सब चलते चले जा रहे हैं
ख्यालों में उड़ते जा रहे हैं
अपनी नींदों से उठकर
कहीं भागते जा रहे हैं
लेकिन यह एहसास नहीं है
कि कहाँ जा रहे हैं।
मजबूरियों के रास्तों पर
फासले बढ़ते जा रहे हैं
और हम में से कुछ हैं
कि बस हँसते जा रहे हैं
बेरहमी से अपने ही जाल में
सब फँसते जा रहे हैं ।
ये वक्त का कत्लखाना है
जान लो!
यहाँ कुछ बीता नहीं होता
दीवारों पर उकेरा हुआ
कुछ मिटा हुआ नहीं होता
यहाँ याद रखा जाता है
हर उस पल का हिसाब
जिस पल से सब सांसें
लेते जा रहे हैं।
-यशवन्त माथुर ©
17/05/2020
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सशक्त लेखन, सच है यहां श्वास श्वास का हिसाब देना पड़ता है, हर कर्ज चुकाना होता है चाहे वह हँसी का कर्ज ही क्यों न हो
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