न जाने कौन से जश्न में जीत मशगूल है।
मैं मानता हूँ, हाँ! मुझे अपनी हार कबूल है।
इक दास्तां लिखी थी स्याही से, जो मिट गई।
वक्त के दायरे में, और धूल में सिमट गई।
बचे-खुचे अल्फ़ाज़ भी बारिशों में बह गए।
फिर भी कुछ कतरे हैं जो बुहरने से रह गए।
है मालूम कि बेशक ना-मालूम बना फिरता हूँ।
उठता हूँ जब भी मगर अक्सर गिरा करता हूँ।
न जाने इस माहौल में ये कैसा क्या फितूर है।
हार है कुबूल क्योंकि जीत कोसों दूर है।
26062020