इंसानों की नहीं जाहिलों की यह बस्ती लगती है।
बनी जो नफ़रतों की वह इमारत यहाँ बसती है।
कहीं पूजा--इबादत या अरदास और प्रार्थना में।
बात एक ही सबकी है अमन की हर कामना में।
फिर चाहो तो देख लो खूँ तो हरेक का एक ही है।
फर्क तो जिस्मों का है नस्लों का सिर्फ भेद ही है।
मन के जंगलों में क्यूँ अब भी यह आग दहकती है?
बड़े आलिम-फ़ाज़िल* हैं तो चिंगारी क्यूँ सुलगती है?
अरे! मिल जाओ गले कि गिले तो फिर होते रहेंगे।
गर अब भी न हुए एक तो फिर सब रोते ही रहेंगे।
-यशवन्त माथुर ©
19/04/2020
*आलिम-फ़ाज़िल=पढे-लिखे
बनी जो नफ़रतों की वह इमारत यहाँ बसती है।
कहीं पूजा--इबादत या अरदास और प्रार्थना में।
बात एक ही सबकी है अमन की हर कामना में।
फिर चाहो तो देख लो खूँ तो हरेक का एक ही है।
फर्क तो जिस्मों का है नस्लों का सिर्फ भेद ही है।
मन के जंगलों में क्यूँ अब भी यह आग दहकती है?
बड़े आलिम-फ़ाज़िल* हैं तो चिंगारी क्यूँ सुलगती है?
अरे! मिल जाओ गले कि गिले तो फिर होते रहेंगे।
गर अब भी न हुए एक तो फिर सब रोते ही रहेंगे।
-यशवन्त माथुर ©
19/04/2020
*आलिम-फ़ाज़िल=पढे-लिखे
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