यूँ ही
कभी-कभी
बैठा हुआ कहीं
देखता रहता हूँ
आवाजाही को
दिन और रात को
कल और आज को ।
यूँ ही
कभी-कभी
बैठा हुआ कहीं
सुनता हूँ
आवाज़ें
जो निकलती हैं
बंद पलकों के पर्दे पर
चल रहे
चलचित्र के
गुमनाम-
अनजान
पात्रों से।
यूँ ही
कभी-कभी
बैठा हुआ कहीं
रखता हूँ
बस यही उम्मीद
कि एक दिन
आ मिलेगी
मुझ से
मेरी परछाई
जो साथ छोड़ कर
जा पहुँची है
कहीं दूर
वक़्त के
किसी कत्लखाने में।
.
-यश ©
12/दिसंबर/2018
कभी-कभी
बैठा हुआ कहीं
देखता रहता हूँ
आवाजाही को
दिन और रात को
कल और आज को ।
यूँ ही
कभी-कभी
बैठा हुआ कहीं
सुनता हूँ
आवाज़ें
जो निकलती हैं
बंद पलकों के पर्दे पर
चल रहे
चलचित्र के
गुमनाम-
अनजान
पात्रों से।
यूँ ही
कभी-कभी
बैठा हुआ कहीं
रखता हूँ
बस यही उम्मीद
कि एक दिन
आ मिलेगी
मुझ से
मेरी परछाई
जो साथ छोड़ कर
जा पहुँची है
कहीं दूर
वक़्त के
किसी कत्लखाने में।
.
-यश ©
12/दिसंबर/2018
अच्छी पंक्तियां।
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