बरसाती रात के
गहरे सन्नाटे में
मौन के आवरण के भीतर
मेरे मैं को खोजते हुए
चलता चला जा रहा हूँ
हर पहर
बढ़ता जा रहा हूँ।
एक अजीब सी दुविधा
एक अजीब सी आशंका
हर कदम पर
हाथ पकड़ कर
खींच ले रही है
अपनी ओर
जाने नहीं देना चाहती
उस ओर
जहाँ
मन की देहरी के उस पार
मुक्ति
कर रही है
बेसब्री से
मेरा इंतजार।
-यशवन्त माथुर ©
14/08/2020
गहरे सन्नाटे में
मौन के आवरण के भीतर
मेरे मैं को खोजते हुए
चलता चला जा रहा हूँ
हर पहर
बढ़ता जा रहा हूँ।
एक अजीब सी दुविधा
एक अजीब सी आशंका
हर कदम पर
हाथ पकड़ कर
खींच ले रही है
अपनी ओर
जाने नहीं देना चाहती
उस ओर
जहाँ
मन की देहरी के उस पार
मुक्ति
कर रही है
बेसब्री से
मेरा इंतजार।
-यशवन्त माथुर ©
14/08/2020
ReplyDeleteजी नमस्ते ,
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा शनिवार (१५-०८-२०२०) को 'लहर-लहर लहराता झण्डा' (चर्चा अंक-३७९७) पर भी होगी।
आप भी सादर आमंत्रित है
--
अनीता सैनी
हार्दिक धन्यवाद।
Deleteआभार यशवन्त टिप्पणी बक्सा खुला रखने के लिये। यहां तक आ कर बिना कुछ कहे लौटना अच्छा नहीं लगता था :) सुन्दर सृजन।
ReplyDeleteअपनत्व के लिये बहुत बहुत धन्यवाद सर!
Deleteभावपूर्ण रचना
ReplyDeleteहार्दिक धन्यवाद!
Deleteमन की देहरी के पार एक दिन सबको जाना है लेकिन अंदर रहने की खुशफहमी में जीना अच्छा लगता हैं हम सबको
ReplyDeleteबहुत अच्छी रचना
हार्दिक धन्यवाद!
Deleteवाह!
ReplyDeleteसादर धन्यवाद
Deleteसुन्दर रचना
ReplyDeleteहार्दिक धन्यवाद!
Deleteमन की देहरी के उस पार
ReplyDeleteमुक्ति
कर रही है
बेसब्री से
मेरा इंतजार।
वाह!!!
लाजवाब।
हार्दिक धन्यवाद!
Deleteस्वतंत्रता दिवस पर हार्दिक शुभकामनाएं।
ReplyDeleteसुंदर सृजन।
मन की देहरी के पार एक न एक दिन सबको ही जाना है, भावपूर्ण लेखन !
ReplyDeleteदेहरी के उस पार..
ReplyDeleteबहुत सुंदर रचना..