14 October 2020

कुछ ऐसा भी होता है .....

समय के साथ 
चेहरे बदलते हैं
कभी-कभी 
बदलती हैं तकदीरें भी 
हाथों की लकीरें भी 
लेकिन कुछ 
ऐसा भी होता है 
जो अक्षुण्ण रहता है 
जिसके भीतर का शून्य 
शुरू से अंत तक
तमाम विरोधाभासों 
और बदलावों के बाद भी 
बिल्कुल निर्विकार 
और अचेतन होता है 
शायद उसी परिकल्पना की तरह 
जो रची गई होती है 
किसी साँचे में 
उसे ढालने से पहले। 

-यशवन्त माथुर ©
14102020 

7 comments:

  1. भावपूर्ण रचना ..परिकल्पना भी शून्य नहीं रही, शून्य तो शायद उसके भी पूर्व है जब कोई कल्पना भी नहीं ...

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  2. बहुत सुन्दर

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  3. बड़ी सारगर्भित बात कही है आपने यशवंत जी । हार्दिक अभिनंदन ।

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  4. प्रभावी अभिव्यक्ति !

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  5. जो अक्षुण्ण रहता है
    जिसके भीतर का शून्य
    शुरू से अंत तक
    तमाम विरोधाभासों
    और बदलावों के बाद भी
    बिल्कुल निर्विकार
    और अचेतन होता है
    बहुत सुन्दर सार्थक सृजन
    वाह!!!

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