जलते जलते दीया भी
है अक्सर बुझ जाता ।
जो दबा उसके भीतर
समझ कोई न पाता।
उसके तल पर घना अंधेरा
लौ भले ही दिखलाती सवेरा।
थोड़ा गिरती -थोड़ा उठती
करम अपना वो करती रहती।
व्यंग्य बाणों से बिधते रह कर
अपना जीवन जीता जाता ।
हर दीये का एक ही किस्सा
वो सबको खुश न रख पाता।
-यशवन्त माथुर ©
21/03/2020
है अक्सर बुझ जाता ।
जो दबा उसके भीतर
समझ कोई न पाता।
उसके तल पर घना अंधेरा
लौ भले ही दिखलाती सवेरा।
थोड़ा गिरती -थोड़ा उठती
करम अपना वो करती रहती।
व्यंग्य बाणों से बिधते रह कर
अपना जीवन जीता जाता ।
हर दीये का एक ही किस्सा
वो सबको खुश न रख पाता।
-यशवन्त माथुर ©
21/03/2020
बहुत सुन्दर
ReplyDeleteहम्म
ReplyDeleteसही है।
जो परिपाटी को नहीं पिटता वो दिया ही है।
गजब की रचना।
नई रचना सर्वोपरि?
मार्मिक रचना ! दीये का काम है प्रकाशित करना, शेष की वह परवाह ही नहीं करता
ReplyDeleteबहुत सुन्दर
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