02 September 2020

मन का एक कोना है और मैं हूँ

नहीं चाहता बताना
नहीं चाहता समझाना
कि इस दौर में
आखिर इतना उलझा हुआ
क्यूँ हूँ
बस मन का एक कोना है
और मैं हूँ

ये जो संगीत की लहरें
गुजर रही हैं
कानों से मन के भीतर
साथ हैं मेरे फिर भी तन्हा सा
क्यूँ हूँ
बस मन का एक कोना है
और मैं हूँ

यूं लिखते-लिखते
पढ़ते-पढ़ते
सब समझते-बूझते
आखिर ना-समझ इतना
बनता क्यूँ हूँ
बस मन का एक कोना है
और मैं हूँ

दिखते हैं सब अपने
लेकिन पराए ही हैं
बेमतलब के रिश्तों में
फँसता ही क्यूँ हूँ
बस मन का एक कोना है
और मैं हूँ

-यशवन्त माथुर ©
02092020

14 comments:

  1. सादर नमस्कार,
    आपकी प्रविष्टि् की चर्चा शुक्रवार ( 04-09-2020) को "पहले खुद सागर बन जाओ!" (चर्चा अंक-3814) पर भी होगी। आप भी सादर आमंत्रित है.

    "मीना भारद्वाज"

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  2. बहुत सुंदर रचना

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  3. दिखते हैं सब अपने
    लेकिन पराए ही हैं
    बेमतलब के रिश्तों में
    फँसता ही क्यूँ हूँ
    बस मन का एक कोना है
    और मैं हूँ
    यही फलसफा है जीवन का ...और इस मन का...
    लाजवाब सृजन।

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  4. सुन्दर प्रस्तुति

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  5. आ यशवंत माथुर जी, भावात्मक अभिव्यक्ति! सुंदर रचना!
    दिखते हैं सब अपने
    लेकिन पराए ही हैं
    बेमतलब के रिश्तों में
    फँसता ही क्यूँ हूँ
    बस मन का एक कोना है
    और मैं हूँ।
    हार्दिक साधुवाद!
    मैंने आपका ब्लॉग अपने रीडिंग लिस्ट में डाल दिया है। कृपया मेरे ब्लॉग "marmagyanet.blogspot.com" अवश्य विजिट करें और अपने बहुमूल्य विचारों से अवगत कराएं। सादर!--ब्रजेन्द्रनाथ

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  6. भावुकता से परिपूर्ण रचना।

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  7. बस मन का एक कोना है और मैं हूँ!!!
    यही शांतिमय जीवन का सार है। सुंदर रचना।

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  8. भावपूर्ण रचना

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  9. एक विशेष मानसिक द्वंद्व को दर्शाती रचना...

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  10. बड़ी सारगर्भित अभिव्यक्ति है यह यशवन्त जी । जब कोई सुनने वाला न हो तो किसे बताया जाए और जब कोई समझने वाला न हो तो किसे समझाया जाए ?

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