वक़्त आकर गुजरता रहा
मैं टकटकी लगाए बस देखता रहा
कोई छू कर गुज़रा था अभी - अभी जैसे
मैं सोया था, दिन में तारे गिनता रहा।
और जब होश आया -
तो कितनी ही शामें गुज़र चुकी थीं
शमा कितनी ही जली थीं,
और बुझ चुकी थीं।
ये दौर तन्हाइयों का है,
तुम क्या समझोगे साहिब!
एक नश्तर चुभता रहा
और मैं जीता रहा
वक़्त आ-आकर
मौसमों की तरह गुजरता रहा।
-यशवन्त माथुर ©
02072020
मैं टकटकी लगाए बस देखता रहा
कोई छू कर गुज़रा था अभी - अभी जैसे
मैं सोया था, दिन में तारे गिनता रहा।
और जब होश आया -
तो कितनी ही शामें गुज़र चुकी थीं
शमा कितनी ही जली थीं,
और बुझ चुकी थीं।
ये दौर तन्हाइयों का है,
तुम क्या समझोगे साहिब!
एक नश्तर चुभता रहा
और मैं जीता रहा
वक़्त आ-आकर
मौसमों की तरह गुजरता रहा।
-यशवन्त माथुर ©
02072020
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