ये धूल भरे गुबार
कुछ भी तो नहीं
उस धुंध के आगे
जिसके पार
हम जाना ही नहीं चाहते
हमने थाम रखा है खुद को
बंधनों में जकड़ रखा है
अपनी ही बनाई रूढ़ियों के
चारों के तरफ
घूमते रहकर
सिकुड़ती जाती
स्वार्थी होती जाती
हमारी सोच का अंत
सिर्फ उसी देहरी पर है
जिसके पार
एकांतवास में लीन हैं
धारा के विपरीत
चलने वाले लोग।
-यशवन्त माथुर ©
19/04/2020
कुछ भी तो नहीं
उस धुंध के आगे
जिसके पार
हम जाना ही नहीं चाहते
हमने थाम रखा है खुद को
बंधनों में जकड़ रखा है
अपनी ही बनाई रूढ़ियों के
चारों के तरफ
घूमते रहकर
सिकुड़ती जाती
स्वार्थी होती जाती
हमारी सोच का अंत
सिर्फ उसी देहरी पर है
जिसके पार
एकांतवास में लीन हैं
धारा के विपरीत
चलने वाले लोग।
-यशवन्त माथुर ©
19/04/2020
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