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14 August 2020

देहरी के उस पार

बरसाती रात के
गहरे सन्नाटे में
मौन के आवरण के भीतर
मेरे मैं को खोजते हुए
चलता चला जा रहा हूँ
हर पहर
बढ़ता जा रहा हूँ।

एक अजीब सी दुविधा
एक अजीब सी आशंका
हर कदम पर
हाथ पकड़ कर
खींच ले रही है
अपनी ओर
जाने नहीं देना चाहती
उस ओर
जहाँ
मन की देहरी के उस पार
मुक्ति
कर रही है
बेसब्री से
मेरा इंतजार।

-यशवन्त माथुर ©
14/08/2020 

17 comments:


  1. जी नमस्ते ,
    आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा शनिवार (१५-०८-२०२०) को 'लहर-लहर लहराता झण्डा' (चर्चा अंक-३७९७) पर भी होगी।
    आप भी सादर आमंत्रित है
    --
    अनीता सैनी

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  2. आभार यशवन्त टिप्पणी बक्सा खुला रखने के लिये। यहां तक आ कर बिना कुछ कहे लौटना अच्छा नहीं लगता था :) सुन्दर सृजन।

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    Replies
    1. अपनत्व के लिये बहुत बहुत धन्यवाद सर!

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  3. भावपूर्ण रचना

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  4. मन की देहरी के पार एक दिन सबको जाना है लेकिन अंदर रहने की खुशफहमी में जीना अच्छा लगता हैं हम सबको
    बहुत अच्छी रचना

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  5. सुन्दर रचना

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  6. मन की देहरी के उस पार
    मुक्ति
    कर रही है
    बेसब्री से
    मेरा इंतजार।
    वाह!!!
    लाजवाब।

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  7. स्वतंत्रता दिवस पर हार्दिक शुभकामनाएं।
    सुंदर सृजन।

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  8. मन की देहरी के पार एक न एक दिन सबको ही जाना है, भावपूर्ण लेखन !

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  9. देहरी के उस पार..
    बहुत सुंदर रचना..

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