शब्दों के इस अथाह समुद्र की
क्या तली को कभी छू पाऊँगा?
या ऐसे ही इन लहरों के संग
अन्त तक बहता जाऊंगा ?
नहीं पता कहाँ पर मंज़िल
कब तक चलते जाना है ?
कितने कदम बढ़ चुका अब तक
और कितना थकते जाना है ?
नहीं पता कहाँ पर मंज़िल
कब तक चलते जाना है ?
कितने कदम बढ़ चुका अब तक
और कितना थकते जाना है ?
अपनी हदों के भीतर से
क्या बाहर कभी आ पाऊँगा ?
या निर्जीव दीवार के जैसे
सबकी सुनता जाऊंगा?
-यशवन्त माथुर©
29/01/2019
हदों को जान लिया जिसने वही हदों से पार भी जा सकता है, और दीवारों के भी कान होते हैं ! सुंदर सृजन !
ReplyDeleteबहुत सुंदर अभिव्यक्ति
ReplyDeleteप्रयास कर रहा हूँ आपकी अभिव्यक्ति के मर्म को समझने का।
ReplyDeleteबहुत सुंदर
ReplyDeleteसुंदर भावों की गहरी अभिव्यक्ति,अच्छी रचना..
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