समय के साथ
चेहरे बदलते हैं
कभी-कभी
बदलती हैं तकदीरें भी
हाथों की लकीरें भी
लेकिन कुछ
ऐसा भी होता है
जो अक्षुण्ण रहता है
जिसके भीतर का शून्य
शुरू से अंत तक
तमाम विरोधाभासों
और बदलावों के बाद भी
बिल्कुल निर्विकार
और अचेतन होता है
शायद उसी परिकल्पना की तरह
जो रची गई होती है
किसी साँचे में
उसे ढालने से पहले।
-यशवन्त माथुर ©
14102020
भावपूर्ण रचना ..परिकल्पना भी शून्य नहीं रही, शून्य तो शायद उसके भी पूर्व है जब कोई कल्पना भी नहीं ...
ReplyDeleteबहुत सुन्दर रचना।
ReplyDeleteसुन्दर
ReplyDeleteबहुत सुन्दर
ReplyDeleteबड़ी सारगर्भित बात कही है आपने यशवंत जी । हार्दिक अभिनंदन ।
ReplyDeleteप्रभावी अभिव्यक्ति !
ReplyDeleteजो अक्षुण्ण रहता है
ReplyDeleteजिसके भीतर का शून्य
शुरू से अंत तक
तमाम विरोधाभासों
और बदलावों के बाद भी
बिल्कुल निर्विकार
और अचेतन होता है
बहुत सुन्दर सार्थक सृजन
वाह!!!