समय की बेख्याली में,
मन के भीतर
उठती गिरती
कई बातों के साथ
कभी-कभी
लगता है
जैसे धँसता जा रहा हूँ
किसी दलदल में
या फँसता जा रहा हूँ
किसी रेगिस्तान की
मृगमरीचिका के
मायाजाल में।
पर
यह जो भी है
कहीं ऊपर है
दिन-रात
या
पल-पल बदलते
मौसम की
हर रंगत से
समय की
हर फितरत
और
संगत से।
वजह
या बेवजह
चलते जाने की
चाह
या
मज़बूरी
समय की बेख्याली में
ज़रूरी भी होती है
ज़ाया करने के लिए
कुछ शब्द
बस इसी तरह।
~यश©
12/10/2018
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल रविवार (14-10-2018) को "जीवन से अनुबन्ध" (चर्चा अंक-3124) पर भी होगी।
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'