'धारयति इति धर्मः'-
जिसे धारण किया जाए
वही धर्म है
अच्छे कर्म करना ही
जीवन का मर्म है
लेकिन;
ये शब्द
और उनके वास्तविक अर्थ
सदियों पहले
खुद ही कहने के बाद
अब हम भूलते जा रहे हैं
भटकते जा रहे हैं,
कई टुकड़ों में
बँटते जा रहे हैं
शायद इसलिए
कि परस्पर विश्वास की
मजबूत जड़ें
पल-पल बहाए जा रहे
झूठ के मट्ठे को सोख कर
जर्जर करती जा रही हैं
सृष्टि के आरंभ से
गगन चूमते
हरे-भरे पेड़ को
जिसमें पतझड़ आ तो गया है
लेकिन
पुनर्जीवन तभी होगा संभव
जब प्रेम के जल में
सच का कीटनाशक मिला कर
हम शुरू कर देंगे सींचना
अपने वर्तमान से
भविष्य को।
21022021
सटीक
ReplyDeleteसादर धन्यवाद🙏
Deleteसुंदर सृजन
ReplyDeleteसादर धन्यवाद🙏
Deleteअति सुन्दर एवं प्रभावी प्रस्तुति ।
ReplyDeleteसादर धन्यवाद🙏
Deleteजो धारण किया जा सके वही धर्म है।
ReplyDeleteबेहतरीन प्रस्तुति।
सादर धन्यवाद🙏
Deleteसादर नमस्कार ,
ReplyDeleteआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल मंगलवार (23-2-21) को 'धारयति इति धर्मः'- (चर्चा अंक- 3986) पर भी होगी।
आप भी सादर आमंत्रित है।
--
कामिनी सिन्हा
सादर धन्यवाद🙏
Deleteसुन्दर प्रस्तुति.
ReplyDeleteसादर धन्यवाद🙏
Deleteबहुत खूब, बहुत खूब यशवंत जी ।
ReplyDeleteसादर धन्यवाद🙏
Deleteआध्यात्मिक मूल्यों को समक्ष रखता आपका सृजन श्लाघनीय है।
ReplyDeleteसादर धन्यवाद🙏
Deleteबहुत बहुत सुन्दर सराहनीय रचना
ReplyDeleteसादर धन्यवाद🙏
Deleteसार्थक लेखन ! झूठ कितना भी बड़ा क्यों न हो वह अनंत तो हो नहीं सकता, सत्य अनंत है और रहेगा
ReplyDeleteसादर धन्यवाद🙏
Deleteबहुत ही सुंदर।
ReplyDeleteसादर धन्यवाद🙏
Deleteचिंतन परक सृजन ।
ReplyDeleteसार्थक भाव समेटे सटीक सृजन।
बहुत सुंदर।
सादर धन्यवाद🙏
Deleteसुंदर सृजन ।
ReplyDeleteप्रेरणादायक।
सादर धन्यवाद🙏
Deleteसुंदर प्रस्तुति।
ReplyDeleteसादर धन्यवाद🙏
Deleteअध्यात्म को छूता हुआ दर्शन ..बहुत खूब
ReplyDeleteसादर धन्यवाद🙏
Deleteआज के परिवेश में जीवन मूल्यों का अवलोकन करता स्वस्थ चिंतन..
ReplyDeleteसादर धन्यवाद🙏
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