26 March 2018

मैं !

मैं !
बस अपनी कल्पनाओं में
खोया सा रह कर
अनजान सपनों से
अपने मन की
कुछ -कुछ कह कर
कभी -कभी
तांक-झांक लेता हूँ
इधर-उधर ।

मैं !
खुद को जानने की
जितनी कोशिशें करता हूँ
उतना ही अनजान बनता चला जाता हूँ
अपने अतीत और वर्तमान से ।

मैं !
बौराए आम के बागों में
चहलकदमी करता हुआ
हमराहियों के चेहरे पढ़ता हुआ
झपकती पलकों से
अनगिनत प्रश्न करता हुआ
हैरानी से देखता हूँ
जिंदगी के पहियों को
कभी घिसटते हुए
कभी आराम से चलते हुए।

मैं !
अपनी सोच के सीमित दायरे में
अपनी ही लिखी किताब पर
उकेर देता हूँ
कई और इबारतें
देखता हूँ
एक के ऊपर एक
शब्दों और अक्षरों के
जटिल पिरामिडों को
आकार लेते हुए
बस अपनी कल्पनाओं में
खोया सा रह कर
यूं ही बेमतलब की
लिखकर-कहकर
बना रहता हूँ अनजान
आने वाले
हर तूफान की आहट से।

-यश©
26/03/2018

1 comment:

  1. जीवन इसी उधेड़बुन का नाम है

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