हाँ
साधारण ही हूँ
यह जानकर
और मान कर भी
कि मेरे सम वयस्क
हर एक मायने में
निकल चुके हैं
मुझसे कहीं आगे
और मैं
अब भी
वहीं खड़ा हूँ
अपने सीमित शब्दकोश की
असीमित देहरी के भीतर
जहां
कल्पना का खाद-पानी पा कर
अंकुरित होती बातें
अविकसित या
अल्पविकसित ही रह कर
पूर्ण हो ही नहीं पातीं
क्योंकि मैं जानता हूँ
अपने शाब्दिक कुपोषण का कारण
क्योंकि मैं जानता हूँ
मैं हूँ ही साधारण
फिर भी नहीं छोड़ पाता मोह
खुद से खुद के मन की कहने का
धारा के विपरीत
कुछ तो बहने का।
-यशवन्त माथुर©
14072021
आपकी इन भावनाओं को बाख़ूबी समझा मैंने यशवंत जी।
ReplyDeleteहृदयस्पर्शी सृजन ।
ReplyDeleteआपकी लिखी रचना ब्लॉग "पांच लिंकों का आनन्द" पर गुरुवार 23 सितंबर 2021 को लिंक की जाएगी ....
ReplyDeletehttp://halchalwith5links.blogspot.in पर आप सादर आमंत्रित हैं, ज़रूर आइएगा... धन्यवाद!
!
मर्मस्पर्शी रचना ।
ReplyDeleteसुंदर रचना
ReplyDeleteसुन्दर सृजन
ReplyDeleteअत्यंत मार्मिक और हृदय स्पर्शी रचना!
ReplyDeleteकोई कहीं भी पहुँच जाए अनंत सदा उसके आगे हैं और पीछे भी, यहाँ तुलना की बात ही बेमानी है, अपने भीतर जाकर जिसने भी देखा है अनंत से ही टकराया है, इसलिए आगे-पीछे, छोटा-बड़ा केवल शब्द हैं, हर कोई उस अनंत का ही एक अंश है
ReplyDeleteबढ़िया लिखा
ReplyDeleteबहुत बढ़िया
ReplyDeleteधारा के विपरीत बहने वालों को भले ही मुख्य धारा में बहने वाले न समझ पाएं, लेकिन एक दिन ऐसा जरूर आता है जब उनके पहचानने-जानने वालों की सबसे बड़ी भीड़ होती है
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