इन नौं दिन
तुमने पूजा है
पत्थर की मेरी मूरत को।
उसमें प्राण-प्रतिष्ठा कर के
तुमने मांगी हैं मन्नतें
दु:ख के जाने और
सुख के आने की।
सप्तशती के
सात सौ श्लोकों के साथ
तुमने रखे हैं
फलाहार और निर्जल व्रत।
लेकिन कभी सोचा है
क्या होगा इस सबसे ?
क्या बदल पाए हो
खुद की नज़रों और
नजरिए को ?
क्या निकल पाए हो
अपनी पुरातन सोच के
दायरे से ?
नहीं
कुछ बदलाव नहीं होगा
बस भ्रम बना रहेगा
यूं ही चारों ओर
क्योंकि
तुम्हारी हर क्रिया-प्रतिक्रिया का
रहस्य मैं जानती हूँ
मैं! देवी हूँ।
-यश ©
16/03/2018
तुमने पूजा है
पत्थर की मेरी मूरत को।
उसमें प्राण-प्रतिष्ठा कर के
तुमने मांगी हैं मन्नतें
दु:ख के जाने और
सुख के आने की।
सप्तशती के
सात सौ श्लोकों के साथ
तुमने रखे हैं
फलाहार और निर्जल व्रत।
लेकिन कभी सोचा है
क्या होगा इस सबसे ?
क्या बदल पाए हो
खुद की नज़रों और
नजरिए को ?
क्या निकल पाए हो
अपनी पुरातन सोच के
दायरे से ?
नहीं
कुछ बदलाव नहीं होगा
बस भ्रम बना रहेगा
यूं ही चारों ओर
क्योंकि
तुम्हारी हर क्रिया-प्रतिक्रिया का
रहस्य मैं जानती हूँ
मैं! देवी हूँ।
-यश ©
16/03/2018
सत्य वचन
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