समय के साथ चलते-चलते
नयी मंजिल की तलाश में
भटकते-भटकते
कई दोराहों-चौराहों से गुजर कर
अक्सर मिल ही जाते हैं
हर देहरी पर
बिखरे-बिखरे से
उलझे-उलझे से
भीतर से सुलगते से
कुछ नये अल्फाज़
जिन्हें गर कभी
मयस्सर हुआ
कोई कोरा कागज़
तो कलम की जुबान से
सुना देते हैं
एक दास्तान
अपनी बर्बादियों के
उस बीते दौर की
जिससे बाहर निकलने में
बीत चुकी होती हैं
असहनीय तनाव
और अकेलेपन की
सैकड़ों सदियाँ।
31012021