्मे वाला
एक (अ)सभ्य मजदूर। 

-यश©
14/07/2017

गधे चाहिए

उन्हें इंसान नहीं
कुछ गधे चाहिए
जो उनकी ही देखें -सुनें
अकल के अंधे चाहिए ।

कोशिश  तो की कई बार
कि हट जाए आँखों से पट्टी
उन्हें सिर्फ एक दिखता है
बाकियों मे खोट चाहिए ।

ये ज़माना और है
वो ज़माना और था
अब तो हर काम में
कोल्हू के बैल चाहिए ।

यश ©

01 July 2017

छोटू .....

रामू की
चाय की दुकान पर
कोल्हू का बैल बना
छोटू
इस गर्मी में
अंगीठी की आंच
खौलते दूध की भाप
और ग्राहकों की मांग
झेलता हुआ भी
बना रहता है
तरो -ताज़ा।

उसकी मुस्कुराहट
और
मक्खन की
टिक्की की तरह
मुलायम
उसकी बातें
बना देती हैं
रामू की दुकान को
और भी मशहूर
क्योंकि
छोटू के हाथ की चाय
समोसे
और बन-मक्खन
दूर  कर चुके हैं
उससे उसका बचपन।

-यश©
(वास्तविक और आँखों देखी पर आधारित)

10 June 2017

सब अच्छा है.....

नहीं कहीं कमी कोई
जो दिख रहा वह अच्छा है
जो कुछ अब तक सुना-सुनाया
सबने कहा वह सच्चा है।

बांध आँख पर काली पट्टी
डूब कर दिन के सपनों में
अच्छा-अच्छा अपने कहते
जो मन कहता वह सच्चा है।

लंबी चादर तान कर सोता
दिन-रात का पता नहीं कुछ
मुझ से आ कर यह मत पूछो
बाहर शोर क्यूँ शोर होता है ।

नहीं कहीं कमी कोई
जो दिख रहा वह अच्छा है
बुरा बराबर जो जो कहता
वह सब अकल का कच्चा है।

-यश ©
10/जून/2017

01 June 2017

वहीं उसी मोड़ पर ......

बीत रहा है
साल दर साल
और मैं वहीं
उसी मोड़ पर
हूँ खड़ा
जहाँ
मेरी तक़दीर
या
कारनामे
छोड़ गए थे
बीती
कई सदियों पहले।
 .
मैं
तब से आज तक
धूप -छाँह
आँधी -तूफान
और
न जाने क्या क्या
झेलता हुआ
सहता हुआ
खुद से
खुद की
कहता हुआ
बस कर रहा हूँ -
तलाश
तो सिर्फ
उस पल की
जिस पल
कोई मुक्तिदूत
आ कर
दिखा दे राह
इस मूर्त जन्म से
किसी नये
पारदर्शी जन्म की।

-यश ©


25 May 2017

टाई वाला मजदूर......

एक्ज़िक्यूटिव क्लास
टाई वाला मजदूर
अपने गले में
आई कार्ड का पट्टा लटकाए
कान में हेडफोन
और 'कॉन कॉल' का
शोर सुनते हुए
'लाइन' पर रह कर
'एक्सक्यूजेज़' देते हुए
भटकता फिरता है
दर बदर
भारी भरकम
और कभी कभी
एवरेस्ट से भी ऊंचे
टारगेट के
चरम
या उसके आस-पास
कहीं पहुँचने को।

वह दिन भर
मौसम के हर रूप
शहर के हर मोड़
और गली को
गूगल के नक्शे पर
नापते हुए
अपनी कुंठा
और खिन्नता को
छुपाते हुए
अपने चेहरे की
कृत्रिम मुस्कुराहट
और ऊर्जा से
कोशिश करता है
ए सी की ठंडक में
लक्ज़री चेयर पर बैठे
अपने 'क्लाइंट'   
या 'बॉस' को
लुभाने की
और बदले में
कुछ पाने की।

एक्ज़िक्यूटिव क्लास
टाई वाला मजदूर
'बेलदार' तो नहीं
पर उससे
कम भी नहीं होता
यह बात अलग है
कि वह ईंट और गारा
नहीं ढोता।
वह ढोता है–
अपने दिमाग में
बहुमुखी अपेक्षाओं
आशंकाओं की
ईंटों के चट्टे ...
अपने
अनोखे 'लक्ष्यों'
और उन्हें पाने की
जुगाड़ों के
कई नायाब तरीके।

वह
करता रहता है
हर संभव कोशिशें
नौकरी को
'सेफ' रखने की
'इन्सेंटिव' नहीं
तो 'सिर्फ 'सैलरी' से
जीने की
क्योंकि उसके घर में
उसके साथ
कुछ लोग
गुज़र करते हैं
एक छोटी सी रसोई में
बने
दाल-भात
सब्जी और अचार की
थोड़ी सी
खुराक से।

-यश©
25/मई/2017


20 May 2017

दक्षिण की एक फिल्म से क्यों थर्रा गया बॉलीवुड-सुनील मिश्र, फिल्म समीक्षक

हिंदुस्तान-19/मई/2017
तीन सप्ताह से दिलचस्प तमाशा देखने में आ रहा है।  दक्षिण से दो-तीन साल पहले बनकर आई फिल्म बाहुबली  ने जैसे बॉलीवुड की सारी प्रतिभाओं और क्षमताओं पर तुषारापात करके रख दिया था। बॉलीवुड के ही बरसों से खाली बैठे एक निर्माता उसके वितरक बन बैठे और इतना धन अर्जित किया, जितना यदि वह खुद कोई फिल्म बनाते तो भी न अर्जित कर पाते। केवल डिस्ट्रीब्यूशन से उनके चेहरे पर आर्थिक सफलता की वह मुस्कान तिर गई कि उनको बैठे-बिठाए यही लाभ का धंधा नजर आया। जबकि उनकी पहचान एक ऐसे युवा फिल्मकार के रूप में बनी हुई है, जो नए जमाने के समझ-बूझ वाले सिनेमा का जानकार है और उसकी नब्ज भी समझता है। ऐसा निर्माता एक वितरक के रूप में अपनी कमाई पर गर्व कर तो रहा था, लेकिन शायद वह यह समझने को तैयार नहीं था कि यह धंधा ही उसके परंपरागत कारोबार के लिए सबसे बड़ी चुनौती पेश कर रहा है। 
बाहुबली का निर्माण और उसके पहले संस्करण की सफलता दरअसल मुंबइया सिनेमा को आईना दिखाने वाली बड़ी घटना थी। भारतीय सिनेमा में, सिनेमा के प्रति प्रतिबद्धता, समर्पण, सिनेमा को एक बड़ा और सबसे ज्यादा सांस्कृतिक रूप से संप्रेषणीय आयाम मानकर तमिल, तेलुगु, कन्नड़ और मलयालम में बनने वाली अनूठी व असाधारण फिल्मों की एक परंपरा रही है। आज भी दक्षिण की ही फिल्मों को सबसे ज्यादा श्रेणियों में नेशनल अवॉर्ड मिलता है, तो इसकी वजह ही यह है कि वे सिनेमा को अपनी संस्कृति और परंपरा के विस्तार का अविभाज्य अंग मानते हैं। हिंदी सिनेमा में मुंबइया सिनेमा के साथ-साथ बरसों तक दक्षिण का पारिवारिक व सामाजिक सिनेमा चला है, जिसमें जेमिनी व प्रसाद प्रोडक्शंस जैसे घरानों के योगदान को नहीं भुला सकते।
बॉलीवुड के कलाकार 30 साल से ज्यादा समय से अपनी सुरक्षित और व्यावसायिकता की आदर्श शर्तों से भरी रोजी-रोटी दक्षिण के सिनेमा से प्राप्त करते रहे हैं। बॉलीवुड भले बहुत उदार न रहा हो, लेकिन दक्षिण के सिनेमा में बॉलीवुड के सितारों को बहुत उदारतापूर्वक अपनाया गया है। लगभग इतने ही समय से दक्षिण भाषायी फिल्मों का हिंदी में भी निर्माण होता आ रहा है, पिछले एक दशक में यह और अधिक बढ़ गया है। दक्षिण में सिनेमा के 50 दिन चलने पर निर्माता फिर से उसके हजारों-लाखों पोस्टर लगवाकर जश्न मनाता है और दर्शकों का उपकार मानता है, जब सौ दिन या सिल्वर जुबली होती है, तब तो बात अलग ही होती है। सलमान खान को भी दक्षिण से अच्छी स्क्रिप्ट की तलाश रहती है और अक्षय कुमार को भी दक्षिण से प्रेरित कहानियों ने सितारा बनाने में योगदान किया है।
ऐसे केंद्र से बाहुबली का प्रदर्शित होना सब तरफ चमत्कार की तरह प्रचारित कर दिया गया है। बाहुबली का प्रथम प्रदर्शन व उससे जुड़े कौतुहलपूर्ण प्रश्नों को देखते हुए शोले का समय याद आ गया, जिसके संवाद आज भी भुलाए नहीं जा सके हैं। पहले बाहुबली से उपजे प्रश्न का समाधान हमारे देश को इस बाहुबली में जाकर जितनी आसानी से मिल गया, वह कम हास्यास्पद नहीं है, पर यह भी उल्लेखनीय है कि दक्षिण की फिल्म निर्माण संस्थाएं व लोग सस्पेंस, रहस्य व गोपनीयता को आखिरी समय तक जाहिर नहीं होने देते। उन्हें यदि दर्शकों को अचंभित करना है, तो उसकी पूरी तैयारी होती है।
बाहुबली के दूसरे भाग के लिए पूरे देश के सिनेमाघर पूरी तरह शरणागत होकर रह गए। निर्माता, निर्देशक और सितारों ने अपना ध्यान खेल में लगाया और पलक-पांवड़े बिछाकर बाहुबली भाग-दो का स्वागत किया। सारे सिनेमाघर, सारे शो ऐसे इस फिल्म ने मुट्ठी में कर लिए जैसे दूसरी फिल्मों को देश-निकाला दे दिया गया हो। आत्महीनता और गिरे आत्मविश्वास की बात है कि इस तूफान से भयभीत दूसरे निर्माता पीठ करके खड़े हो गए। हाल यह है कि देश के हर सिनेमाघर, हर शो में सिर्फ बाहुबली। देखो तो बाहुबली, न देखो तो बाहुबली। वास्तव में यह दयनीय स्थिति है सिनेमा के लोकतंत्र के लिए, सिनेमा की संस्कृति के लिए। कहना मुश्किल है कि इसमें कितना बाहुबली का अपना बल था और कितना दूसरों की भुजाओं को काठ मार जाना।

(ये लेखक के अपने विचार हैं)

साभार-'हिंदुस्तान'-19/मई/2017

यह तो होना ही था


जीवन के सफर में
कुछ पाना कुछ खोना ही था
हमें पहले ही पता था
कि यह तो होना ही था। 

उनकी फितरत ही ऐसी है
कि क्या कहें -कब कहें
खुद ही नहीं जानते
आँखों पर पट्टी बांधे हुए
वह सच को नहीं मानते। 

मझधार पर बीच भंवर में
फँसकर डूबना ही था
हमें पहले ही पता था
कि यह तो होना ही था।

-यश ©
20/मई/2017  

19 May 2017

कुंठित मन के सवाल....

मेरा कुंठित मन
पूछता है
कुछ सवाल
कभी कभी
कि वह क्या है
जो मेरे पास नहीं है
पर जो दूसरों के पास है .....
वह क्या है
जिसके न होते हुए
मैं जलता हूँ
कुढ़ता हूँ
मन ही मन
रखता हूँ चाह
उसे पाने की
जिसे पाना
आसान नहीं
या मुमकिन नहीं ...
पर
जब सोचता हूँ जवाब
तो बनता नहीं
कुछ भी फिर
कहना या
समझना
क्योंकि
ऐसा बहुत कुछ है
जो मुझे जलाता है
जिसे पाने की चाह
मेरे भीतर
बीती कई सदियों से है
मैं
हर बार
एक नयी तमन्ना लिए
नये नये रूपों मे
लेता हूँ
नये नये जन्म
फिर भी
बस इसी तरह
अधूरा रह रह कर
जलता रहता हूँ
और शायद जलता रहूँगा
क्योंकि
अतृप्त
और कुंठित मन के
विरोधाभासी सवालों के जवाब
मेरे पास न हैं
न कभी होंगे।

-यश © 
19/मई/2017

16 May 2017

बुरा तो लगना ही है .....


15 May 2017

कुछ लोग-38

जीवन के
कदम कदम पर
उधार में डूबे हुए
कुछ लोग
क्या क्या
नहीं कर गुजरते
तगादों से
बचने को ।
घूमते हुए
फिरते हुए 
लेकिन
आखिरकार
जब घिरते हैं
चौतरफा
तब समझ आता है
कि
पल पल की
किश्तों से बेहतर
एक मुश्त लेना
और देना ही है।

-यश©

 

13 May 2017

अगर यह कविता है तो .......

यह
जो मैंने लिखा
इस ब्लॉग पर
या डायरी पर
अगर सच में कविता है
तो वह क्या है
जो निराला, महादेवी,प्रसाद
गुप्त और दिनकर
लिख गए
वह क्या है
जो उन जैसे
और भी अनेकों
(जिन्हें मैं जानता
या नहीं जानता )
अपनी कलम से
दिमाग से
कल्पनाशीलता और
शब्द शिल्प से
दर्ज़ कर गए
इतिहास में
स्वर्ण अक्षर ?

इसलिए
मेरी नज़र में
यह जो मैं लिखता हूँ
सिर्फ अतिक्रमण है
अंतर्जाल पर
मिली हुई
मुफ्त की सुविधा का
यह कविता नहीं
सिर्फ कुछ पंक्तियाँ हैं
सब जान कर भी
जिन्हें
लिख देता हूँ
मन के इशारे पर
मन के शब्दों में
क्योंकि
अपने मन की
अंधेरी-उजली दुनिया में
मैं आज़ाद हूँ
अपने मन की
करने को और
कहने को।

-यश©
13/05/2017

12 May 2017

शोषण,शोषक और शोषित



शोषण,शोषक और शोषित
पूरक हैं
आदि काल से
और रहेंगे
अनादि काल तक
जब तक रहेगा
यह जीवन।

हमने
नदियों, तालाबों
पेड़ों और पहाड़ों का  
दोहन किया
शोषण किया
इस्तेमाल किया
और फिर
उत्सर्जित कर दिया।

किसी शोषक ने
हमसे
जी भर काम लिया
दिन भर के पसीने का
बूंद भर दाम दिया
बिना कुछ सुने –कहे
बस अपने मौन और
कुटिल दृष्टि के साथ
उसकी ‘दया’ का हाथ
हमने थामा
और चल दिये
अपने ठौर पर
चरने को
सूखी सी रोटी
और सोने को
फिर नयी सुबह के
इंतज़ार में ।

और जब
पूरा हुआ इंतज़ार
नयी सुबह का
रात के साथ
सारी बात भूल कर
हम फिर से जुट गए
उसी दिनचर्या में
जो हमारे साथ है
न जाने कितने ही
जन्मों से
और  साथ रहेगी
न जाने कितने ही
जन्मों तक।

शोषण,शोषक और शोषित
हम खुद ही हैं
अपनी दशा की दवा
और ईलाज
हम खुद ही हैं
जो नहीं पहचान पाते
दिन के उजाले
और रात के अंधेरे में
खुद के ही अक्स को। 

-यश © 
12/05/2017

+Get Now!