ये तो तय था पहले से ही
कि जो हुआ
या जो हो रहा है
होना ही था
अपने कर्मों का फल
इस तरह भोगना ही था।
तो आखिर क्यूँ
मचाया हुआ है
हाहाकार
क्यूँ कर रहे हैं
चीख-पुकार ?
उस समय
जब अवसर था
कि हम बदल सकते
अपने भावी वर्तमान को
हमारी तर्जनी उंगली
पूर्वाग्रह के रक्त प्रवाह के साथ
टिकती रही
उस धारा के तल पर
जिसकी कठोर सतह के भीतर का दल-दल
हमें आज भी
कर रहा है मजबूर
और भी धँसते जाने को
सहते जाने को
सुबह और शाम की भूख।
मगर अब
एक यक्ष प्रश्न यह भी है
कि क्या हमें पछतावा है ?
क्या हम कर रहे हैं
आत्म मंथन ?
क्या हम कर रहे हैं प्रयत्न ?
कि बाहर आकर देख सकें
वही चलती-फिरती
उजली दुनिया.. ..
शायद नहीं
शायद इसलिए नहीं
क्योंकि हमें स्वीकार है
समय की अंधी सत्ता
और उसकी दासता
लेकिन अस्वीकार है
असत्य की रूढ़ियों को तोड़कर
तथाकथित
'प्रगतिशील' कहलाना।
-यशवन्त माथुर ©
09/04/2020
कि जो हुआ
या जो हो रहा है
होना ही था
अपने कर्मों का फल
इस तरह भोगना ही था।
तो आखिर क्यूँ
मचाया हुआ है
हाहाकार
क्यूँ कर रहे हैं
चीख-पुकार ?
उस समय
जब अवसर था
कि हम बदल सकते
अपने भावी वर्तमान को
हमारी तर्जनी उंगली
पूर्वाग्रह के रक्त प्रवाह के साथ
टिकती रही
उस धारा के तल पर
जिसकी कठोर सतह के भीतर का दल-दल
हमें आज भी
कर रहा है मजबूर
और भी धँसते जाने को
सहते जाने को
सुबह और शाम की भूख।
मगर अब
एक यक्ष प्रश्न यह भी है
कि क्या हमें पछतावा है ?
क्या हम कर रहे हैं
आत्म मंथन ?
क्या हम कर रहे हैं प्रयत्न ?
कि बाहर आकर देख सकें
वही चलती-फिरती
उजली दुनिया.. ..
शायद नहीं
शायद इसलिए नहीं
क्योंकि हमें स्वीकार है
समय की अंधी सत्ता
और उसकी दासता
लेकिन अस्वीकार है
असत्य की रूढ़ियों को तोड़कर
तथाकथित
'प्रगतिशील' कहलाना।
-यशवन्त माथुर ©
09/04/2020
बहुत बढ़िया
ReplyDeleteसही है
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