समय के साथ
चेहरे बदलते हैं
कभी-कभी
बदलती हैं तकदीरें भी
हाथों की लकीरें भी
लेकिन कुछ
ऐसा भी होता है
जो अक्षुण्ण रहता है
जिसके भीतर का शून्य
शुरू से अंत तक
तमाम विरोधाभासों
और बदलावों के बाद भी
बिल्कुल निर्विकार
और अचेतन होता है
शायद उसी परिकल्पना की तरह
जो रची गई होती है
किसी साँचे में
उसे ढालने से पहले।
-यशवन्त माथुर ©
14102020