हाल ही मुंबई में डॉ. पायल तड़वी की मौत के बाद किसी ने टिप्पणी की कि शहरों में दलित-आदिवासी बसते तो हैं, लेकिन उनके बाशिंदे नहीं बन पाते। वहां दलित-सवर्ण खाई साफ नजर आती है। वैसे, यह खाई अमीर-गरीब के बीच भी दिखती है। दुनिया के हर कोने में। अब अर्बन प्लानिंग ही इस तरह की जा रही है कि यह अलगाव अधिकाधिक स्पष्ट होता जाता है। पिछले महीने लंदन के ‘इंडिपेंडेंट’ अखबार में खबर थी कि लंदन में रियल एस्टेट डिवेलपर्स एक ही सोसायटी में अमीर और गरीब निवासियों के साथ भेदभाव करते हैं। हाउसिंग सोसायटी को दो खंडों में बनाया जाता है- लग्जरी होम्स और सोशल हाउसिंग। लग्जरी होम्स वाले सेक्शन में बगीचे और खेल के मैदान भी होते हैं। व्यवस्था यह होती है कि उनमें दूसरे सेक्शन वाले लोग नहीं जा सकते। सोशल हाउसिंग वाले सेक्शन के लिए अलग से छोटा गेट बनाया जाता है।
ये खास तरह का सेग्रगेशन यानी अलगाव दुनिया के हर देश की सचाई है। सत्तर के दशक में अमेरिकी शहरों में गेटेड सोसायटी की शुरुआत हुई तो अमीर-गरीब वर्गों के बीच का फर्क दिखाई देने लगा। दक्षिण अफ्रीका में रंगभेद के दौर में श्वेत-अश्वेत लोग अलग-अलग हिस्सों में रहते थे। ग्लासगो विश्वविद्यालय (यूके) में रिसर्च असोसिएट बिल्ज सेरिन का शोध बताता है कि शहरी स्पेस में अमीर-गरीब का और जातियों का विभाजन तेजी से बढ़ रहा है। सार्वजनिक सुविधाएं और सेवाएं भी अमीर-गरीब के हिसाब से तय की जा रही हैं। हमारा देश भी इस रवैये से अलग नहीं है। दिल्ली से सटे गुड़गांव की हाउसिंग सोसायटियों में काम करने वाली बाइयों को लिफ्ट वगैरह के इस्तेमाल की इजाजत नहीं है। दुनिया के हर देश के बड़े शहरों में ऐसी गेटेड सोसायटी मौजूद हैं। यहां दुनिया भर के ऐशो आराम हैं। बस, उनकी कीमत चुकानी होती है। वियतनाम की राजधानी हनोई में इलीट सोसायटी में रहवासियों के लिए शुद्ध हवा, टेनिस गार्डन, ब्यूटी सैलून, पोस्ट ऑफिस सब कुछ है। कनाडा के टोरंटो में विदेशी निवेशकों को आलीशान कॉन्डो मतलब फैंसी अपार्टमेंट खरीदने का मौका मिल रहा है। नाइजीरिया के लागोस में समुद्र को पाटकर प्राइवेट सिटी इको एटलांटिक प्रॉजेक्ट बनाया जा रहा है। ऐसे लग्जरी अपार्टमेंट्स ने बुनियादी सुविधाओं को कमोडिटी बनाने का काम किया है। साफ हवा, शुद्ध पानी, साफ-सफाई आदि के लिए किसी को पैसे देने पड़ें तो जिनके पास पैसे नहीं हैं, उनका क्या होगा/ होगा यही कि वे बुनियादी सुविधाओं से वंचित होते जाएंगे। लग्जरी अपार्टमेंट्स और सोसायटी के ट्रेंड ने ऐसा ही किया है। इसने प्रशासन की जवाबदेही कम की है और लोगों के कहीं भी बसने के अधिकार का उल्लंघन किया है। हर इनसान को यह हक है कि वह अपने देश के किसी भी कोने में बस सकता है। उसकी बुनियादी जरूरतें पूरी करने की जिम्मेदारी प्रशासन की है। यह प्रवृत्ति उनका यह हक छीन रही है। अस्सी के दशक में मुंबई की पत्रकार ओल्गा टेलिस ने बॉम्बे म्युनिसिपल कॉरपोरेशन (बीएमसी) के खिलाफ एक मामला दायर किया कि वह बारिश के मौसम में फुटपाथ पर रहने वालों को वहां से खदेड़ रही है। ओल्गा का कहना था कि लोग बड़े शहरों में रोजगार की तलाश में आते हैं। यह सरकार की आर्थिक नीतियों की विफलता है कि उन्हें अपने इलाकों में रोजगार उपलब्ध नहीं हो पाता और बड़े शहरों में आना पड़ता है। 1985 में सुप्रीम कोर्ट ने ओल्गा की याचिका मंजूर की और कहा कि लोगों को वैकल्पिक स्थान उपलब्ध कराए बिना, उनके मौजूदा घरों को तोड़ने या उन्हें किसी इलाके से खदेड़ने का अधिकार प्रशासन को नहीं है। सेग्रगेशन प्रक्रिया में हालांकि किसी को जबरन खदेड़ा नहीं जाता, लेकिन धीरे-धीरे बुनियादी सुविधाओं से बेदखल कर दिया जाता है। नतीजा वही होता है। शहर की आबादी के एक हिस्से की कीमत पर दूसरा हिस्सा चमकता है और उसे हम शहरी विकास का नाम देते हैं। -साभार -नवभारत टाइम्स-13/जून/2019- |
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14 June 2019
आम व खास की खाई चौड़ी करती अर्बन प्लानिंग-माशा
बहुत ही साधारण लिखने वाला एक बहुत ही साधारण इंसान जिसने 7 वर्ष की उम्र से ही लिखना शुरू कर दिया था। वाणिज्य में स्नातक। अच्छा संगीत सुनने का शौकीन। ब्लॉगिंग में वर्ष 2010 से सक्रिय। एक अग्रणी शैक्षिक प्रकाशन में बतौर हिन्दी प्रूफ रीडर 3 वर्ष का कार्य अनुभव।
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विचारणीय आलेख
ReplyDeleteसटीक लेख
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