काश!
कि न होती ये बारिश
तो
न मन यूं भीगता
न भीतर ही भीतर
चीखता
मुक्ति पाने को
काले बादलों की तरह
उमड़ते
अनचाहे शब्दों से ।
हाँ !
अनचाहे शब्द
जो तितर-बितर
हो कर
न जाने
किस तरह जुड़ कर
असपष्ट सा आकार लेते हैं
न जाने क्या समझते हैं
न जाने क्या समझाते हैं।
काश!
कि न होती ये बारिश
तो न जमती
द्वेष और हीनता की
काई और कीचड़
टूटे दिल के
उस एक कोने में
जो लाख समझाने पर भी
मानता नहीं
कि हकीकत
कहीं हटकर होती है
कल्पना से।
काश!
कि न होती ये बारिश
और बना रहता
अस्तित्व
जेठ की तपती दोपहरों का
तो सुकुं मिलता मुझको
सिर्फ यह सोचकर
कि
इस कदर
जलने वाला
अकेला मैं ही नहीं
और भी हैं।
-यश ©
02/07/2018
कि न होती ये बारिश
तो
न मन यूं भीगता
न भीतर ही भीतर
चीखता
मुक्ति पाने को
काले बादलों की तरह
उमड़ते
अनचाहे शब्दों से ।
हाँ !
अनचाहे शब्द
जो तितर-बितर
हो कर
न जाने
किस तरह जुड़ कर
असपष्ट सा आकार लेते हैं
न जाने क्या समझते हैं
न जाने क्या समझाते हैं।
काश!
कि न होती ये बारिश
तो न जमती
द्वेष और हीनता की
काई और कीचड़
टूटे दिल के
उस एक कोने में
जो लाख समझाने पर भी
मानता नहीं
कि हकीकत
कहीं हटकर होती है
कल्पना से।
काश!
कि न होती ये बारिश
और बना रहता
अस्तित्व
जेठ की तपती दोपहरों का
तो सुकुं मिलता मुझको
सिर्फ यह सोचकर
कि
इस कदर
जलने वाला
अकेला मैं ही नहीं
और भी हैं।
-यश ©
02/07/2018
सुन्दर भाव।
ReplyDeleteबहुत सुंदर भावपूर्ण रचना..बारिश को देखने क एक नया अंदाज..
ReplyDelete