Image:Yashwant Mathur© |
ऊंची इमारतों की छतों को
छूकर निकलने वाला
बादलों का हर एक टुकड़ा
स्पीड ब्रेकर की तरह
बीच राह में आने वाली
टहनियों
और इक्का दुक्का पत्तियों से
बची खुची सांसों का हाल
पूछता हुआ
निकल लेता है
सूखी पथरीली
रेतीली धरती पर
बरसने को
जिसकी तह में
हरी घास की जड़ें नहीं
अब मिलते हैं
सिर्फ
विलुप्त होती
सभ्यता के अवशेष।
19052021
वाह।
ReplyDeleteबहुत सुंदर,भावपूर्ण गहन अर्थ समेटे हुए सराहनीय अभिव्यक्ति।
ReplyDeleteनमस्ते,
ReplyDeleteआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा सोमवार (24-05-2021 ) को 'दिया है दुःख का बादल, तो उसने ही दवा दी है' (चर्चा अंक 4075) पर भी होगी। आप भी सादर आमंत्रित है।
चर्चामंच पर आपकी रचना का लिंक विस्तारिक पाठक वर्ग तक पहुँचाने के उद्देश्य से सम्मिलित किया गया है ताकि साहित्य रसिक पाठकों को अनेक विकल्प मिल सकें तथा साहित्य-सृजन के विभिन्न आयामों से वे सूचित हो सकें।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
#रवीन्द्र_सिंह_यादव
सुंदर!
ReplyDeleteगहन भाव , अवसाद से भर जाता है मन जब पर्यावरण की ये दुर्गति देखते हैं । सार्थक सृजन।
साधुवाद।
दूरगामी नजर से लिखी गई प्रभावशाली रचना, वाकई जब सारे पेड़ कट जाएंगे तो सभ्यता कहाँ बचेगी !
ReplyDeleteखूबसूरत रचना
ReplyDeleteबहुत सुंदर भावपूर्ण कविता,यशवंत भाई।
ReplyDeleteसभ्यता के अवशेष ढूंढ़ती एक उत्कृष्ट रचना-----वाह
ReplyDeleteसच कहा आपने यशवंत जी,अगर ऐसे ही पर्यावरण की अनदेखी की गई,तो कुछ सालों के बाद सभ्यता के अवशेष ढूँढने पड़ेंगे।बहुत शुभकामनाएँ आपको।
ReplyDeleteजी बहुत ही सार्थक रचना।
ReplyDeleteबहुत सुंदर अभिव्यक्ति।
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