कभी-कभी
आँखों के सामने
ये खाली पन्ने
बाट जोहते रहते हैं
कि कोई कलम
समय रहते
उनकी सुध ले ही ले।
ये खाली पन्ने
कभी शांत बैठे रहते हैं
कभी हवा के हर झोंके के साथ
मिलाते हुए ताल
बड़बड़ाते रहते हैं
बताते रहते हैं
अनचाहे निर्वासन की
मजबूरी में
न लिखी जा सकने वाली
कहानी और
अपना हाल।
काश!
इन खाली पन्नों का हर कोना
अमिट स्याही और
शब्दों से आबाद रह कर
गर बता पाता
बनती-बिगड़ती सभ्यताओं की दास्तान
तो क्या हम
और हमारा इतिहास
वर्तमान जैसा होता ?
या हम निकल ही नहीं पाते बाहर
भूत के हर निकास पर बने
समय के चक्रव्यूह से ?
-यशवन्त माथुर ©
30/04/2020
वाह ! इतिहास का स्वागत या भूत से होने वाला बंधन .... क्या बेहतर है, कौन जानता है
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