चाहता हूँ
शाम का यह सूरज
गंगा की तरह
किसी पवित्र नदी में
डुबकी लगा कर
अपने कर्मों का
करले प्रायश्चित
और अगली सुबह
भोर की शुद्ध किरणों का
आचमन कर
हम सब भी
सामाजिक दूरियों से
निकल कर बाहर
हो उठें बेपरवाह
पहले की तरह।
-चित्र (श्रावस्ती भ्रमण 2019) एवं शब्द यशवन्त माथुर©
आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल बुधवार (13-05-2020) को "अन्तर्राष्ट्रीय नर्स दिवस की हार्दिक शुभकामनाएँ" (चर्चा अंक-3700) पर भी होगी।
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
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सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
सुंदर कल्पना, सूरज की किरणें तो सदा ही पावन हैं, अग्नि शुद्ध ही करती है,बेपरवाही का ही तो नतीजा नहीं है क्या जो आज हो रहा है..
ReplyDeleteबहुत बढ़िया
ReplyDeleteबहुत खूब
ReplyDeleteबहुत सुंदर रचना
ReplyDeleteबहुत सुंदर रचना
ReplyDeleteसुंदर सार्थक।
ReplyDeleteसुंदर सार्थक सृजन।
ReplyDeleteबहुत ही सुंदर अभिव्यक्ति आदरणीय सर
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