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26 November 2020

अगर वह जाग गया ....

किसान! 
खून-पसीना एक कर 
दाना-दाना उगाता है 
हमारी रसोई तक आकर 
जो भोजन बन पाता है 
इसीलिए 
कभी ग्राम देवता 
कभी अन्नदाता कहलाता है 
लेकिन 
क्या कभी देखा है?
उसे भोग और विलास में 
क्या कभी देखा है ?
कहीं उसका कोई महल खड़ा 
या देखा है ?
उसे सोते हुए
सोने और चांदी के बिस्तर पर  
नहीं!
कभी नहीं! कहीं नहीं! 
वह तो आज के इस विकसित युग में भी 
विकासशील होने की चाह लिए 
अब तलक अविकसित ही है 
और जब भी 
वह आवाज उठाता है 
करता है कोशिशें 
अपने वाजिब हक और दाम की 
हम आरामतलब लोग 
उसकी मेहनत को 
तोल देते हैं 
लाठियों की मार 
और आँसू गैस की कीमत से 
क्योंकि हम जानते हैं...
किसान  
अगर वास्तव में जाग गया
अपनी पर आ गया  
तो उसके शोषण की नींव पर बनी 
हमारे अहं 
और स्वार्थ की छद्म इमारत 
एक पल भी नहीं लगाएगी 
भरभराकर 
गिरने में। 

-यशवन्त माथुर ©
26112020

21 November 2020

काश बदल सकता ....

काश!
कि मैं बदल सकता 
ले जा सकता 
समय को वहीं 
उसी जगह 
जहाँ से 
शुरू हुआ था 
ये सफर 
लेकिन 
अपनी द्रुत गति से 
समय के इस चलते जाने में 
थोड़ी भी 
नहीं होती गुंजाइश 
इस जीवन के 
बीते पलों में 
वापस लौटने की 
मगर हाँ 
सिर्फ चिरनिद्रा ही 
होता है 
अंतिम विकल्प 
जिसकी प्रतीक्षा में 
कभी कभी लगने लगता है 
एक एक सूक्ष्म पल 
कई -कई जन्मों जैसा। 

-यशवन्त माथुर ©
22112020 

क्या दुनिया से लोकतन्त्र खत्म होने जा रहा है? .. रति सक्सेना


भूतपूर्व प्रधानमंत्री पी वी नरसिम्हा राव ने बहुत पहले ही लिख दिया था कि 'हम लोकतंत्र के भ्रमजाल में जी रहे हैं'। ऐसे में यदि देश और दुनिया के वर्तमान परिदृश्य को देखें तो लोकतंत्र के अस्तित्व पर प्रश्न उठना स्वाभाविक ही लगता है।  प्रख्यात लेखिका  रति सक्सेना जी ने अपनी फ़ेसबुक पोस्ट में इसी ज्वलंत सामयिक मुद्दे पर अपनी महत्त्वपूर्ण टिप्पणी दर्ज़  की है, जिसे साभार यहाँ प्रस्तुत कर रहा हूँ। 

दुनिया की हलचल अब हमारे पास ज्यादा आसानी से आ रही है, फिर भी काफी कुछ  जो  दिखाई देता है, वह अपने आसपास एक मिथक गढ़ लेता है। जब हम करीब जाते हैं , यहां वहां की भीतरी नस को पकड़ते हैं तब असलियत सामने आती है। लोकतन्त्र भी एक मिथक रहा, जिसके वाहक दो बड़े देश रहे, अमेरिका और भारत। अमेरिका में लोकतन्त्र की वजह भी लगभग वही रही जो भारत में थी, अमेरिकन क्रान्ति के बाद अमेरिका को एक जुट रखने के लिए यह जरूरी था कि यहां पर एक ऐसा तन्त्र यानी कि शासन हो, जो अमेरिकन कहलाने वाले नागरिकों को समान सुविधाएं देता हो, हालांकि इसके अन्तर्गत बहुत से लूप होल थे? कौन हैं अमेरिकन नागरिक, क्यों कि अमेरिका में पूरा यूरोप पहुंचा था, और मूल वासी तो वहां थे ही। अब फ्रान्स, स्पेन , ब्रिटेन के नागरिक कैसे साथ रहे़?

तो एक भाषा , एक नियम लागू हुआ, लेकिन प्रान्तों को लगभग स्वायत्तता दे दी गई। मूल वासियों को और दास कहलाने वर्ग को दबाने के लिए समाज और सरकार में अलग से तरीके थे।और इस एक भाषा नियम ने तो मूलवासियों को गुलाम सा बना दिया। जैसा की जाय हर्जारो ने अपने मेमोर में लिखा है कि मूल वासियों की अपनी भाषाएँ थीं, अंग्रेजी उन पर लाद दी गई, और उनके आचारों को अवैद्य मान लिया गया। जिससे उनके समाज के लोग एक झटके में ही गुलाम हो गए। अभी तो पीढ़ियां बीत रही हैं, लेकिन जाय हर्जारों के पूर्व की पीढ़ी के लिए अंग्रेजी मुश्किल भाषा थी, साथ ही उन पर लादा गया ईसाई धर्म भी उनके अपनी संस्कृति के बहुत खिलाफ था। लेकिन चर्चों की मदद से मूल वासियों के बच्चों को स्कूलों में डाला गया, जिससे एक खास कामगार वर्ग पैदा हो सके। 

श्याम वर्ग के जनों के साथ बहुत अलग ही व्यवहार किया था, क्यों कि दुनिया की सबसे पहले सभ्य होने वाली अफ्रीकी कौम सबसे पहले दास प्रथा में झौंक दी गई, सिर्फ इसलिये कि उनकी शारीरिक ताकत अकूत थी। मैंने एक अफ्रीकी फिल्म देखी थी, जिसमें फिल्म के आरम्भ में एक वाक्य आता है, "जब तुम लड़ रहे थे, हम गणित सीख रहे थे, जब तुम मारकाट कर रहे थे, हम वाणिज्य सीख रहे थे, जब तुम गला काट रहे थे हम नृत्य कर रहे थे"  मुझे ना फिल्म का नाम याद है, ना ही सही वाक्य, लेकिन अर्थ यही था। शायद मकड़ी को लेकर फिल्म थी यह, जो उस काल में उनकी इष्ट देवी थी।"

दुख की बात यह कि यह सामाजिक भिन्नता नहीं, बल्कि मानवीय साजिश थी, काफी कुछ वैसे ही , जैसे आज महानगरों में गांव दराज की लड़कियों को घरेलू सहायिका के नाम पर गुलामी का रूप भुगतना पड़ता है़। 

यानी कि अमेरिका लोक तन्त्र की चादर ओढ़े ऐसा राज्य था, जिसकी भिन्नता पर आवरण पड़ा था। 

लेकिन पूरी दुनिया पूरे महिने से जो ड्रामा देख रही है, जिस तरह से लोकतन्त्र को भस्म करने की कोशिश चल रही हैं, उसका प्रभाव संभवतया पूरी दुनिया को उठाना पड़े। क्यों कि तानाशाह एक देश नहीं होता, बल्कि अपने लपेटे में बहुत से देशों को ले लेता है। अमेरिका का जो चेहरा निकल कर आ रहा है, वह छिपा हुआ था, लेकिन बहुत वीभत्स है, यह फिर से दुनिया को पीछे ढ़केल देगा। 

चीन इसका अच्छा उदाहरण हैं, समाजवाद के नाम पर राजकीय तानाशाही से जूझने वाले देश ने किस तरह से अपने खाल के भीतर छिपी तानाशाही को उजागर कर दिया है, सोचने लायक है। 

यानी साम्यवाद का मुलम्मा उतरते ही चीन की तानाशाही दुनिया के नाक में दम कर रही है। और हम कुछ कर भी नहीं कर पा रहे हैं। 

चीन के बारे में वहां के लेखकों कवियों , जिन्होंने कल्चर  रिव्यूलेशन को भुगता है, जिससे साम्यवाद की खाल में तानाशाही के आगमन की कथा थी,लेकिन आर्थिक सुख के नाम पर उसकी जो दादागिरी बढ़ रही है, वह खतरा दिखाती है, खास तौर से उन देशों को, जिसकी सीमाएं जुड़ती हैं। 

चीन ना केवल सीमाओं पर लड़ता हैं,बल्कि समाज, संस्कृति और कला विज्ञान के नाम पर भी घुसपैठ करता है, जिसके कई उदाहरण हैं, जो शायद बहुत बाद में समझ में आयेंगे। 

अब तीसरी बड़ी लोकतन्त्र शक्ति भारत है, जिसके भी घुन लग रही है, भारत को लोकतन्त्र बनाने में जो मेहनत लगी थी, उससे कम मेहनत पटेल को नहीं लगी थी, जब उन्होंने विविध भाषा और आचार विचार वाले राजघरानों को भारत गणतन्त्र में शामिल करने को राजी किया। शायद लोगो को मालूम ही नहीं कि ट्रावनकोर की राजकुमारी ने सोच विचार में दस साल लगाये, केरल राज्य 1 November 1956 में बना, अन्यथा ये भी अलग अलग रियासते थीं। 

यदि पटेल की दृष्टि लिए बिना पूरे देश को एक चाबुक से हांका गया तो लोकतन्त्र को झटका पहुंच सकता है, जातीय और धार्मिक विविधता के होने पर भी भारत में एक सार्वभौमिकता थी, लेकिन जो अनभिज्ञता दिखाई दे रही है, वह दुनिया को एक खतरे से आगाह करवाती है। 

हम अब भी आशा करते हैं कि लोकतन्त्र बचा रहे, बची रहे आदमी की अस्मिता!


नोट-यहाँ क्लिक करके इस पोस्ट को फ़ेसबुक पर पढ़ सकते हैं। 

14 November 2020

पटाखे तो चलाएंगे

बारूद की गंध से आसमान को
आज खूब महकाएंगे
डरे या सहमे चाहे कोई भी
पटाखे तो चलाएंगे।

ऐसी तैसी पर्यावरण की 
धुंध की चादर बिछाएंगे
सांस न ले भले कोई भी
पटाखे तो चलाएंगे।

धूम धड़ाम हो गली मोहल्ला
हल्ला खूब मचाएंगे
रोगी कोई हो घर में लेटा
पटाखे तो चलाएंगे।

करें कोई भी काम ढंग का
तो प्रगतिशील कहलाएंगे
कुतर्की होने का सुख कैसे
फिर ऐसे  ले पाएंगे?

जिसको जो कहना हो कह ले 
पटाखे तो चलाएंगे।


-यशवन्त माथुर ©

सबकी दीवाली मना पाएँ

चलते-चलते अँधेरों में 
मंजिल अपनी पा जाएँ।   
जो देखते हैं सब सपने 
पूरा उनको कर पाएँ।  

दीप बनाने वालों के घर 
दीयों से रोशन हो जाएँ।   
नयी फसल काटने वाले 
भूखे कभी न सो पाएँ।  

फुटपाथों पर रहने वाले , 
कूड़े में जूठन ढूँढ़ने वाले, 
तीखा-मीठा नया नया सा, 
सबकी तरह ही खा पाएँ।  

कितना ही अच्छा हो गर, 
सब थोड़ा थोड़ा बदल पाएँ।   
नए ढंग से, नए रंग में 
सबकी दीवाली मना पाएँ।   

(दीप पर्व सभी को शुभ व मंगलमय हो) 

-यशवन्त माथुर ©

05 November 2020

छोटी - छोटी बातें

PC:Bel Hamid..Posted in a Facebook group
आओ कर लें 
कुछ छोटी - छोटी बातें 
जो बड़ों के लिये 
साधारण ही होती हैं 
लेकिन 
हम तो बस खुश हो लेते हैं 
प्यार से 
किसी के चूम लेने भर से 
या फिर यूं ही 
किसी की गुदगुदी से 
हमारे लिये 
थोड़ी सी रेत ही काफी है 
जिससे बना लेते हैं 
अपने सपनों का घर 
हमारे खेलने के लिये 
मुट्ठी भर बर्फ ही बेहतर है 
क्योंकि हमें आदत है 
जीवन के साथ चलते जाने की 
बस इसीलिए 
बिना झिझक 
तुम भी कर सकते हो 
कह सकते हो 
छोटी-छोटी बातें 
जिनमें बड़े-बड़े सपने 
आकार ले कर 
बदल जाते हैं 
भविष्य से 
वर्तमान में। 

-यशवन्त माथुर ©
05112020 
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