16 August 2020

मैं लोकतंत्र हूँ

मैं
समय के पहियों पर
जीता-जागता
चलता-फिरता
उलझता-सुलझता
अक्सर दिखता रहता हूँ
सबको
आकर्षित करता रहता हूँ
अपनी
खोखली देह के ऊपर
रचे-बसे
मांसल
हुष्ट- पुष्ट
आवरण से।

यह आवरण
जो सिर्फ छद्म
क्षणिक ही है
अपनी अपार शक्ति
और गुरुत्वाकर्षण से
अपने आगे
कर देता है
नतमस्तक
समूचे ब्रह्माण्ड को।

फिर भी
सच तो यही है
कि
आज के इस दौर में
संभव नहीं उपचार
मेरे भीतर को चीरती
दीमक का
मृगमरीचिका जैसे
प्रत्यक्ष भ्रमजाल का
अस्तित्व की कड़ी परीक्षा के
इस विपरीत काल का।

..और तब भी
कागजों पर यह कहा जाता है
कि मैं अमर हूँ ....
स्वतंत्र हूँ ..

मैं  लोकतंत्र हूँ !

-यशवन्त माथुर ©
16082020

9 comments:

  1. प्रभावशाली लेखन, लोकतंत्र यदि अमर न होता तो भारत आज भारत न रहता

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  2. बहुत सुंदर

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  3. बहुत सुन्दर रचना

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  4. सादर नमस्कार,
    आपकी प्रविष्टि् की चर्चा शुक्रवार ( 21-08-2020) को "आज फिर बारिश डराने आ गयी" (चर्चा अंक-3800) पर भी होगी। आप भी सादर आमंत्रित है.

    "मीना भारद्वाज"

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  5. बहुत सुंदर एंव सटीक रचना ।

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  6. मैं
    समय के पहियों पर
    जीता-जागता
    चलता-फिरता
    उलझता-सुलझता
    अक्सर दिखता रहता हूँ
    सबको
    आकर्षित करता रहता हूँ
    अपनी
    खोखली देह के ऊपर
    रचे-बसे
    मांसल
    हुष्ट- पुष्ट
    आवरण से।,,,, बहुत बेहतरीन रचना ।

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  7. वाह!बेहतरीन सृजन सर।

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