हो रहा है
वही सब कुछ अनचाहा
जो न होता
तो यूँ पसरा न होता
दिन और रात के चरम पर
दहशत और तनाव का
बेइंतिहा सन्नाटा
लेकिन हम!
हम बातों
और वादाखिलाफी के शूरवीर लोग
वर्तमान का
सब सच जानते हुए भी
तटस्थता का कफन ओढ़ कर
समय से पहले ही
लटकाए हुए हैं
भविष्य की कब्र में अपने पैर ..
सिर्फ इसलिए
कि
वक़्त के कत्लखाने में
प्रतिप्रश्नों की
कोई जगह नहीं।
22042021
वक़्त के क़त्लखाने में जिबह होती ज़िंदगी की रिरियाहट अब बेअसर सी हो रही,अपने अपने दर्द में डूबे लोग पत्थर में तबदील हो जायेंगे एकदिन।
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समसामयिकी बेहतरीन ,बेहद मुखर रचना।
सादर।
बहुत सुन्दर
ReplyDeleteआपकी इस अभिव्यक्ति के शब्द-शब्द में भरे यथार्थ को अनुभव कर रहा हूँ आदरणीय यशवंत जी।
ReplyDeleteजी नमस्ते ,
ReplyDeleteआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शनिवार (२४-०४-२०२१) को 'मैंने छुटपन में छिपकर पैसे बोये थे'(चर्चा अंक- ४०४६) पर भी होगी।
आप भी सादर आमंत्रित है।
सादर
वक्त के आगे किसकी चली है, दहशत और तनाव का यह सन्नाटा भी वक्त का सैलाब ही एक दिन बहाकर ले ही जायेगा, प्रभावशाली लेखन
ReplyDeleteबहुत सुंदर रचना
ReplyDeleteगज़ब! सीधे हृदय तक उतरता सत्य।
ReplyDeleteसुंदर सृजन।
अति मार्मिक एवं सटीक..
ReplyDeleteबहुत सुंदर
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