बेगाने हो चले हैं
अपनी मंजिल की ओर
वो यूंही निकल पड़े हैं।
किस बात का करें इंतजार
भूखे-प्यासे रह कर
दु:ख का किससे करें इजहार
झुलसाती गर्मी सह कर।
सूटकेसों पे घिसट कर
बच्चे हो रहे हैं बेहाल
और जो श्रवण कुमार हैं
उनकी लड़खड़ा रही है चाल।
दूर है मंजिल क्या करें वो
बीच राह में रो पड़े हैं
उनके जीवन का मोल नहीं
जो थक कर कहीं पर सो पड़े हैं।
-यशवन्त माथुर ©
16/05/2020
मार्मिक रचना ! श्रमिकों का दुःख असहनीय है पता नहीं कौन सी जिजीविषा है जो उन्हें इतना तपने का बल दे रही है, शायद अदृश्य रूप में कोई शक्ति है जो उन्हें कदम-कदम बढ़ा रही है
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