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17 December 2019

बहुत देर हो जाएगी .. ..

ठुकराने के बाद, मुझे 
जब करोगे पाने की कोशिश 
बहुत देर हो जाएगी । 

उजड़ जाने के बाद, महफ़िल 
जब करोगे सजाने की कोशिश 
बहुत देर हो जाएगी । 

ये वक़्त थोड़ा सा  ही है, समझ लो
जब करोगे वापस लाने की कोशिश 
बहुत देर हो जाएगी ।  

-यशवन्त माथुर 
17-12-2019 

04 December 2019

क्योंकि वो एक देवी है .. ..

क्योंकि वो एक देवी है 
इसलिए सीमित कर दी गई है 
उसकी भक्ति 
मंदिरों के भीतर 
जहाँ 
गाई जाती है आरती 
बजाई जाती हैं भेंटें 
बोले जाते हैं 
मंत्र और श्लोक। 

क्योंकि वो एक देवी है 
इसलिए 
उसके पाठ 
पढ़ाए जाते हैं 
किताबों में 
ग्रंथों में 
टंकित शब्दों में। 

क्योंकि वो एक देवी है 
इसलिए 
शक्ति है 
भक्ति है 
लेकिन 
गौण है 
उसका मानवीय अस्तित्व। 

वो कैद थी 
और कैद है 
आधुनिकता की 
हदों के भीतर 
जहाँ 
हमने न तो जाना 
न ही जानना चाहते हैं 
कि वो 
कुछ और भी है 
अपने दैहिक स्वरूप और 
आकर्षण के ऊपर;

कि उसके भीतर भी 
रचता-बसता है 
एक मानव 
हमारी-तुम्हारी ही तरह। 

क्योंकि वो एक देवी है 
इसलिए 
हमारे लिए 
उसका सिद्धि रूप 
पूजनीय है 
सिर्फ नवरात्रों में 
अन्यथा 
वह कुछ भी नहीं 
सफेदी की 
कई परतों के भीतर छुपी 
हमारे मन की 
कालिख के ऊपर। 

-यशवन्त माथुर ©
04/12/2019

26 November 2019

फिर भी चलते जाने को............

होती शुरू कहीं से धारा
कहीं मिल कर खो जाने को
कितने ही पड़ाव सहेजती
भविष्य से कह कर जाने को।

उठती-गिरती दर्द को सहती
पथ को अपने चलती रहती
जब तक मिल न जाती उसको
कोई मंजिल तर  जाने को।

ऐसी ही एक धारा बन कर
काश! कि मैं भी चलता जाता
राहों की कुछ सुनता जाता
और कुछ अपनी कहता जाता।

लेकिन जाने क्यूँ अब मुझको
मेरा मैं विद्रोही लगता
माना मनाता समय ये मुझको
मैं तब भी विपरीत ही चलता।

संघर्ष ही है सच्चा साया
समय पर साथ निभाने को
भले ही काँटे बिछे राह में
फिर भी चलते जाने को।

-यशवन्त माथुर© 
26/11/2019 


22 November 2019

अंत की प्रतीक्षा में.......

एक समय
आता है
एक समय
जाता है
अपने भीतर
बहुत से
दर्द समेटे
खुशियां समेटे
क्षणिक सुखों के
कुछ सूक्ष्म
पलों के बाद
दुनियावी मेला
छँट सा जाता है
और हम में  से
हर कोई
नये आरंभ की
प्रत्याशा में
गिनता रहता है
आती-जाती साँसें
अपने अंत की
प्रतीक्षा में।

-यश ©
22/11/2019

08 November 2019

जल ही जीवन है.......

जल ही जन है
जल ही मन है
.
जल ही जीवन है।
.
जल जल कर
जलता मानव
जल जल कर ही
बनता दानव ।
.
जलते जलते यूं ही चल कर
थक कर कहीं रुकता मानव ।
.
जल ही कर्ता
जल ही धर्ता
मीनों के हर
दु:ख का हर्ता।
.
जल ही अर्पण
जल ही प्रण है
.
जल ही जीवन है।

-यशवन्त माथुर ©
08/11/2019

24 October 2019

दो दो आसमां .......

एक ये भी ....... है
एक वो भी आसमां है। 
.
ये ज़मीं से ऊपर है
वो सितारों से नीचे है।
.
एक आसमां
सिरहाने तकिये के
कहीं चैन की नींद सोता है
एक आसमां
किसी चौराहे पर
सरेआम रोता है। 
.
एक आसमां
मन की रारों का है
या नदी के किनारों का है
एक आसमां
सरहदों पर लगे
कँटीले तारों का है।
.
एक आसमां
थोड़ा तुम्हारा है 
थोड़ा हमारा है
एक आसमां में सिर्फ
फिज़ाओं  का बँटवारा है।
.
-यश ©
20/10/2019 


20 October 2019

कुछ कह न सका.....

अफसोस ये कि दिल से कुछ कह न सका,
अफसोस ये कि दिल की कुछ सुन न सका।
यूँ तो राही बनके आया था इस जहां में मगर,
कदम कमज़ोर ये ही थे कि ठीक से चल न सका।
.
-यश©
17/10/2019

08 October 2019

दशहरा मना कर क्या होगा ?

मर न सका जो रावण मन का
पुतले जला कर क्या होगा ?
अज्ञानी थे,अज्ञानी हैं हम
दशहरा मना कर क्या होगा ?

मन के भीतर अंधकार हमारे
मर रहे संस्कार हमारे
केवल कागज़ी सिद्धांतों का
नारा लगाने से क्या होगा ?

एक रंग का लहू है भीतर
तलवार चलाने से क्या होगा?
बन न सके जो इंसान अभी तक
दशहरा मना कर क्या होगा ?

-यश ©
06/10/2019

02 October 2019

रीत युग की बदल रही

श्रद्धा के दो फूल चढ़ाऊँ 
कैसे तुम्हारी समाधि पर? 
रीत युग की बदल रही 
अब खुद की बर्बादी पर। 

सोचता हूँ तुम जहाँ भी होगे 
परिवर्तन को तो देखते होगे 
इन्हीं दिनों के लिए दी कुर्बानी 
तुमने देश की आज़ादी पर ?

नोटों पर छप कर क्या होगा 
आदर्शों की नीलामी पर ?
'हे राम'! ही मालिक अहिंसा के 
सूने चरखे,खादी पर!

-यश ©
01/10/2019 

19 September 2019

उम्मीदें और हम ......

हमारा आज
हमारा कल
हमारा हर पल
चलता है
तो सिर्फ
उन उम्मीदों के साथ
जो
समय का हाथ थाम कर
सिर्फ बढ़ती ही जाती हैं
मृगतृष्णा में
धकेलती ही जाती हैं
और हम
बस उन उम्मीदों के
पूरा होने की चाहत लिए
धँसते ही जाते हैं
फँसते ही जाते हैं
एक अजीब से भंवर में
जहाँ रोशनी नहीं
सिर्फ अंधेरा है
गहरा अंधेरा
दूर-दूर तक
किसी लकीर के
नामो-निशां के बिना
हमें
बस उतरना ही होता है
उठना नहीं,
क्योंकि
हमारा गिरना
द्योतक होता है
उम्मीदों के टूट कर
बिखरते जाने का।

-यश©
19/09/2019  

15 September 2019

कुछ लोग-46

कुछ लोग 
नहीं चाहते बंधना 
नियमों के 
असीम जाल में 
नहीं चाहते 
फंसना 
क्योंकि 
उनका दायरा 
संकुचित होता है 
चारदीवारी के भीतर 
खुद की 
खुशियों तक 
सीमित होता है। 

कुछ लोग 
नहीं चाहते हैं 
टोका जाना 
रोका जाना 
उनको भाता है 
अतिक्रमण....
लांघ कर 
दूसरों की सीमाएँ
चलते जाना।

और जब 
आता है 
ठहराव का 
अंतिम 
अनचाहा पड़ाव 
तब चाह कर भी 
कुछ लोग 
बंध नहीं पाते 
क्योंकि 
अवश्यंभावी होता है 
एक ही 
नीरस चलचित्र का 
बोझिल सा अन्त। 

-यशवन्त माथुर©
15/09/2019
 

08 September 2019

वो बादल भी बरसेंगे........

ये न सोचते कि वही होना है,
जो लिखा के लाए हैं लकीरों पर ।
नयी तकदीरों की झलक दिखती,
गर बदलती तसवीरों पर।
यूं रंग बदले हैं, कई रंग आगे भी बदलेंगे,
अब तक थे जो गरजे, वो बादल भी बरसेंगे।
बस एक इत्तेफाक की उम्मीदों में चराग बुझ जाते हैं
पल गुजरते जाते हैं ,चेहरे बदलते जाते हैं।

-यशवन्त माथुर  ©

06 September 2019

न जाने कौन से एहसानों में........?

वो....
बेसब्री से गिन रहे हैं दिन
मेरी तेरहवीं के इंतजार में
शायद आता है उनको मज़ा
मौत के ही व्यापार में।

हदें अपनी भूल कर
खुद हदों की उम्मीदों में
बेहयाई का ये आलम है
लकीरों के फकीरों में।

है ऐलान यह कि सब अच्छे हैं 
उनके ही गुलिस्तानो में
जाने क्या समझते हैं खुद को
न जाने कौन से एहसानों में?

-यश ©
05092019

01 September 2019

क्या पार कर पाऊँगा?

यूं ही
समय के साथ चलते हुए
कभी-कभी ऐसा लगता है
मानो धारा
छोड़ देना चाहती हो
कहीं -किसी किनारे पर
अकेला
आत्ममंथन के
तिनके चुनने को।

वहाँ
उस किनारे पर
न जाने कितनी सदियों बाद
अनंत की परिक्रमा कर
गर मन चाहा
तो फिर लेने आएगी
खुद में समेटकर
बहा ले जाएगी
वही पुरानी
एक ही धारा। 

लेकिन !
लेकिन तब तक
अपने अंतिम क्षण तक
क्या पार कर पाऊँगा ?
विश्राम की
अग्नि परीक्षा।

-यश ©
01/09/2019

12 August 2019

समय की तसवीरों पर....

पूछता हूँ पता खुद से
खुद को बता नहीं पाता
जमाने की बातों में हरकदम
खुद को ही तलाशता।

क्या पाया क्या नहीं
अक्सर कुछ खोया ही है
बड़े दर्द हैं यहाँ
खुद को ढोया ही है।

न मालूम क्या लिखा है
हाथों की चंद लकीरों पर
जो दिखना है दिखेगा ही
समय की तसवीरों पर।

-यश ©
12/08/2019

04 August 2019

स्वार्थ की जंजीरों में......

कोई दोस्त नहीं होता, दुश्मनों की बस्ती में
जीते हैं कुछ लोग ,बस अपनी ही मस्ती में।

उगते सूरज को सभी, यहाँ सलाम करते हैं
ढलने वाले से , रुखसती का काम करते हैं।

परछाई भी जहाँ, छोड़ देती है साथ निभाना
किसी का सगा नहीं, यह बदलता ज़माना।

मायने अब वो नहीं, जो कभी हुआ करते थे
कायदे अब वो नहीं, बंधे जिनसे रहा करते थे।

दौड़ होती है यहाँ, अक्सर नयी तकदीरों में।
जकड़ गयी है, दोस्ती स्वार्थ की जंजीरों में।

-यश ©
04/08/2019 

05 July 2019

कि मौत आती नहीं.........

वो कौन सी है बात 
जो आँधी बताती नहीं 
उड़ती धूल में भी 
कुछ छुपाती नहीं।   

ये दरख्तों की चीखें हैं 
जो गूंज पाती नहीं 
बेदर्द धरती भी 
कुछ कह पाती नहीं। 

यूं बीत रहा दिन 
कि ये रात जाती नहीं 
गिन रहा हूँ हर पल 
कि मौत आती नहीं। 
-यश©
03/07/2019 

01 July 2019

'छोटू' सिर्फ 'छोटू' नहीं होते

शीशे कारों के
चौराहों पर
कहीं साफ करते हुए
मन में घबराहट
चेहरे पर
मासूम मुस्कान
सहेजे हुए
किसी ढाबे या
दुकान पर
मजदूरी करते हुए
वो देखते हैं सपने
कि
किसी दिन
बहुत दूर होगी
ये लाचारी
बाप की बीमारी।
माँ-भाई-बहनों की
परवरिश का बोझ
अपने नाज़ुक से
कंधों पर लिए
समय से पहले ही
प्रौढ़ता के चरम को
हर कदम
अपने साथ लिए
इन्सानों की
चलती-फिरती
स्याह-सफ़ेद जिंदगी के
हर पहलू में
रचे बसे
स्वनामधन्य
ये 'छोटू'
सिर्फ 'छोटू' नहीं होते
घर के
बड़े होते हैं।

-यश ©
01/07/2019 

21 June 2019

किश्तों में बंटी जिंदगी

न रिश्तों में न फरिश्तों में
जिंदगी बंटी है किश्तों में
जिन्हें चुकाने की हसरत
दिल में लिए
बीत जाती है उमर
चंद मिनटों में।

छन-छन कर मिलती
तनख़्वाह में जीना है
बेशर्म ई.एम. आई. की
न कोई सीमा है
मकान मालिक के ताने
सुनते हुए
सीढ़ी दर सीढ़ी
रोज़ चढ़ना
और उतरना है।

ये क्या है ?
जो चारों तरफ फैला हुआ
किसी मुकाम पर कोई
रोता हुआ-हँसता हुआ
कहीं मुखौटों के भीतर
सच के चेहरे हैं
मिथ्या अँधेरों पर
उजालों के पहरे हैं।

हूँ शर्मिंदा कि
क्रेडिट कार्ड के इस दौर में
मिट रही है लकीर
आम और खास की
क्योंकि किश्तों में बंटी
जिंदगी में
बहुत ज़्यादा है कीमत
किसी प्यासे की प्यास
और हर उखड़ती साँस की।

-यश©
21/जून/2019

14 June 2019

आम व खास की खाई चौड़ी करती अर्बन प्लानिंग-माशा

हाल ही मुंबई में डॉ. पायल तड़वी की मौत के बाद किसी ने टिप्पणी की कि शहरों में दलित-आदिवासी बसते तो हैं, लेकिन उनके बाशिंदे नहीं बन पाते। वहां दलित-सवर्ण खाई साफ नजर आती है। वैसे, यह खाई अमीर-गरीब के बीच भी दिखती है। दुनिया के हर कोने में। अब अर्बन प्लानिंग ही इस तरह की जा रही है कि यह अलगाव अधिकाधिक स्पष्ट होता जाता है। पिछले महीने लंदन के ‘इंडिपेंडेंट’ अखबार में खबर थी कि लंदन में रियल एस्टेट डिवेलपर्स एक ही सोसायटी में अमीर और गरीब निवासियों के साथ भेदभाव करते हैं। हाउसिंग सोसायटी को दो खंडों में बनाया जाता है- लग्जरी होम्स और सोशल हाउसिंग। लग्जरी होम्स वाले सेक्शन में बगीचे और खेल के मैदान भी होते हैं। व्यवस्था यह होती है कि उनमें दूसरे सेक्शन वाले लोग नहीं जा सकते। सोशल हाउसिंग वाले सेक्शन के लिए अलग से छोटा गेट बनाया जाता है। 

ये खास तरह का सेग्रगेशन यानी अलगाव दुनिया के हर देश की सचाई है। सत्तर के दशक में अमेरिकी शहरों में गेटेड सोसायटी की शुरुआत हुई तो अमीर-गरीब वर्गों के बीच का फर्क दिखाई देने लगा। दक्षिण अफ्रीका में रंगभेद के दौर में श्वेत-अश्वेत लोग अलग-अलग हिस्सों में रहते थे। ग्लासगो विश्वविद्यालय (यूके) में रिसर्च असोसिएट बिल्ज सेरिन का शोध बताता है कि शहरी स्पेस में अमीर-गरीब का और जातियों का विभाजन तेजी से बढ़ रहा है। सार्वजनिक सुविधाएं और सेवाएं भी अमीर-गरीब के हिसाब से तय की जा रही हैं। हमारा देश भी इस रवैये से अलग नहीं है। दिल्ली से सटे गुड़गांव की हाउसिंग सोसायटियों में काम करने वाली बाइयों को लिफ्ट वगैरह के इस्तेमाल की इजाजत नहीं है।

दुनिया के हर देश के बड़े शहरों में ऐसी गेटेड सोसायटी मौजूद हैं। यहां दुनिया भर के ऐशो आराम हैं। बस, उनकी कीमत चुकानी होती है। वियतनाम की राजधानी हनोई में इलीट सोसायटी में रहवासियों के लिए शुद्ध हवा, टेनिस गार्डन, ब्यूटी सैलून, पोस्ट ऑफिस सब कुछ है। कनाडा के टोरंटो में विदेशी निवेशकों को आलीशान कॉन्डो मतलब फैंसी अपार्टमेंट खरीदने का मौका मिल रहा है। नाइजीरिया के लागोस में समुद्र को पाटकर प्राइवेट सिटी इको एटलांटिक प्रॉजेक्ट बनाया जा रहा है।

ऐसे लग्जरी अपार्टमेंट्स ने बुनियादी सुविधाओं को कमोडिटी बनाने का काम किया है। साफ हवा, शुद्ध पानी, साफ-सफाई आदि के लिए किसी को पैसे देने पड़ें तो जिनके पास पैसे नहीं हैं, उनका क्या होगा/ होगा यही कि वे बुनियादी सुविधाओं से वंचित होते जाएंगे। लग्जरी अपार्टमेंट्स और सोसायटी के ट्रेंड ने ऐसा ही किया है। इसने प्रशासन की जवाबदेही कम की है और लोगों के कहीं भी बसने के अधिकार का उल्लंघन किया है। हर इनसान को यह हक है कि वह अपने देश के किसी भी कोने में बस सकता है। उसकी बुनियादी जरूरतें पूरी करने की जिम्मेदारी प्रशासन की है। यह प्रवृत्ति उनका यह हक छीन रही है।

अस्सी के दशक में मुंबई की पत्रकार ओल्गा टेलिस ने बॉम्बे म्युनिसिपल कॉरपोरेशन (बीएमसी) के खिलाफ एक मामला दायर किया कि वह बारिश के मौसम में फुटपाथ पर रहने वालों को वहां से खदेड़ रही है। ओल्गा का कहना था कि लोग बड़े शहरों में रोजगार की तलाश में आते हैं। यह सरकार की आर्थिक नीतियों की विफलता है कि उन्हें अपने इलाकों में रोजगार उपलब्ध नहीं हो पाता और बड़े शहरों में आना पड़ता है। 1985 में सुप्रीम कोर्ट ने ओल्गा की याचिका मंजूर की और कहा कि लोगों को वैकल्पिक स्थान उपलब्ध कराए बिना, उनके मौजूदा घरों को तोड़ने या उन्हें किसी इलाके से खदेड़ने का अधिकार प्रशासन को नहीं है।

सेग्रगेशन प्रक्रिया में हालांकि किसी को जबरन खदेड़ा नहीं जाता, लेकिन धीरे-धीरे बुनियादी सुविधाओं से बेदखल कर दिया जाता है। नतीजा वही होता है। शहर की आबादी के एक हिस्से की कीमत पर दूसरा हिस्सा चमकता है और उसे हम शहरी विकास का नाम देते हैं।

-साभार -नवभारत टाइम्स-13/जून/2019- 

13 June 2019

कुछ लोग -45

चौराहों पर
आते जाते
जीवन धारा की
तेज़ रफ्तार में
मंज़िल तक पहुँचने की
जद्दोजहद में लगे
कुछ लोग
कैसे भी कर के
बस पा लेना चाहते हैं
अपना अंतिम पड़ाव
जिसे छूना
नहीं होता
इतना भी आसान
क्योंकि
ये राहें
ये सड़कें
खुद में समाए हुए हैं
अनेकों गड्ढे और
गति अवरोधक....
इनके किनारों पर
कहीं मिलता है
अतिक्रमण
और कहीं
गंदे,बदबूदार
कूड़े के ढेर....
जिन्हें
पार कर के ही
कुछ चुनिन्दा लोग
उकेर सकते हैं
अपना अंतिम बिन्दु।
.
-यश©
13/जून /2019 

08 June 2019

अक्षर-अक्षर मिटता जा रहा हूँ

यहीं कहीं
अपने मन को
किसी कोने में रख कर
बे खयाली में
कहीं खो कर
खुद पर लगे
अनगिनत
प्रश्न चिह्नों को
सहेजते हुए
निर्वात में चलते हुए
अस्तित्वहीनता
के साक्षात स्पर्श की
अधूरी चाह के साथ
'मैं' से दूर होता हुआ
मैं
हर बीतते क्षण के साथ
सिमटता जा रहा हूँ
अक्षर-अक्षर
मिटता जा रहा हूँ ।

-यश ©
08/06/2019

01 June 2019

लाइन में रहते थे मगर साथ-साथ-विजय गोयल

कुछ लोग कहते हैं कि टाइम नहीं है, इसलिए ऑनलाइन सामान मंगवाते हैं। मैं कहता हूं, घर से बाहर ही नहीं निकलोगे तो समाज को क्या जानोगे! ऑनलाइन शॉपिंग ने आज लोगों को अपने तक सिमटाकर रख दिया है 

ऑनलाइन शॉपिंग बेहद सुविधाजनक है। बस आपको घर बैठे-बैठे फोन पर उंगलियां घुमानी हैं। अगले ही दिन सामान आ जाएगा। आपको सामान पसंद नहीं आए तो आप उसे बिना अपना नुकसान किए वापस भी कर सकते हैं। अब शायद ही ऐसी कोई चीज है, जिसे घर बैठे आप मंगवा न सकते हों। आप ऑर्डर करें और सामान आने के बाद उसके पैसे दें। इस व्यापार में कहीं कोई बड़ी धांधली भी नहीं है। ऑनलाइन शॉपिंग के जमाने में, यानी आजकल कपल्स के लिए ‘वी टाइम’ यानी दोनों को अकेले में बतियाने के लिए समय निकालना बहुत मुश्किल है। पूरा दिन काम में निकल जाता है। शाम को घर पहुंचकर हम टीवी देखते हैं और सो जाते हैं। ऐसे में अगर शॉपिंग भी लैपटॉप या मोबाइल से होगी तो आपस में जान-पहचान कब होगी/ 

किसी जमाने में जरूरत की हर चीज लेने के लिए अलग-अलग लाइनें लगती थीं और आदमी घंटों कतार में खड़ा रहता था। मुझे याद है, जब दिल्ली मिल्क स्कीम की बोतलें आती थीं, तब हम उसे लेने के लिए सवेरे-सवेरे लाइनों में लगते ताकि स्कूल जाने के समय से पहले ही दूध घर में आ जाए। सभी भाइयों को अलग-अलग दिन लाइनों में लगना होता था। कई बार तो हम थैले में पत्थर रखकर लाइन में लगा आते थे। भैंस का दूध लेने के लिए भी लाइन लगती थी। हम हर समय अपनी आंखें बाल्टी में गड़ाए रहते थे क्योंकि देखना चाहते थे कि दूधवाला कब दूध में पानी मिलाता है। वह भैंस के थन धोता तो भी हमें लगता कि कहीं वह पानी तो नहीं मिला रहा। पर उसको हमारी इन हरकतों पर कभी गुस्सा नहीं आता था। 

मिट्टी के तेल की लाइन तो बहुत ही मशहूर थी। उस समय मिट्टी के तेल से स्टोव जलाया जाता था और मिट्टी का तेल तब राशन में मिला करता था। मिट्टी का तेल पा लेने का मतलब था बहुत बड़ी उपलब्धि प्राप्त करना। स्टोव से पहले अंगीठी पर खाना बना करता था तो घर में कोयला और लकड़ी दोनों आती थी। कोयले की भी लाइन हुआ करती थी। पुराने अखबार और कागजों को जला कर अंगीठी सवेरे-सवेरे जलाते थे। जब तक वह बुझ न जाए, तब तक मां की कोशिश रहती थी कि उस पर एक-एक भगोना नहाने के लिए पानी भी गर्म हो जाए और स्कूल जाने से पहले बच्चों के लिए खाना भी बन जाए। सारे घर में इस अंगीठी का धुआं ही धुआं हो जाता था।

राशन की दुकान पर तो सबसे ज्यादा लाइनें थी। हम पांच भाई-बहन थे। कोई एक लाइन में लगता तो कोई दूसरी लाइन में लगता। दिक्कत तो उनको थी, जिनके घर बच्चे नहीं थे। उन्हें चारों तरफ खुद भागना पड़ता था। उन दिनों नौकर भी नहीं हुआ करते थे और खर्चा भी बड़े संयम से किया जाता था। आजकल के बच्चों को यह जानकर बड़ा ताज्जुब होगा कि टेलीफोन, बिजली और पानी के बिल जमा करने के लिए भी लाइनें थीं। सुपर बाजार में सामान खरीदने के लिए भी लाइनें थीं और बसों के लिए भी। 

पिछले दिनों मैंने किसी से पूछा कि अब बस की लाइनें नहीं लगती हैं क्या, तो उसने तपाक से कहा, बसें ही अब कहां हैं जो लाइनें लगेंगी। आपको याद होगा कि घरों में गेहूं को खुद ही साफ करके चक्की पर पिसवाने ले जाया करते थे। हम खुद पीपा उठाकर चक्की तक जाते थे और वहां पर भी लाइन लगी होती थी। वहां देखते थे कि कहीं हमारे बढ़िया गेहूं से पिसते आटे में उसने अपना आटा तो नहीं मिला दिया, या आटा कम तो नहीं दिया/ 

तब लोग खूब मोल-भाव करके खरीदारी करते थे। महिलाएं सब्जी खरीदते हुए जब तक मुफ्त में धनिया और मिर्च न डलवा लें, तब तक उन्हें संतोष नहीं होता था। ये लाइनें बड़ा संयम सिखाती थीं। गर्मी-सर्दी का कोई असर न था। पता नहीं, अब लाइनों का वह समय कहां जा रहा है। ऐसा तो नहीं लगता कि इन लाइनों का समय बचा कर हम बहुत बड़े तीर मार रहे हों। बाहर की लाइनें तो खत्म हुई, पर मन के भीतर की लाइनें लंबी हैं। 

हमारी चाहतें बहुत बढ़ गई हैं लेकिन मन अशांत है। तब लंबी-लंबी कतारों के बावजूद तन और मन दोनों शांत थे। आज ऑनलाइन ने अड़ोस-पड़ोस तो खत्म कर ही दिया है, रिश्तेदारी भी खत्म कर दी। खुद वस्तुएं देखकर खरीदने का जो सुख था, वह भी खत्म हो गया। ऐसा लगता है कि लेने के लिए चीजें ली जा रही हैं, चाहे उनकी जरूरत भी न हो। मुझे याद है कि पहले पूरा परिवार मिलकर शॉपिंग करने जाता था। पर अब कोई भी अपने बंद कमरे में बैठकर किसी भी चीज का ऑनलाइन ऑर्डर कर देता है, घर में किसी दूसरे को पता भी नहीं चलता। आप मोबाइल पर ऑनलाइन काम कर रहे हैं। आपको कोई चीज दिखाई देती है, आपको जरूरत न हो तो भी आप बटन दबाकर उस चीज का ऑर्डर कर देते हैं। 

तब जिंदगी अच्छी-खासी लाइन में गुजर जाती थी, पर कतारों के भी बड़े फायदे थे। इसमें खड़े-खड़े दुनिया भर की बातें होती थीं। पता चल जाता था कि पास-पड़ोस में क्या चल रहा है। एक तरह से इन लाइनों के कारण समाज में सब जुड़े हुए थे। इन्हीं लाइनों में तकरारें, झगड़े भी हो जाते थे, पर उनमें भी एक मिठास थी। और इन्हीं लाइनों में प्रेम-मोहब्बत के किस्से भी हो जाते थे। आज सारा देश, खास तौर से नई पीढ़ी ऑनलाइन की लाइन में लग गई है। लेकिन ऑनलाइन शॉपिंग ने इंसान को इंसान से काट दिया है। कुछ लोग कहते हैं कि टाइम नहीं है, इसलिए ऑनलाइन सामान मंगवाते हैं। पर मैं कहता हूं कि घर से बाहर ही नहीं निकलोगे तो समाज को क्या जानोगे, देश की समस्याओं को क्या पहचानोगे! 

(लेखकराज्यसभा सांसद हैं)

साभार -नवभारत टाइम्स-01/06/2019 

16 May 2019

काश! इसे समझ पाऊँ मैं.......

रात के गहरे
सुनसान में
अन्तर्मन के
घमासान में
आए नींद तो
सो जाऊँ मैं
सपनों में कहीं
खो जाऊँ मैं। 

सपने जो
दिखलाते हकीकत
भूत और वर्तमान की
सपने जो
झलक दिखाते
भविष्य के पूर्वानुमान की।

सब कुछ समझ कर
जानकर फिर भी
क्यूँ खुद का अहं
दिखाऊँ मैं
छल-प्रपंच ही
सत्य जीवन का
काश!
इसे समझ पाऊँ मैं।

-यश©
16/मई/2019 

इमारतों की ओर से वो तकता है


झुरमुटों की ओट से जो कभी निकलता था,
आजकल इमारतों की ओर से वो तकता है
असर उस पर भी है इस ज़ालिम ज़माने का
कि सुबह का सूरज भी बदल गया लगता है।

यश ©
20/12/2018

12 May 2019

सारांश संभव नहीं .....



अक्सर हम
कहना चाहते हैं
कुछ बातें
सारांश में
जिनके आरंभ से
अन्त तक की दूरी
कम से कम हो
और
शब्दों में
पूरा दम हो
लेकिन
हो नहीं पाता संभव
सार
क्योंकि
बनते हुए विचार
जब छूते हैं
अपना चरम
तब तक
खिंच चुकी होती हैं
सैकड़ों लकीरें ....
पड़ चुके होते हैं ...
निशान
कुछ काटे हुए
कुछ मिटाए हुए
और
बढ़ चुके होते हैं फासले
समय के पन्ने पर
आरंभ से
अन्त के।

-यश ©
12/मई/2019

01 May 2019

क्योंकि वो मजदूरी करता है





क्योंकि वो मजदूरी  करता है
किसी ऊंची इमारत पर
पटरे से लटकता है
गिरता है, मरता है
हर मौसम में
बदज़ुबानी और
जिल्लत को जीता है
क्योंकि वो मजदूरी करता है ।

क्योंकि वो मजदूरी करता है
लौट कर
अपने छोटे से घोंसले में
मिट्टी के चूल्हे पर सिकती
रोटियों को गिनता है
खाता-पीता है, सोता है
क्योंकि वो मजदूरी करता है ।

क्योंकि वो मजदूरी करता है
उसका दिन,उसकी रात
उसकी हर बात
उसका हर पल
नए कल की तलाश में
गुमशुदा सा रहता है
क्योंकि वो मजदूरी करता है ।

क्योंकि वो मजदूरी करता है
उसके रिश्ते-नाते
समाज,घर और परिवार
हर पैमाने पर
अपनी मासिक आय से
वो तुलता सा रहता है
क्योंकि वो मजदूरी करता है ।

क्योंकि वो मजदूरी करता है
इसलिए, है तो वो नौकर ही
जो खुद से बेपरवाह
बस अपने मालिक के रहम पर
पसीने से तर-बतर
अपना करम करता है
क्योंकि वो मजदूरी करता है ।

-यश ©
01/05/2019

20 April 2019

आओ वोट करें

यही अधिकार-कर्तव्य हमारा
इसका प्रयोग करें
समय आ गया चुनावों का
आओ वोट करें।

लोकतंत्र का मर्म यही है
चुनना उसको जो सही है
पाँच साल का लेखा-जोखा
सबके पास खाता-बही है।

दल के दलदल में मत फंसना
जात-पात से किनारा करना
बिना  प्रलोभन बूथ पर जाना
ई. वी. एम. का बटन दबाना ।

गर्व यही स्वाभिमान हमारा
हर खोट पर इससे चोट करें
समय आ गया चुनावों का
आओ वोट करें।

-यश©
18 मार्च 2019 

10 April 2019

यहाँ न कोई किस्सा हो........

न गिला-शिकवा हो कोई,
न अपना कोई किस्सा हो।
बीत जाए जो ये ज़िन्दगी,
तो फिर कितना अच्छा हो।
.
बहुत पल बीते बहार में,
यह पतझड़ का दौर है।
अपना न कोई बेगानों में,
मौत ही अब एक ठौर है।
.
वो कहते हैं मैं सुनता हूं,
ये बात न हो तो अच्छा हो।
बीते कल की दोहराहट का,
यहाँ न कोई किस्सा हो।
.
~यश©
09/04/2019

09 April 2019

क्योंकि वो नौकरी करता है .........

क्योंकि वो नौकरी करता है
दिन भर
कोई अपने दफ्तर में
कोई हर मौसम में
बदज़ुबानी और
जिल्लत को जीता है
क्योंकि वो नौकरी करता है ।

क्योंकि वो नौकरी करता है
लौट कर
अपने छोटे से घोंसले में
बे-हौसला, बे-हाल 
बस उनींदा सा
चिड़चिड़ा सा रहता है 
क्योंकि वो नौकरी करता है ।

क्योंकि वो नौकरी करता है
उसका दिन,उसकी रात
उसकी हर बात
उसका हर पल
सिर्फ 'लक्ष्य' की चिंता में
कहीं डूबा सा रहता है
क्योंकि वो नौकरी करता है ।

क्योंकि वो नौकरी करता है
उसके रिश्ते-नाते
समाज,घर और परिवार
हर पैमाने पर
अपनी मासिक आय से
वो तुलता सा रहता है
क्योंकि वो नौकरी करता है ।

क्योंकि वो नौकरी करता है
इसलिए, है तो वो नौकर ही
जो खुद से बेपरवाह
बस अपने मालिक के रहम पर
पसीने से तर-बतर
अपना करम करता है
क्योंकि वो नौकरी करता है ।

-यश©
09/04/2019

02 April 2019

इतिहास ......

हर दिन लिखा जाता है
हर दिन मिटाया जाता है
इतिहास वो होता है जो
हर पल बनाया जाता है।

फिर ऐसी क्या बात का कहना
है आज हमारा कल का गहना
आते- जाते उठकर-गिरकर
रुक कर कभी थोड़ा चल कर। 

वक़्त का हर एक पन्ना अपनी
किस्मत से छपता जाता है
समय की अमिट सियाही से
इतिहास बनता जाता है।

कभी कपट, छल, दंभ, द्वेष से
मुखौटों से या बदलते परिवेश से
सच नहीं बन सकता झूठ कभी
कुछ नहीं होगा किसी आडंबर से।

हर दिन बताया जाता है
हर दिन समझाया जाता है
इतिहास वो होता है जिसको
बदलाव दिखाना आता  है।

-यश ©
02/04/2019

26 March 2019

वक़्त के कत्लखाने में-16

कानों में गूँजता संगीत 
चाहे जिस भी राग 
धुन या साज से सजा हो 
अपने आप में 
मधुर होते हुए भी 
लगने लगता है
कभी कभी 
कर्कश  
क्योंकि 
एक खास स्थिति में 
मन 
जब बोझिल 
या उलझा सा होता है 
उसका कोई कोना 
कहीं खोया सा होता है 
तब सिर्फ 
शून्य सा होता है 
मन के हर तहखाने में 
जीवंतता का प्रमाण 
मांगने लगती है
परछाई भी 
वक़्त के 
इसी कत्लखाने में। 

-यश ©
26/03/2019

23 March 2019

मैं नास्तिक क्यों हूँ?............भगत सिंह

यह लेख भगत सिंह ने जेल में रहते हुए लिखा था और यह 27 सितम्बर 1931 को लाहौर के अखबार “ द पीपल “ में प्रकाशित हुआ । इस लेख में भगतसिंह ने ईश्वर कि उपस्थिति पर अनेक तर्कपूर्ण सवाल खड़े किये हैं और इस संसार के निर्माण , मनुष्य के जन्म , मनुष्य के मन में ईश्वर की कल्पना के साथ साथ संसार में मनुष्य की दीनता , उसके शोषण , दुनिया में व्याप्त अराजकता और और वर्गभेद की स्थितियों का भी विश्लेषण किया है । यह भगत सिंह के लेखन के सबसे चर्चित हिस्सों में रहा है।
स्वतन्त्रता सेनानी बाबा रणधीर सिंह 1930-31के बीच लाहौर के सेन्ट्रल जेल में कैद थे। वे एक धार्मिक व्यक्ति थे जिन्हें यह जान कर बहुत कष्ट हुआ कि भगतसिंह का ईश्वर पर विश्वास नहीं है। वे किसी तरह भगत सिंह की कालकोठरी में पहुँचने में सफल हुए और उन्हें ईश्वर के अस्तित्व पर यकीन दिलाने की कोशिश की। असफल होने पर बाबा ने नाराज होकर कहा, “प्रसिद्धि से तुम्हारा दिमाग खराब हो गया है और तुम अहंकारी बन गए हो जो कि एक काले पर्दे के तरह तुम्हारे और ईश्वर के बीच खड़ी है। इस टिप्पणी के जवाब में ही भगतसिंह ने यह लेख लिखा।

एक नया प्रश्न उठ खड़ा हुआ है। क्या मैं किसी अहंकार के कारण सर्वशक्तिमान, सर्वव्यापी तथा सर्वज्ञानी ईश्वर के अस्तित्व पर विश्वास नहीं करता हूँ? मेरे कुछ दोस्त – शायद ऐसा कहकर मैं उन पर बहुत अधिकार नहीं जमा रहा हूँ – मेरे साथ अपने थोड़े से सम्पर्क में इस निष्कर्ष पर पहुँचने के लिये उत्सुक हैं कि मैं ईश्वर के अस्तित्व को नकार कर कुछ ज़रूरत से ज़्यादा आगे जा रहा हूँ और मेरे घमण्ड ने कुछ हद तक मुझे इस अविश्वास के लिये उकसाया है। मैं ऐसी कोई शेखी नहीं बघारता कि मैं मानवीय कमज़ोरियों से बहुत ऊपर हूँ। मैं एक मनुष्य हूँ, और इससे अधिक कुछ नहीं। कोई भी इससे अधिक होने का दावा नहीं कर सकता। यह कमज़ोरी मेरे अन्दर भी है। अहंकार भी मेरे स्वभाव का अंग है। अपने कामरेडो के बीच मुझे निरंकुश कहा जाता था। यहाँ तक कि मेरे दोस्त श्री बटुकेश्वर कुमार दत्त भी मुझे कभी-कभी ऐसा कहते थे। कई मौकों पर स्वेच्छाचारी कह मेरी निन्दा भी की गयी। कुछ दोस्तों को शिकायत है, और गम्भीर रूप से है कि मैं अनचाहे ही अपने विचार, उन पर थोपता हूँ और अपने प्रस्तावों को मनवा लेता हूँ। यह बात कुछ हद तक सही है। इससे मैं इनकार नहीं करता। इसे अहंकार कहा जा सकता है। जहाँ तक अन्य प्रचलित मतों के मुकाबले हमारे अपने मत का सवाल है। मुझे निश्चय ही अपने मत पर गर्व है। लेकिन यह व्यक्तिगत नहीं है। ऐसा हो सकता है कि यह केवल अपने विश्वास के प्रति न्यायोचित गर्व हो और इसको घमण्ड नहीं कहा जा सकता। घमण्ड तो स्वयं के प्रति अनुचित गर्व की अधिकता है। क्या यह अनुचित गर्व है, जो मुझे नास्तिकता की ओर ले गया? अथवा इस विषय का खूब सावधानी से अध्ययन करने और उस पर खूब विचार करने के बाद मैंने ईश्वर पर अविश्वास किया?
मैं यह समझने में पूरी तरह से असफल रहा हूँ कि अनुचित गर्व या वृथाभिमान किस तरह किसी व्यक्ति के ईश्वर में विश्वास करने के रास्ते में रोड़ा बन सकता है? किसी वास्तव में महान व्यक्ति की महानता को मैं मान्यता न दूँ – यह तभी हो सकता है, जब मुझे भी थोड़ा ऐसा यश प्राप्त हो गया हो जिसके या तो मैं योग्य नहीं हूँ या मेरे अन्दर वे गुण नहीं हैं, जो इसके लिये आवश्यक हैं। यहाँ तक तो समझ में आता है। लेकिन यह कैसे हो सकता है कि एक व्यक्ति, जो ईश्वर में विश्वास रखता हो, सहसा अपने व्यक्तिगत अहंकार के कारण उसमें विश्वास करना बन्द कर दे? दो ही रास्ते सम्भव हैं। या तो मनुष्य अपने को ईश्वर का प्रतिद्वन्द्वी समझने लगे या वह स्वयं को ही ईश्वर मानना शुरू कर दे। इन दोनो ही अवस्थाओं में वह सच्चा नास्तिक नहीं बन सकता। पहली अवस्था में तो वह अपने प्रतिद्वन्द्वी के अस्तित्व को नकारता ही नहीं है। दूसरी अवस्था में भी वह एक ऐसी चेतना के अस्तित्व को मानता है, जो पर्दे के पीछे से प्रकृति की सभी गतिविधियों का संचालन करती है। मैं तो उस सर्वशक्तिमान परम आत्मा के अस्तित्व से ही इनकार करता हूँ। यह अहंकार नहीं है, जिसने मुझे नास्तिकता के सिद्धान्त को ग्रहण करने के लिये प्रेरित किया। मैं न तो एक प्रतिद्वन्द्वी हूँ, न ही एक अवतार और न ही स्वयं परमात्मा। इस अभियोग को अस्वीकार करने के लिये आइए तथ्यों पर गौर करें। मेरे इन दोस्तों के अनुसार, दिल्ली बम केस और लाहौर षडयन्त्र केस के दौरान मुझे जो अनावश्यक यश मिला, शायद उस कारण मैं वृथाभिमानी हो गया हूँ।
मेरा नास्तिकतावाद कोई अभी हाल की उत्पत्ति नहीं है। मैंने तो ईश्वर पर विश्वास करना तब छोड़ दिया था, जब मैं एक अप्रसिद्ध नौजवान था। कम से कम एक कालेज का विद्यार्थी तो ऐसे किसी अनुचित अहंकार को नहीं पाल-पोस सकता, जो उसे नास्तिकता की ओर ले जाये। यद्यपि मैं कुछ अध्यापकों का चहेता था तथा कुछ अन्य को मैं अच्छा नहीं लगता था। पर मैं कभी भी बहुत मेहनती अथवा पढ़ाकू विद्यार्थी नहीं रहा। अहंकार जैसी भावना में फँसने का कोई मौका ही न मिल सका। मैं तो एक बहुत लज्जालु स्वभाव का लड़का था, जिसकी भविष्य के बारे में कुछ निराशावादी प्रकृति थी। मेरे बाबा, जिनके प्रभाव में मैं बड़ा हुआ, एक रूढ़िवादी आर्य समाजी हैं। एक आर्य समाजी और कुछ भी हो, नास्तिक नहीं होता। अपनी प्राथमिक शिक्षा पूरी करने के बाद मैंने डी0 ए0 वी0 स्कूल, लाहौर में प्रवेश लिया और पूरे एक साल उसके छात्रावास में रहा। वहाँ सुबह और शाम की प्रार्थना के अतिरिक्त में घण्टों गायत्री मंत्र जपा करता था। उन दिनों मैं पूरा भक्त था। बाद में मैंने अपने पिता के साथ रहना शुरू किया। जहाँ तक धार्मिक रूढ़िवादिता का प्रश्न है, वह एक उदारवादी व्यक्ति हैं। उन्हीं की शिक्षा से मुझे स्वतन्त्रता के ध्येय के लिये अपने जीवन को समर्पित करने की प्रेरणा मिली। किन्तु वे नास्तिक नहीं हैं। उनका ईश्वर में दृढ़ विश्वास है। वे मुझे प्रतिदिन पूजा-प्रार्थना के लिये प्रोत्साहित करते रहते थे। इस प्रकार से मेरा पालन-पोषण हुआ। असहयोग आन्दोलन के दिनों में राष्ट्रीय कालेज में प्रवेश लिया। यहाँ आकर ही मैंने सारी धार्मिक समस्याओं – यहाँ तक कि ईश्वर के अस्तित्व के बारे में उदारतापूर्वक सोचना, विचारना तथा उसकी आलोचना करना शुरू किया। पर अभी भी मैं पक्का आस्तिक था। उस समय तक मैं अपने लम्बे बाल रखता था। यद्यपि मुझे कभी-भी सिक्ख या अन्य धर्मों की पौराणिकता और सिद्धान्तों में विश्वास न हो सका था। किन्तु मेरी ईश्वर के अस्तित्व में दृढ़ निष्ठा थी। बाद में मैं क्रान्तिकारी पार्टी से जुड़ा। वहाँ जिस पहले नेता से मेरा सम्पर्क हुआ वे तो पक्का विश्वास न होते हुए भी ईश्वर के अस्तित्व को नकारने का साहस ही नहीं कर सकते थे। ईश्वर के बारे में मेरे हठ पूर्वक पूछते रहने पर वे कहते, ‘'जब इच्छा हो, तब पूजा कर लिया करो।'’ यह नास्तिकता है, जिसमें साहस का अभाव है। दूसरे नेता, जिनके मैं सम्पर्क में आया, पक्के श्रद्धालु आदरणीय कामरेड शचीन्द्र नाथ सान्याल आजकल काकोरी षडयन्त्र केस के सिलसिले में आजीवन कारवास भोग रहे हैं। उनकी पुस्तक ‘बन्दी जीवन’ ईश्वर की महिमा का ज़ोर-शोर से गान है। उन्होंने उसमें ईश्वर के ऊपर प्रशंसा के पुष्प रहस्यात्मक वेदान्त के कारण बरसाये हैं। 28 जनवरी, 1925 को पूरे भारत में जो ‘दि रिवोल्यूशनरी’ (क्रान्तिकारी) पर्चा बाँटा गया था, वह उन्हीं के बौद्धिक श्रम का परिणाम है। उसमें सर्वशक्तिमान और उसकी लीला एवं कार्यों की प्रशंसा की गयी है। मेरा ईश्वर के प्रति अविश्वास का भाव क्रान्तिकारी दल में भी प्रस्फुटित नहीं हुआ था। काकोरी के सभी चार शहीदों ने अपने अन्तिम दिन भजन-प्रार्थना में गुजारे थे। राम प्रसाद ‘बिस्मिल’ एक रूढ़िवादी आर्य समाजी थे। समाजवाद तथा साम्यवाद में अपने वृहद अध्ययन के बावजूद राजेन लाहड़ी उपनिषद एवं गीता के श्लोकों के उच्चारण की अपनी अभिलाषा को दबा न सके। मैंने उन सब मे सिर्फ एक ही व्यक्ति को देखा, जो कभी प्रार्थना नहीं करता था और कहता था, ‘'दर्शन शास्त्र मनुष्य की दुर्बलता अथवा ज्ञान के सीमित होने के कारण उत्पन्न होता है। वह भी आजीवन निर्वासन की सजा भोग रहा है। परन्तु उसने भी ईश्वर के अस्तित्व को नकारने की कभी हिम्मत नहीं की।
इस समय तक मैं केवल एक रोमान्टिक आदर्शवादी क्रान्तिकारी था। अब तक हम दूसरों का अनुसरण करते थे। अब अपने कन्धों पर ज़िम्मेदारी उठाने का समय आया था। यह मेरे क्रान्तिकारी जीवन का एक निर्णायक बिन्दु था। ‘अध्ययन’ की पुकार मेरे मन के गलियारों में गूँज रही थी – विरोधियों द्वारा रखे गये तर्कों का सामना करने योग्य बनने के लिये अध्ययन करो। अपने मत के पक्ष में तर्क देने के लिये सक्षम होने के वास्ते पढ़ो। मैंने पढ़ना शुरू कर दिया। इससे मेरे पुराने विचार व विश्वास अद्भुत रूप से परिष्कृत हुए। रोमांस की जगह गम्भीर विचारों ने ली ली। न और अधिक रहस्यवाद, न ही अन्धविश्वास। यथार्थवाद हमारा आधार बना। मुझे विश्वक्रान्ति के अनेक आदर्शों के बारे में पढ़ने का खूब मौका मिला। मैंने अराजकतावादी नेता बाकुनिन को पढ़ा, कुछ साम्यवाद के पिता माक्र्स को, किन्तु अधिक लेनिन, त्रात्स्की, व अन्य लोगों को पढ़ा, जो अपने देश में सफलतापूर्वक क्रान्ति लाये थे। ये सभी नास्तिक थे। बाद में मुझे निरलम्ब स्वामी की पुस्तक ‘सहज ज्ञान’ मिली। इसमें रहस्यवादी नास्तिकता थी। 1926 के अन्त तक मुझे इस बात का विश्वास हो गया कि एक सर्वशक्तिमान परम आत्मा की बात, जिसने ब्रह्माण्ड का सृजन, दिग्दर्शन और संचालन किया, एक कोरी बकवास है। मैंने अपने इस अविश्वास को प्रदर्शित किया। मैंने इस विषय पर अपने दोस्तों से बहस की। मैं एक घोषित नास्तिक हो चुका था।
मई 1927 में मैं लाहौर में गिरफ़्तार हुआ। रेलवे पुलिस हवालात में मुझे एक महीना काटना पड़ा। पुलिस अफ़सरों ने मुझे बताया कि मैं लखनऊ में था, जब वहाँ काकोरी दल का मुकदमा चल रहा था, कि मैंने उन्हें छुड़ाने की किसी योजना पर बात की थी, कि उनकी सहमति पाने के बाद हमने कुछ बम प्राप्त किये थे, कि 1927 में दशहरा के अवसर पर उन बमों में से एक परीक्षण के लिये भीड़ पर फेंका गया, कि यदि मैं क्रान्तिकारी दल की गतिविधियों पर प्रकाश डालने वाला एक वक्तव्य दे दूँ, तो मुझे गिरफ़्तार नहीं किया जायेगा और इसके विपरीत मुझे अदालत में मुखबिर की तरह पेश किये बेगैर रिहा कर दिया जायेगा और इनाम दिया जायेगा। मैं इस प्रस्ताव पर हँसा। यह सब बेकार की बात थी। हम लोगों की भाँति विचार रखने वाले अपनी निर्दोष जनता पर बम नहीं फेंका करते। एक दिन सुबह सी0 आई0 डी0 के वरिष्ठ अधीक्षक श्री न्यूमन ने कहा कि यदि मैंने वैसा वक्तव्य नहीं दिया, तो मुझ पर काकोरी केस से सम्बन्धित विद्रोह छेड़ने के षडयन्त्र तथा दशहरा उपद्रव में क्रूर हत्याओं के लिये मुकदमा चलाने पर बाध्य होंगे और कि उनके पास मुझे सजा दिलाने व फाँसी पर लटकवाने के लिये उचित प्रमाण हैं। उसी दिन से कुछ पुलिस अफ़सरों ने मुझे नियम से दोनो समय ईश्वर की स्तुति करने के लिये फुसलाना शुरू किया। पर अब मैं एक नास्तिक था। मैं स्वयं के लिये यह बात तय करना चाहता था कि क्या शान्ति और आनन्द के दिनों में ही मैं नास्तिक होने का दम्भ भरता हूँ या ऐसे कठिन समय में भी मैं उन सिद्धान्तों पर अडिग रह सकता हूँ। बहुत सोचने के बाद मैंने निश्चय किया कि किसी भी तरह ईश्वर पर विश्वास तथा प्रार्थना मैं नहीं कर सकता। नहीं, मैंने एक क्षण के लिये भी नहीं की। यही असली परीक्षण था और मैं सफल रहा। अब मैं एक पक्का अविश्वासी था और तब से लगातार हूँ। इस परीक्षण पर खरा उतरना आसान काम न था। ‘विश्वास’ कष्टों को हलका कर देता है। यहाँ तक कि उन्हें सुखकर बना सकता है। ईश्वर में मनुष्य को अत्यधिक सान्त्वना देने वाला एक आधार मिल सकता है। उसके बिना मनुष्य को अपने ऊपर निर्भर करना पड़ता है। तूफ़ान और झंझावात के बीच अपने पाँवों पर खड़ा रहना कोई बच्चों का खेल नहीं है। परीक्षा की इन घड़ियों में अहंकार यदि है, तो भाप बन कर उड़ जाता है और मनुष्य अपने विश्वास को ठुकराने का साहस नहीं कर पाता। यदि ऐसा करता है, तो इससे यह निष्कर्ष निकलता है कि उसके पास सिर्फ़ अहंकार नहीं वरन् कोई अन्य शक्ति है। आज बिलकुल वैसी ही स्थिति है। निर्णय का पूरा-पूरा पता है। एक सप्ताह के अन्दर ही यह घोषित हो जायेगा कि मैं अपना जीवन एक ध्येय पर न्योछावर करने जा रहा हूँ। इस विचार के अतिरिक्त और क्या सान्त्वना हो सकती है? ईश्वर में विश्वास रखने वाला हिन्दू पुनर्जन्म पर राजा होने की आशा कर सकता है। एक मुसलमान या ईसाई स्वर्ग में व्याप्त समृद्धि के आनन्द की तथा अपने कष्टों और बलिदान के लिये पुरस्कार की कल्पना कर सकता है। किन्तु मैं क्या आशा करूँ? मैं जानता हूँ कि जिस क्षण रस्सी का फ़न्दा मेरी गर्दन पर लगेगा और मेरे पैरों के नीचे से तख़्ता हटेगा, वह पूर्ण विराम होगा – वह अन्तिम क्षण होगा। मैं या मेरी आत्मा सब वहीं समाप्त हो जायेगी। आगे कुछ न रहेगा। एक छोटी सी जूझती हुई ज़िन्दगी, जिसकी कोई ऐसी गौरवशाली परिणति नहीं है, अपने में स्वयं एक पुरस्कार होगी – यदि मुझमें इस दृष्टि से देखने का साहस हो। बिना किसी स्वार्थ के यहाँ या यहाँ के बाद पुरस्कार की इच्छा के बिना, मैंने अनासक्त भाव से अपने जीवन को स्वतन्त्रता के ध्येय पर समर्पित कर दिया है, क्योंकि मैं और कुछ कर ही नहीं सकता था। जिस दिन हमें इस मनोवृत्ति के बहुत-से पुरुष और महिलाएँ मिल जायेंगे, जो अपने जीवन को मनुष्य की सेवा और पीड़ित मानवता के उद्धार के अतिरिक्त कहीं समर्पित कर ही नहीं सकते, उसी दिन मुक्ति के युग का शुभारम्भ होगा। वे शोषकों, उत्पीड़कों और अत्याचारियों को चुनौती देने के लिये उत्प्रेरित होंगे। इस लिये नहीं कि उन्हें राजा बनना है या कोई अन्य पुरस्कार प्राप्त करना है यहाँ या अगले जन्म में या मृत्योपरान्त स्वर्ग में। उन्हें तो मानवता की गर्दन से दासता का जुआ उतार फेंकने और मुक्ति एवं शान्ति स्थापित करने के लिये इस मार्ग को अपनाना होगा। क्या वे उस रास्ते पर चलेंगे जो उनके अपने लिये ख़तरनाक किन्तु उनकी महान आत्मा के लिये एक मात्र कल्पनीय रास्ता है। क्या इस महान ध्येय के प्रति उनके गर्व को अहंकार कहकर उसका गलत अर्थ लगाया जायेगा? कौन इस प्रकार के घृणित विशेषण बोलने का साहस करेगा? या तो वह मूर्ख है या धूर्त। हमें चाहिए कि उसे क्षमा कर दें, क्योंकि वह उस हृदय में उद्वेलित उच्च विचारों, भावनाओं, आवेगों तथा उनकी गहराई को महसूस नहीं कर सकता। उसका हृदय मांस के एक टुकड़े की तरह मृत है। उसकी आँखों पर अन्य स्वार्थों के प्रेतों की छाया पड़ने से वे कमज़ोर हो गयी हैं। स्वयं पर भरोसा रखने के गुण को सदैव अहंकार की संज्ञा दी जा सकती है। यह दुखपूर्ण और कष्टप्रद है, पर चारा ही क्या है?
आलोचना और स्वतन्त्र विचार एक क्रान्तिकारी के दोनो अनिवार्य गुण हैं। क्योंकि हमारे पूर्वजों ने किसी परम आत्मा के प्रति विश्वास बना लिया था। अतः कोई भी व्यक्ति जो उस विश्वास को सत्यता या उस परम आत्मा के अस्तित्व को ही चुनौती दे, उसको विधर्मी, विश्वासघाती कहा जायेगा। यदि उसके तर्क इतने अकाट्य हैं कि उनका खण्डन वितर्क द्वारा नहीं हो सकता और उसकी आस्था इतनी प्रबल है कि उसे ईश्वर के प्रकोप से होने वाली विपत्तियों का भय दिखा कर दबाया नहीं जा सकता तो उसकी यह कह कर निन्दा की जायेगी कि वह वृथाभिमानी है। यह मेरा अहंकार नहीं था, जो मुझे नास्तिकता की ओर ले गया। मेरे तर्क का तरीका संतोषप्रद सिद्ध होता है या नहीं इसका निर्णय मेरे पाठकों को करना है, मुझे नहीं। मैं जानता हूँ कि ईश्वर पर विश्वास ने आज मेरा जीवन आसान और मेरा बोझ हलका कर दिया होता। उस पर मेरे अविश्वास ने सारे वातावरण को अत्यन्त शुष्क बना दिया है। थोड़ा-सा रहस्यवाद इसे कवित्वमय बना सकता है। किन्तु मेरे भाग्य को किसी उन्माद का सहारा नहीं चाहिए। मैं यथार्थवादी हूँ। मैं अन्तः प्रकृति पर विवेक की सहायता से विजय चाहता हूँ। इस ध्येय में मैं सदैव सफल नहीं हुआ हूँ। प्रयास करना मनुष्य का कर्तव्य है। सफलता तो संयोग तथा वातावरण पर निर्भर है। कोई भी मनुष्य, जिसमें तनिक भी विवेक शक्ति है, वह अपने वातावरण को तार्किक रूप से समझना चाहेगा। जहाँ सीधा प्रमाण नहीं है, वहाँ दर्शन शास्त्र का महत्व है। जब हमारे पूर्वजों ने फुरसत के समय विश्व के रहस्य को, इसके भूत, वर्तमान एवं भविष्य को, इसके क्यों और कहाँ से को समझने का प्रयास किया तो सीधे परिणामों के कठिन अभाव में हर व्यक्ति ने इन प्रश्नों को अपने ढ़ंग से हल किया। यही कारण है कि विभिन्न धार्मिक मतों में हमको इतना अन्तर मिलता है, जो कभी-कभी वैमनस्य तथा झगड़े का रूप ले लेता है। न केवल पूर्व और पश्चिम के दर्शनों में मतभेद है, बल्कि प्रत्येक गोलार्ध के अपने विभिन्न मतों में आपस में अन्तर है। पूर्व के धर्मों में, इस्लाम तथा हिन्दू धर्म में ज़रा भी अनुरूपता नहीं है। भारत में ही बौद्ध तथा जैन धर्म उस ब्राह्मणवाद से बहुत अलग है, जिसमें स्वयं आर्यसमाज व सनातन धर्म जैसे विरोधी मत पाये जाते हैं। पुराने समय का एक स्वतन्त्र विचारक चार्वाक है। उसने ईश्वर को पुराने समय में ही चुनौती दी थी। हर व्यक्ति अपने को सही मानता है। दुर्भाग्य की बात है कि बजाय पुराने विचारकों के अनुभवों तथा विचारों को भविष्य में अज्ञानता के विरुद्ध लड़ाई का आधार बनाने के हम आलसियों की तरह, जो हम सिद्ध हो चुके हैं, उनके कथन में अविचल एवं संशयहीन विश्वास की चीख पुकार करते रहते हैं और इस प्रकार मानवता के विकास को जड़ बनाने के दोषी हैं।
सिर्फ विश्वास और अन्ध विश्वास ख़तरनाक है। यह मस्तिष्क को मूढ़ और मनुष्य को प्रतिक्रियावादी बना देता है। जो मनुष्य अपने को यथार्थवादी होने का दावा करता है, उसे समस्त प्राचीन रूढ़िगत विश्वासों को चुनौती देनी होगी। प्रचलित मतों को तर्क की कसौटी पर कसना होगा। यदि वे तर्क का प्रहार न सह सके, तो टुकड़े-टुकड़े होकर गिर पड़ेगा। तब नये दर्शन की स्थापना के लिये उनको पूरा धराशायी करकेे जगह साफ करना और पुराने विश्वासों की कुछ बातों का प्रयोग करके पुनर्निमाण करना। मैं प्राचीन विश्वासांे के ठोसपन पर प्रश्न करने के सम्बन्ध में आश्वस्त हूँ। मुझे पूरा विश्वास है कि एक चेतन परम आत्मा का, जो प्रकृति की गति का दिग्दर्शन एवं संचालन करता है, कोई अस्तित्व नहीं है। हम प्रकृति में विश्वास करते हैं और समस्त प्रगतिशील आन्दोलन का ध्येय मनुष्य द्वारा अपनी सेवा के लिये प्रकृति पर विजय प्राप्त करना मानते हैं। इसको दिशा देने के पीछे कोई चेतन शक्ति नहीं है। यही हमारा दर्शन है। हम आस्तिकों से कुछ प्रश्न करना चाहते हैं।
यदि आपका विश्वास है कि एक सर्वशक्तिमान, सर्वव्यापक और सर्वज्ञानी ईश्वर है, जिसने विश्व की रचना की, तो कृपा करके मुझे यह बतायें कि उसने यह रचना क्यों की? कष्टों और संतापों से पूर्ण दुनिया – असंख्य दुखों के शाश्वत अनन्त गठबन्धनों से ग्रसित! एक भी व्यक्ति तो पूरी तरह संतृष्ट नही है। कृपया यह न कहें कि यही उसका नियम है। यदि वह किसी नियम से बँधा है तो वह सर्वशक्तिमान नहीं है। वह भी हमारी ही तरह नियमों का दास है। कृपा करके यह भी न कहें कि यह उसका मनोरंजन है। नीरो ने बस एक रोम जलाया था। उसने बहुत थोड़ी संख्या में लोगांें की हत्या की थी। उसने तो बहुत थोड़ा दुख पैदा किया, अपने पूर्ण मनोरंजन के लिये। और उसका इतिहास में क्या स्थान है? उसे इतिहासकार किस नाम से बुलाते हैं? सभी विषैले विशेषण उस पर बरसाये जाते हैं। पन्ने उसकी निन्दा के वाक्यों से काले पुते हैं, भत्र्सना करते हैं – नीरो एक हृदयहीन, निर्दयी, दुष्ट। एक चंगेज खाँ ने अपने आनन्द के लिये कुछ हजार जानें ले लीं और आज हम उसके नाम से घृणा करते हैं। तब किस प्रकार तुम अपने ईश्वर को न्यायोचित ठहराते हो? उस शाश्वत नीरो को, जो हर दिन, हर घण्टे ओर हर मिनट असंख्य दुख देता रहा, और अभी भी दे रहा है। फिर तुम कैसे उसके दुष्कर्मों का पक्ष लेने की सोचते हो, जो चंगेज खाँ से प्रत्येक क्षण अधिक है? क्या यह सब बाद में इन निर्दोष कष्ट सहने वालों को पुरस्कार और गलती करने वालों को दण्ड देने के लिये हो रहा है? ठीक है, ठीक है। तुम कब तक उस व्यक्ति को उचित ठहराते रहोगे, जो हमारे शरीर पर घाव करने का साहस इसलिये करता है कि बाद में मुलायम और आरामदायक मलहम लगायेगा? ग्लैडिएटर संस्था के व्यवस्थापक कहाँ तक उचित करते थे कि एक भूखे ख़ूंख़्वार शेर के सामने मनुष्य को फेंक दो कि, यदि वह उससे जान बचा लेता है, तो उसकी खूब देखभाल की जायेगी? इसलिये मैं पूछता हूँ कि उस चेतन परम आत्मा ने इस विश्व और उसमें मनुष्यों की रचना क्यों की? आनन्द लूटने के लिये? तब उसमें और नीरो में क्या फर्क है?
तुम मुसलमानो और ईसाइयो! तुम तो पूर्वजन्म में विश्वास नहीं करते। तुम तो हिन्दुओं की तरह यह तर्क पेश नहीं कर सकते कि प्रत्यक्षतः निर्दोष व्यक्तियों के कष्ट उनके पूर्वजन्मों के कर्मों का फल है। मैं तुमसे पूछता हूँ कि उस सर्वशक्तिशाली ने शब्द द्वारा विश्व के उत्पत्ति के लिये छः दिन तक क्यों परिश्रम किया? और प्रत्येक दिन वह क्यों कहता है कि सब ठीक है? बुलाओ उसे आज। उसे पिछला इतिहास दिखाओ। उसे आज की परिस्थितियों का अध्ययन करने दो। हम देखेंगे कि क्या वह कहने का साहस करता है कि सब ठीक है। कारावास की काल-कोठरियों से लेकर झोपड़ियों की बस्तियों तक भूख से तड़पते लाखों इन्सानों से लेकर उन शोषित मज़दूरों से लेकर जो पूँजीवादी पिशाच द्वारा खून चूसने की क्रिया को धैर्यपूर्वक निरुत्साह से देख रहे हैं तथा उस मानवशक्ति की बर्बादी देख रहे हैं, जिसे देखकर कोई भी व्यक्ति, जिसे तनिक भी सहज ज्ञान है, भय से सिहर उठेगा, और अधिक उत्पादन को ज़रूरतमन्द लोगों में बाँटने के बजाय समुद्र में फेंक देना बेहतर समझने से लेकर राजाआंे के उन महलों तक जिनकी नींव मानव की हड्डियों पर पड़ी है- उसको यह सब देखने दो और फिर कहे – सब कुछ ठीक है! क्यों और कहाँ से? यही मेरा प्रश्न है। तुम चुप हो। ठीक है, तो मैं आगे चलता हूँ।
और तुम हिन्दुओ, तुम कहते हो कि आज जो कष्ट भोग रहे हैं, ये पूर्वजन्म के पापी हैं और आज के उत्पीड़क पिछले जन्मों में साधु पुरुष थे, अतः वे सत्ता का आनन्द लूट रहे हैं। मुझे यह मानना पड़ता है कि आपके पूर्वज बहुत चालाक व्यक्ति थे। उन्होंने ऐसे सिद्धान्त गढ़े, जिनमें तर्क और अविश्वास के सभी प्रयासों को विफल करने की काफ़ी ताकत है। न्यायशास्त्र के अनुसार दण्ड को अपराधी पर पड़ने वाले असर के आधार पर केवल तीन कारणों से उचित ठहराया जा सकता है। वे हैं – प्रतिकार, भय तथा सुधार। आज सभी प्रगतिशील विचारकों द्वारा प्रतिकार के सिद्धान्त की निन्दा की जाती है। भयभीत करने के सिद्धान्त का भी अन्त वहीं है। सुधार करने का सिद्धान्त ही केवल आवश्यक है और मानवता की प्रगति के लिये अनिवार्य है। इसका ध्येय अपराधी को योग्य और शान्तिप्रिय नागरिक के रूप में समाज को लौटाना है। किन्तु यदि हम मनुष्यों को अपराधी मान भी लें, तो ईश्वर द्वारा उन्हें दिये गये दण्ड की क्या प्रकृति है? तुम कहते हो वह उन्हें गाय, बिल्ली, पेड़, जड़ी-बूटी या जानवर बनाकर पैदा करता है। तुम ऐसे 84 लाख दण्डों को गिनाते हो। मैं पूछता हूँ कि मनुष्य पर इनका सुधारक के रूप में क्या असर है? तुम ऐसे कितने व्यक्तियों से मिले हो, जो यह कहते हैं कि वे किसी पाप के कारण पूर्वजन्म में गधा के रूप में पैदा हुए थे? एक भी नहीं? अपने पुराणों से उदाहरण न दो। मेरे पास तुम्हारी पौराणिक कथाओं के लिए कोई स्थान नहीं है। और फिर क्या तुम्हें पता है कि दुनिया में सबसे बड़ा पाप गरीब होना है। गरीबी एक अभिशाप है। यह एक दण्ड है। मैं पूछता हूँ कि दण्ड प्रक्रिया की कहाँ तक प्रशंसा करें, जो अनिवार्यतः मनुष्य को और अधिक अपराध करने को बाध्य करे? क्या तुम्हारे ईश्वर ने यह नहीं सोचा था या उसको भी ये सारी बातें मानवता द्वारा अकथनीय कष्टों के झेलने की कीमत पर अनुभव से सीखनी थीं? तुम क्या सोचते हो, किसी गरीब या अनपढ़ परिवार, जैसे एक चमार या मेहतर के यहाँ पैदा होने पर इन्सान का क्या भाग्य होगा? चूँकि वह गरीब है, इसलिये पढ़ाई नहीं कर सकता। वह अपने साथियों से तिरस्कृत एवं परित्यक्त रहता है, जो ऊँची जाति में पैदा होने के कारण अपने को ऊँचा समझते हैं। उसका अज्ञान, उसकी गरीबी तथा उससे किया गया व्यवहार उसके हृदय को समाज के प्रति निष्ठुर बना देते हैं। यदि वह कोई पाप करता है तो उसका फल कौन भोेगेगा? ईष्वर, वह स्वयं या समाज के मनीषी? और उन लोगों के दण्ड के बारे में क्या होगा, जिन्हें दम्भी ब्राह्मणों ने जानबूझ कर अज्ञानी बनाये रखा तथा जिनको तुम्हारी ज्ञान की पवित्र पुस्तकों – वेदों के कुछ वाक्य सुन लेने के कारण कान में पिघले सीसे की धारा सहन करने की सजा भुगतनी पड़ती थी? यदि वे कोई अपराध करते हैं, तो उसके लिये कौन ज़िम्मेदार होगा? और उनका प्रहार कौन सहेगा? मेरे प्रिय दोस्तों! ये सिद्धान्त विशेषाधिकार युक्त लोगों के आविष्कार हैं। ये अपनी हथियाई हुई शक्ति, पूँजी तथा उच्चता को इन सिद्धान्तों के आधार पर सही ठहराते हैं। अपटान सिंक्लेयर ने लिखा था कि मनुष्य को बस अमरत्व में विश्वास दिला दो और उसके बाद उसकी सारी सम्पत्ति लूट लो। वह बगैर बड़बड़ाये इस कार्य में तुम्हारी सहायता करेगा। धर्म के उपदेशकों तथा सत्ता के स्वामियों के गठबन्धन से ही जेल, फाँसी, कोड़े और ये सिद्धान्त उपजते हैं।
मैं पूछता हूँ तुम्हारा सर्वशक्तिशाली ईश्वर हर व्यक्ति को क्यों नहीं उस समय रोकता है जब वह कोई पाप या अपराध कर रहा होता है? यह तो वह बहुत आसानी से कर सकता है। उसने क्यों नहीं लड़ाकू राजाओं की लड़ने की उग्रता को समाप्त किया और इस प्रकार विश्वयुद्ध द्वारा मानवता पर पड़ने वाली विपत्तियों से उसे बचाया? उसने अंग्रेजों के मस्तिष्क में भारत को मुक्त कर देने की भावना क्यों नहीं पैदा की? वह क्यों नहीं पूँजीपतियों के हृदय में यह परोपकारी उत्साह भर देता कि वे उत्पादन के साधनों पर अपना व्यक्तिगत सम्पत्ति का अधिकार त्याग दें और इस प्रकार केवल सम्पूर्ण श्रमिक समुदाय, वरन समस्त मानव समाज को पूँजीवादी बेड़ियों से मुक्त करें? आप समाजवाद की व्यावहारिकता पर तर्क करना चाहते हैं। मैं इसे आपके सर्वशक्तिमान पर छोड़ देता हूँ कि वह लागू करे। जहाँ तक सामान्य भलाई की बात है, लोग समाजवाद के गुणों को मानते हैं। वे इसके व्यावहारिक न होने का बहाना लेकर इसका विरोध करते हैं। परमात्मा को आने दो और वह चीज को सही तरीके से कर दे। अंग्रेजों की हुकूमत यहाँ इसलिये नहीं है कि ईश्वर चाहता है बल्कि इसलिये कि उनके पास ताकत है और हममें उनका विरोध करने की हिम्मत नहीं। वे हमको अपने प्रभुत्व में ईश्वर की मदद से नहीं रखे हैं, बल्कि बन्दूकों, राइफलों, बम और गोलियों, पुलिस और सेना के सहारे। यह हमारी उदासीनता है कि वे समाज के विरुद्ध सबसे निन्दनीय अपराध – एक राष्ट्र का दूसरे राष्ट्र द्वारा अत्याचार पूर्ण शोषण – सफलतापूर्वक कर रहे हैं। कहाँ है ईश्वर? क्या वह मनुष्य जाति के इन कष्टों का मज़ा ले रहा है? एक नीरो, एक चंगेज, उसका नाश हो!
क्या तुम मुझसे पूछते हो कि मैं इस विश्व की उत्पत्ति तथा मानव की उत्पत्ति की व्याख्या कैसे करता हूँ? ठीक है, मैं तुम्हें बताता हूँ। चाल्र्स डारविन ने इस विषय पर कुछ प्रकाश डालने की कोशिश की है। उसे पढ़ो। यह एक प्रकृति की घटना है। विभिन्न पदार्थों के, नीहारिका के आकार में, आकस्मिक मिश्रण से पृथ्वी बनी। कब? इतिहास देखो। इसी प्रकार की घटना से जन्तु पैदा हुए और एक लम्बे दौर में मानव। डार्विन की ‘जीव की उत्पत्ति’ पढ़ो। और तदुपरान्त सारा विकास मनुष्य द्वारा प्रकृति के लगातार विरोध और उस पर विजय प्राप्त करने की चेष्टा से हुआ। यह इस घटना की सम्भवतः सबसे सूक्ष्म व्याख्या है।
तुम्हारा दूसरा तर्क यह हो सकता है कि क्यों एक बच्चा अन्धा या लंगड़ा पैदा होता है? क्या यह उसके पूर्वजन्म में किये गये कार्यों का फल नहीं है? जीवविज्ञान वेत्ताओं ने इस समस्या का वैज्ञानिक समाधान निकाल लिया है। अवश्य ही तुम एक और बचकाना प्रश्न पूछ सकते हो। यदि ईश्वर नहीं है, तो लोग उसमें विश्वास क्यों करने लगे? मेरा उत्तर सूक्ष्म तथा स्पष्ट है। जिस प्रकार वे प्रेतों तथा दुष्ट आत्माओं में विश्वास करने लगे। अन्तर केवल इतना है कि ईश्वर में विश्वास विश्वव्यापी है और दर्शन अत्यन्त विकसित। इसकी उत्पत्ति का श्रेय उन शोषकों की प्रतिभा को है, जो परमात्मा के अस्तित्व का उपदेश देकर लोगों को अपने प्रभुत्व में रखना चाहते थे तथा उनसे अपनी विशिष्ट स्थिति का अधिकार एवं अनुमोदन चाहते थे। सभी धर्म, समप्रदाय, पन्थ और ऐसी अन्य संस्थाएँ अन्त में निर्दयी और शोषक संस्थाओं, व्यक्तियों तथा वर्गों की समर्थक हो जाती हैं। राजा के विरुद्ध हर विद्रोह हर धर्म में सदैव ही पाप रहा है।
मनुष्य की सीमाओं को पहचानने पर, उसकी दुर्बलता व दोष को समझने के बाद परीक्षा की घड़ियों में मनुष्य को बहादुरी से सामना करने के लिये उत्साहित करने, सभी ख़तरों को पुरुषत्व के साथ झेलने तथा सम्पन्नता एवं ऐश्वर्य में उसके विस्फोट को बाँधने के लिये ईश्वर के काल्पनिक अस्तित्व की रचना हुई। अपने व्यक्तिगत नियमों तथा अभिभावकीय उदारता से पूर्ण ईश्वर की बढ़ा-चढ़ा कर कल्पना एवं चित्रण किया गया। जब उसकी उग्रता तथा व्यक्तिगत नियमों की चर्चा होती है, तो उसका उपयोग एक भय दिखाने वाले के रूप में किया जाता है। ताकि कोई मनुष्य समाज के लिये ख़तरा न बन जाये। जब उसके अभिभावक गुणों की व्याख्या होती ह,ै तो उसका उपयोग एक पिता, माता, भाई, बहन, दोस्त तथा सहायक की तरह किया जाता है। जब मनुष्य अपने सभी दोस्तों द्वारा विश्वासघात तथा त्याग देने से अत्यन्त क्लेष में हो, तब उसे इस विचार से सान्त्वना मिल सकती हे कि एक सदा सच्चा दोस्त उसकी सहायता करने को है, उसको सहारा देगा तथा वह सर्वशक्तिमान है और कुछ भी कर सकता है। वास्तव में आदिम काल में यह समाज के लिये उपयोगी था। पीड़ा में पड़े मनुष्य के लिये ईश्वर की कल्पना उपयोगी होती है। समाज को इस विश्वास के विरुद्ध लड़ना होगा। मनुष्य जब अपने पैरों पर खड़ा होने का प्रयास करता है तथा यथार्थवादी बन जाता है, तब उसे श्रद्धा को एक ओर फेंक देना चाहिए और उन सभी कष्टों, परेशानियों का पुरुषत्व के साथ सामना करना चाहिए, जिनमें परिस्थितियाँ उसे पटक सकती हैं। यही आज मेरी स्थिति है। यह मेरा अहंकार नहीं है, मेरे दोस्त! यह मेरे सोचने का तरीका है, जिसने मुझे नास्तिक बनाया है। ईश्वर में विश्वास और रोज़-ब-रोज़ की प्रार्थना को मैं मनुष्य के लिये सबसे स्वार्थी और गिरा हुआ काम मानता हूँ। मैंने उन नास्तिकों के बारे में पढ़ा हे, जिन्होंने सभी विपदाओं का बहादुरी से सामना किया। अतः मैं भी एक पुरुष की भाँति फाँसी के फन्दे की अन्तिम घड़ी तक सिर ऊँचा किये खड़ा रहना चाहता हूँ।
हमें देखना है कि मैं कैसे निभा पाता हूँ। मेरे एक दोस्त ने मुझे प्रार्थना करने को कहा। जब मैंने उसे नास्तिक होने की बात बतायी तो उसने कहा, ‘'अपने अन्तिम दिनों में तुम विश्वास करने लगोगे।'’ मैंने कहा, ‘'नहीं, प्यारे दोस्त, ऐसा नहीं होगा। मैं इसे अपने लिये अपमानजनक तथा भ्रष्ट होने की बात समझाता हूँ। स्वार्थी कारणों से मैं प्रार्थना नहीं करूँगा।'’ पाठकों और दोस्तों, क्या यह अहंकार है? अगर है तो मैं स्वीकार करता हूँ।

Date Written: 1931
Author: Bhagat Singh
Title: Why I Am An Atheist (Main nastik kyon hoon)
First Published: Baba Randhir Singh, a freedom fighter, was in Lahore Central Jail in 1930-31. He was a God-fearing religious man. It pained him to learn that Bhagat Singh was a non-believer. He somehow managed to see Bhagat Singh in the condemned cell and tried to convince him about the existence of God, but failed. Baba lost his temper and said tauntingly: “You are giddy with fame and have developed and ago which is standing like a black curtain between you and the God.” It was in reply to that remark that Bhagat Singh wrote this article. First appeared in The People, Lahore on September 27, 1931.


22 March 2019

आखिर क्यूँ तुझसे मिल नहीं पाता हूँ


चाहता हूँ बहुत कि तुझको पा नहीं पाता हूँ 
ऐ मौत ! तेरे लिए हर रोज़ मैं पलकें बिछाता हूँ। 

तेरे कदमों की आहट के हरेक एहसास से गुज़रता हूँ 
कभी गिर करके उठता हूँ, कभी उठ करके गिरता हूँ। 

बेचैन हैं कुछ लोग कि एक खबर नहीं बन पाता हूँ 
वो सोचते हैं कि गुज़र गया, नज़र फिर भी आता हूँ। 

चाहता हूँ बहुत कि तुझको पा नहीं पाता हूँ 
ऐ मौत! आखिर क्यूँ तुझसे मिल नहीं पाता हूँ। 
-यश ©
07/22-मार्च -2019

21 March 2019

कुछ लोग-44

अच्छे से जानते हैं कुछ लोग
अच्छे भले दिन को
खराब करने की कला
क्योंकि उन्हें सुहाता नहीं
दो पल का सुकूं
किसी चेहरे पर
इसलिए
रहते हैं
बस इसी ताक में
कि खेलते रहें
सीधे लागने वाले
किसी चेहरे के
जज़्बातों से
बिना कुछ सोचे
बिना कुछ समझे
कुछ लोगों को
ऐसा लगता है
कि बर्दाश्त की सीमा
शायद असीम होती है
कुछ लोगों की।
.
~यश ©
21/03/2019

20 March 2019

क्या है असली होली?......विजय माथुर

प्रति वर्ष हर्षोल्लास के साथ होली पर्व हम  सभी मनाते हैं.इस होली पर हम सब आप सब को बहुत-बहुत मुबारकवाद देते हैं.तमाम तरह की बातें तमाम दन्त-कथाएं होली के सम्बन्ध में प्रचलित हैं.लेकिन वास्तव में हम होली क्यों मनाते हैं.HOLY =पवित्र .जी हाँ होली पवित्र पर्व ही है.जैसा कि हमारे कृषी-प्रधान देश में सभी पर्वों को फसलों के साथ जोड़ा गया है उसी प्रकार होली भी रबी की फसल पकने पर मनाई जाती है.गेहूं चना जौ आदि की बालियों को अग्नि में आधा पका कर खाने का प्राविधान है.दरअसल ये अर्ध-पकी बालियाँ ही 'होला' कहलाती है संस्कृत का 'होला' शब्द ही होली का उद्गम है.इनके सेवन का आयुर्वेदिक लाभ यह है कि आगे ग्रीष्म काल में 'लू' प्रकोप से शरीर की रक्षा हो जाती है.वस्तुतः होली पर्व पर चौराहों पर अग्नि जलाना पर्व का विकृत रूप है जबकि असल में यह सामूहिक हवन(यज्ञ) होता था.विशेष ३६ आहुतियाँ जो नयी फसल पकने पर राष्ट्र और समाज के हित के लिए की जाती थीं और उनका प्रभाव यह रहता था कि न केवल अन्न धन-धान्य सर्व-सुलभ सुरक्षित रहता था बल्कि लोगों का स्वास्थ्य भी संरक्षित होता था.लेकिन आज हम कर क्या रहे है.कूड़ा-करकट टायर-ट्यूब आदि हानिकारक पदार्थों की होली जला रहे हैं.परिणाम भी वैसा ही पा रहे हैं.अग्निकांड अति वर्षा बाढ़-सूखा चोरी -लूट विदेशों को अन्न का अवैद्ध परिगमन आदि कृत गलत पर्व मनाने का ही दुष्फल हैं.संक्रामक रोग और विविध प्रकोप इसी का दुष्परिणाम हैं.

इस पर्व के सम्बन्ध में हमारे पोंगा-पंथी बन्धुओं ने 'प्रह्लाद' को उसके पिता द्वारा उसकी भुआ के माध्यम से जलाने की जो कहानी लोक-प्रिय बना रखी है उसके वैज्ञानिक मर्म को समझने तथा मानने की आवश्यकता है न कि बहकावे में भटकते रहने की.लेकिन बेहद अफ़सोस और दुःख इस बात का है कि पढ़े-लिखे विद्व-जन भी उसी पाखंड को पूजते एवं सिरोधार्य करते हैं,सत्य कथन/लेखन को 'मूर्खतापूर्ण कथा' कह कर उपहास उड़ाते हैं और लोगों को जागरूक नहीं होने देना चाहते हैं.इसी विडम्बना ने हमारे देश को लगभग हजार वर्षों तक गुलाम बनाये रखा और आज आजादी के ६३ वर्ष बाद भी देशवासी उन्हीं पोंगा-पंथी पाखंडों को उसी प्रकार  चिपकाये हुए हैं जिस प्रकार बन्दरिया अपने मरे बच्चे की खाल को चिपकाये  फिरती रहती है.

जैसा कि'श्री मद देवी भागवत -वैज्ञानिक व्याख्या' में पहले ही स्पष्ट किया गया है-हिरण्याक्ष और हिरणाकश्यप कोई व्यक्ति-विशेष नहीं थे.बल्कि वे एक चरित्र का प्रतिनिधित्व करते हैं जो पहले भी थे और आज भी हैं और आज भी उनका संहार करने की आवश्यकता है .संस्कृत-भाषा में हिरण्य का अर्थ होता है स्वर्ण और अक्ष का अर्थ है आँख अर्थात वे लोग जो अपनी आँखे स्वर्ण अर्थात धन पर गडाये रखते हैं हिरण्याक्ष कहलाते हैं.ऐसे व्यक्ति केवल और केवल धन के लिए जीते हैं और साथ के अन्य मनुष्यों का शोषण  करते हैं.आज के सन्दर्भ में हम कह सकते हैं कि उत्पादक और उपभोक्ता दोनों का शोषण करने वाले व्यापारी और उद्योगपति गण ही हिरण्याक्ष  हैं.ये लोग कृत्रिम रूप से वस्तुओं का आभाव उत्पन्न करते है और कीमतों में उछाल लाते है वायदा कारोबार द्वारा.पिसती है भोली और गरीब जनता.


एक और   तो ये हिरण्याक्ष लोग किसान को उसकी उपज की पूरी कीमत नहीं देते और उसे भूखों मरने पर मजबूर करते हैं और दूसरी और कीमतों में बेतहाशा वृद्धी करके जनता को चूस लेते हैं.जनता यदि विरोध में आवाज उठाये तो उसका दमन करते हैं और पुलिस -प्रशासन के सहयोग से उसे कुचल डालते हैं.यह प्रवृति सर्व-व्यापक है -चाहे दुनिया का कोई देश हो सब जगह यह लूट और शोषण अनवरत हो रहा है.
'कश्यप'का अर्थ संस्कृत में बिछौना अर्थात बिस्तर से है .जिसका बिस्तर सोने का हो वह हिरण्यकश्यप है .इसका आशय यह हुआ जो धन के ढेर पर सो रहे हैं अर्थात आज के सन्दर्भ में काला व्यापार करने वाला व्यापारी और घूसखोर अधिकारी (शासक-ब्यूरोक्रेट तथा भ्रष्ट नेता दोनों ही) सब हिरण्यकश्यप हैं.सिर्फ ट्यूनीशिया,मिस्त्र और लीबिया के ही नहीं हमारे देश और प्रदेशों के मंत्री-सेक्रेटरी आदि सभी तो हिरण्य कश्यप हैं.प्रजा का दमन करना उस पर जुल्म ढाना यही सब तो ये कर रहे हैं.जो लोग उनका विरोध करते हैं प्रतिकार करते है सभी तो उनके प्रहार झेलते हैं.

अभी 'प्रहलाद' नहीं हुआ है अर्थात प्रजा का आह्लाद नहीं हुआ है.आह्लाद -खुशी -प्रसन्नता जनता को नसीब नहीं है.करों के भार से ,अपहरण -बलात्कार से,चोरी-डकैती ,लूट-मार से,जनता त्राही-त्राही कर रही है.आज फिर आवश्यकता है -'वराह अवतार' की .वराह=वर+अह =वर यानि अच्छा और अह यानी दिन .इस प्रकार वराह अवतार का मतलब है अच्छा दिन -समय आना.जब जनता जागरूक हो जाती है तो अच्छा समय (दिन) आता है और तभी 'प्रहलाद' का जन्म होता है अर्थात प्रजा का आह्लाद होता है =प्रजा की खुशी होती है.ऐसा होने पर ही हिरण्याक्ष तथा हिरण्य कश्यप का अंत हो जाता है अर्थात शोषण और उत्पीडन समाप्त हो जाता है.

अब एक कौतूहल यह रह जाता है कि 'नृसिंह अवतार' क्या है ? खम्बा क्या है?किसी चित्रकार ने समझाने के लिए आधा शेर और आधा मनुष्य वाला चित्र बनाया होगा.अगर आज हमारे यहाँ ऐसा ही होता आ रहा है तो इसका कारण साफ़ है लोगों द्वारा हकीकत को न समझना.बहरहाल हमें चित्रकार के मस्तिष्क को समझना और उसी के अनुरूप व्याख्या करना चाहिए.'खम्बा' का तात्पर्य हुआ उस जड़ प्रशासनिक व्यवस्था से जो जन-भावनाओं को नहीं समझती है और क्रूरतापूर्वक उसे कुचलती रहती है.जब शोषण और उत्पीडन की पराकाष्ठा हो जाती है ,जनता और अधिक दमन नहीं सह पाती है तब क्रांति होती है जिसके बीज सुषुप्तावस्था में जन-मानस में पहले से ही मौजूद रहते हैं.इस अवसर पर देश की युवा शक्ति सिंह -शावक की भाँती ही भ्रष्ट ,उत्पीड़क,शोषक शासन-व्यवस्था को उखाड़ फेंकती है जैसे अभी मिस्त्र और ट्यूनीशिया में आपने देखा-सुना.लीबिया में जन-संघर्ष चल ही रहा है.१७८९ ई. में फ़्रांस में लुई १४ वें को नेपोलियन के नेतृत्व में जनता ने ऐसे ही  उखाड़  फेंका था.अभी कुछ वर्ष पहले वहीं जेनरल डी गाल की तानाशाही को मात्र ८० छात्रों द्वारा पेरिस विश्वविद्यालय से शुरू आन्दोलन ने उखाड़ फेंका था.इसी प्रकार १९१७ ई. में लेनिन के नेतृत्व में 'जार ' की जुल्मी हुकूमत को उखाड़ फेंका गया था. १८५७ ई. में हमारे देश के वीरों ने भी बहादुर शाह ज़फ़र,रानी लक्ष्मी बाई ,तांत्या टोपे,अवध की बेगम आदि-आदि के नेतृत्व में क्रांति की थी लेकिन उसे ग्वालियर के  सिंधिया,पजाब के सिखों ,नेपाल के राणा आदि की मदद से साम्राज्यवादियों ने कुचल दिया था.कारण बहुत स्पष्ट है हमारे देश में पोंगा-पंथ का बोल-बाला था और देश में फूट थी.इसी लिए 'प्रहलाद' नहीं हो सका.

आज के वैज्ञानिक प्रगति के युग में यदि हम ढकोसले,पाखण्ड आदि के फेर से मुक्त हो सकें सच्चाई  को समझ सकें तो कोई कारण नहीं कि आज फिर जनता वैसे ही आह्लादित न हो सके.लेकिन दुर्भाग्य की बात है कि हमारे देश में आज स्वंयभू भगवान् जो अवतरित हो चुके है (ब्रह्माकुमारी,आनंद मार्ग,डिवाईन लाईट मिशन,आशाराम बापू,मुरारी बापू ,गायत्री परिवार, साईं बाबा ,राधा स्वामी  आदि -आदि असंख्य) वे जनता को दिग्भ्रमित किये हुए हैं एवं वे कभी नहीं चाहते कि जनता जागे और आगे आकर भ्रष्ट व्यवस्था को उखाड़ फेंके.

विकृति ही विकृति-होली के पर्व पर आज जो रंग खेले जा रहे हैं वे स्वास्थ्य के लिए हानिकारक हैं जबकि रंग खेलने का उद्देश्य स्वास्थ्य रक्षा था.टेसू (पलाश) के फूल रंग के रूप में इस्तेमाल करते थे जो  रोगों से त्वचा की रक्षा करते थे और आने वाले प्रचंड ताप के प्रकोप को झेलने लायक बनाते थे.पोंगा-पंथ और  पाखण्ड वाद ने यह भी समाप्त कर दिया एवं खुशी व उल्लास के पर्व को गाली-गलौच का खेल बना दिया. जो लोग व्यर्थ दावा करते हैं  -होली पर सब चलता है वे अपनी हिंसक और असभ्य मनोवृतियों को रीति-रस्म का आवरण पहना देते हैं. आज चल रहा फूहण पन भारतीय सभ्यता के सर्वथा विपरीत है उसे त्यागने की तत्काल आवश्यकता है.काश देशवासी अपने पुराने गौरव को पुनः  प्राप्त करना चाहें !
.
साभार-क्रांतिस्वर 

ऐसे ये होली मन जाए

फिर से लौट आए वो बचपन
फिर से वो टोली बन जाए
गिला या शिकवा हो न मन में
ऐसे ये होली मन जाए।

भाईचारे का अबीर गुलाल
सबको सतरंगी कर दे
फागुन की मद-मस्ती सबको
ढेरों खुशियों से भर दे ।

फिर से लौट आए वो मंजर
फिर से मीठी बोली बन जाए
सदभाव ही केवल रहे इस मन में
ऐसे ये होली मन जाए।

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होली की हार्दिक शुभकामनाएँ!

-यश ©

19 March 2019

बोइंग 737 max क्यूँ क्रैश हो रहे हैं ?

पांच साल में चायवाले से चौकीदार तक का सफर

18 March 2019

हिन्दी पत्रकारिता का दब्बू दौर

17 March 2019

अगर न थमे ये कदम.......

क्या होगा
उस नफरत से
जो बाँटती है
इंसान को
आपस ही में?
क्या होगा
उस दहशत से
जो पसरती जा रही है
दिलो-जान में?
.
कहीं
एक तरफ
मची हुई हैं
चीखें-पुकारें
बिखरी हुई हैं
छिन्न-भिन्न लाशें
आंसुओं के सैलाब
और गम.... । 
तो कहीं
दूसरी तरफ
हम जैसा ही कोई
मना रहा है
खुशियाँ
सिर्फ इसलिए
कि मरने वाले की
दूसरी थी कौम ।
.
हम
बुरी तरह
फंस चुके हैं
अपने अहं
और तुष्टि के
माया जाल में
बिना सत्य को जाने
वास्तविकता को
दरकिनार करते हुए
गहरे अंधेरे की ओर
बढ़ते ये कदम
अगर न थमे
कहीं पहले
तो सदियाँ लगेंगी
फिर से
उजियारा आने में।

-यश©
17-मार्च-2019 

10 March 2019

मौसम ही बौराने का है

आमों के बौर आने का है 
या मौसम बौराने का है 
कोयल के कुछ गाने का है 
या फागुनी तराने का है ?

जो भी है- 
है अपने जैसा 
दर्पण के शरमाने  का है 
अक्सर अक्स भी पूछने लगता 
चेहरा कितने आने का है?

मैंने कहा-
आना तो अब चलता नहीं 
पैसा गुजरे जमाने का है 
गुदड़ी का हर लाल देखता 
सपना रुपया कमाने का है । 

जिनका कोई और नहीं 
उनको ठौर मिल जाने का है 
सभी भंगेड़ी इसी गाँव में 
मौसम ही बौराने का है। 

-यश ©
10/03/2019

01 March 2019

युद्ध नहीं होना चाहिए

जीवन है अनमोल सभी का, 
कोई नहीं खोना चाहिए
धरती है यह हम सब की,
यहाँ युद्ध नहीं होना चाहिए। 

आतंकी पनाहगाहों का, 
गर अस्तित्व मिटाना है तो,
कूट नीति के प्रखर अस्त्र से,  
 प्रहार प्रबल होना चाहिए ।

जननी तो जननी होती है, 
कोई भी कैसी भी हो वो,
उसके हृदय में कभी न 
कंपन- क्रंदन  होना चाहिए। 

क्या होगा उस मंज़र से 
जहाँ छिन्न भिन्न सभी पड़े हों
त्राहित्राहि  का कोलाहल 
यहाँ कभी नहीं होना चाहिए।

शस्त्र नहीं समाधान कोई, 
नहीं हताहत होना चाहिए,
अमन- चैन हो सदा यहाँ
 युद्ध नहीं होना चाहिए। 


-यश ©
28/02/2019

14 February 2019

कफन पर 'प्यार' लिख कर वो.........

कफन पर 'प्यार' लिख कर वो, वतन पर मर-मिट जाते हैं।
एक हम ही हैं जो अपनी चादर में, और सिमट ही जाते हैं।
यह युद्ध नहीं फिर भी आखिर क्यूँ,  लम्हे ऐसे आते-जाते?
अपनी सीमा के भीतर ही क्यूँ, कतरे लहू के  बहते जाते ?
यह अंत नहीं आरम्भ है बंधु! अब और शहीद न होने देंगे ।
हिन्द का एक मजहब है सेना,अब इसको और न खोने देंगे ।
.
पुलवामा के शहीद सैनिकों को विनम्र श्रद्धांजलि!

-यश ©
14/02/2019



08 February 2019

कुछ लोग -43

तलाश पाते हैं
सिर्फ कुछ ही लोग
मटमैली चादर के
किसी सिरे पर
कहीं खोई हुई
उम्मीद की
किसी धुंधली सी
रेखा को
लेकिन
अधिकतर
सिर्फ ढोते रहते हैं
उसी स्याहपन को
जो छितराया रहता है 
हर ओर
यहाँ-वहाँ
सिर्फ इसलिए
क्योंकि
नहीं जुटा पाते
हिम्मत
कुछ लोग
अपने सीमित दायरे से
बाहर निकल आने की।

-यश ©
08/02/2019

05 February 2019

अगर समय भी कुछ कह पाया तो.....

सुनो!...ये समय जो चल रहा है न ...न जाने क्यों कभी-कभी ऐसा लगता है कि ...काश! कभी रुक पाता।..... काश! कभी कह पता वह भी अपने मन की। हम तो चूंकि इंसान हैं ...या कहें कि प्राणी हैं.... क्योंकि हम सब अपनी अपनी भाषा में....अपने-अपने तरीके से समय के इन्हीं पलों में ....एक दूसरे ....से कुछ न कुछ कह-सुन लेते हैं ...अपना मन हलका कर लेते हैं ...लेकिन लगातार चलता हुआ यह समय बहुत  चाह कर भी ...अपने मन की कुछ कह नहीं कह पाता ...क्योंकि...समय की नियति में सिर्फ चलना है....निर्बाध चलना ।......बस चलना और सिर्फ चलते ही रहना । यह समय....अगर कभी कुछ भी कह पाया  ....तो निश्चित ही समय के साथ हम सब ...बस ठहर ही जाएंगे ....हमेशा के लिए। 
.
-यश©
05/02/2019 

03 February 2019

धूप और कोहरा .....


आज सुबह से घना कोहरा छाया हुआ है। यह कोहरा अपने भीतर कई उम्मीदों की धूप समाए हुए है, लेकिन यह धूप कब निकलेगी इस बारे में किसी को खबर नहीं।
कोई कह रहा था कि कहीं किसी और कोने में बहुत अच्छी धूप खिली है जो अपने भीतर गहरा अंधेरा समेटे हुए है।
लेकिन फिर भी जैसे हम अनजान बन कर बस देखते रहते हैं सिर्फ वही जो हमें बाहरी तौर पर दिखता है। नहीं दिखता तो केवल भीतर का सच ....भीतर का दर्द जो हम या हमारे सामने वाला हमेशा अपने साथ लेकर चलता है।
कारण सिर्फ एक है .....सबके लिए सब सुखी हैं लेकिन अपनी अपनी तरह से सभी डूबे हुए हैं ....अपने चेहरे पर मुस्कुराहटों का मुखौटा लगाए ....सबको मालूम है ...सबका सच।

-यश ©
03/02/2019

02 February 2019

चल दिया............

बे-अरमान आया था
बा-अरमान चल दिया
मुकद्दर में जो था मेरे
लेकर वही चल दिया। 

न सोचा था कभी कि
अश्क ऐसे भी होते हैं
न खुशी जो न किसी
गम के कभी होते हैं।

ये तलब थी न कभी कि
तलफ ऐसा होगा मेरा
स्याह की तमन्ना लिए
हरफ उजला होगा मेरा।

माना कि वो थी दास्ताँ
अब यह रास्ता नया है 
वो  एक दौर था कभी
जो अब  गुजर गया  है।

बे- मुकाम आया था
बा -मुकाम चल दिया 
जो नज़र के धोखे थे
ले कर उन्हें चल दिया।

-यश ©
02/फरवरी/2019 

01 February 2019

इक भूली दास्ताँ बन जाऊं .......

गुज़र जाऊं कि
इक भूली दास्ताँ बन जाऊं
मर जाऊं कि
फिर कभी याद न आऊं
पा लिया सब कुछ
अब  खोने को कुछ न बचा
ये ठौर ऐसा है कि
रुकने को कुछ न बचा
आखिरी तमन्ना है कि
बहुत जीता हार कुछ तो जाऊं
समय संग बीत जाऊँ कि
फिर इधर न लौट कर आऊँ।

-यश ©
24/01/2019 

27 January 2019

होती रहेंगी अपनी बातें......

बीत जाते हैं दिन
बीत जाती हैं रातें 
रह जाती हैं केवल
कुछ अनकही बातें। 

बातें जो मैं करके खुद से 
खुद को ही समझाता  हूँ 
मन के किसी किनारे पर 
फिर भी बैठा रह जाता हूँ। 

ख्यालों का कोई अन्त नहीं 
 दोहराती खुद को जैसे रातें 
कभी गुज़र कर कहीं ठहर कर 
होती रहेंगी अपनी बातें। 

यश ©
27/जनवरी/2019 


26 January 2019

फिर भी एक गणतन्त्र हमारा.........

भेद कई होते हुए भी
एक है अभिमान हमारा
अरब से ज़्यादा होते हुए भी
एक है हिन्दोस्तान हमारा ।

माटी मीलों रंग बदलती
कोस-कोस बदलता पानी
एक संस्कृति के ढंग कई हैं
जितने  लोग हैं उतनी बानी।

कई तापों को सहकर धरती
देती जीवन है हम सबको
शून्य की जननी सबकी माता
विश्व नमन करता है इसको।

वेश अनेक परिवेश अनेक
मगर अस्तित्व स्वतंत्र हमारा
जात-धर्म और वर्ग अनेक
फिर भी एक गणतन्त्र हमारा ।
.
यशवंत माथुर ©
26/01/2019 


10 January 2019

क्यूँ भूलूँ , क्यूँ याद करूँ ......

क्यूँ भूलूँ , क्यूँ याद करूँ
क्यूँ किसी से फरियाद करूँ
आते जाते हर लम्हे को
ऐसे ही क्यूँ बर्बाद करूँ ?

माना कि कल तुम्हारा था
माना कि कल तुम्हारा है
आज के मायाजाल में क्यूँ
खुद पे अत्याचार करूँ ?

अपनी बातें कहूँ मैं किस से
परछाईं को भी नफरत मुझ से
ऐसे कैसे गहन तमस पर
क्यूँ पूरा विश्वास करूँ ?

क्यूँ भूलूँ , क्यूँ याद करूँ
क्यूँ किसी पर परिवाद करूँ
अपनी राह के हर काँटे का
ऐसे क्यूँ तिरस्कार करूँ ?

-यश©
10/01/2019

05 January 2019

गुब्बारे ......

कितनी ही साँसों को
खुद में समाए
कितने ही गमों को भुलाए
किलकारियों पर इठलाते
आसमान में
उड़ते जाते
सबकी खुशियों की
डोर से बंधे
रंग-बिरंगे
गुब्बारे
बस मुस्कुराते ही रहते हैं
खामोशी से
कुछ-कुछ
कहते ही रहते हैं।
ये गुब्बारे
धर लेते हैं रूप
कभी उल्लास की
लड़ियों का
कभी दीवारों पर सज कर
बन जाते हैं गवाह
अनगिनत महफिलों का।
अपनी साँसों के टूटने तक
ये गुब्बारे
रखते हैं महफूज
और आबाद
उन क्षणिक स्वप्नों को
जो हम बुनते हैं
दिन के उजाले में
खुली आँखों से
आने वाले हर पल को
बस यूं ही
जी लेने के लिए।
.
यश ©
05/01/2019




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